श्रीमद भागवद पुराण अट्ठाईसवां अध्याय [स्कंध ३] (भक्ति योग तथा योगाभ्यास)

 श्रीमद भागवद पुराण अट्ठाईसवां अध्याय [स्कंध ३]

(भक्ति योग तथा योगाभ्यास)

दो०-जिस विधि होता योग, साध्य ये आत्मज्ञान।

सो वर्णन कीयासकल करके सकल प्रमाण ॥


इस प्रकार भगवान कपिल जी द्वारा ज्ञानोपदेश सुन कर देवहूति ने कहा-हे प्रभो ! जिस प्रकार साँख्य शास्त्र में कहा है वह आप मुझे सुनाओ, कि महतत्व, आदिक तथा प्रकृति व पुरुष का लक्षण और इन सबका असली स्वरूप किस प्रकार ज्ञात किया जाये। इन सब को मूल क्या है और भक्ति योग मार्ग क्या है तथा जिससे पुरुष को वैराग्य उत्पन्न होवे तथा जीव के आवागमन की संसृति कथा, और परे से परे महाकाल स्वरूप परमात्मा का वह स्वरूप वर्णन करों कि जिस के कारण जीव पुन्य कर्म करने को वाध्य क्यों होता है। मैत्रेय जी बोले हे विदुर जी ! अपनी माता के ऐसे सरल बचनों को सुनकर, कपिल भगवान प्रसन्नता पूर्वक बोले हे माता! भक्ति योग मार्गों के भेद से अनेक प्रकार का हो जाता है, क्योंकि मनुष्य की प्रकृति त्रिगुणात्मक होने के कारण संकल्प में भेद भाव उत्पन्न होने से नवधा भक्ति फल देने के लिये २७ (सत्ताईस ) हो जाती है, और श्रवण करने से प्रत्येक के नौ-दौ भेद होने के कारण इक्यासी (८१) प्रकार की हो जाता है ।

परंतु संसार में नौ प्रकार की भक्ति प्रचलित है, इस लिये यहाँ हम नवधा भक्ति के लक्षण वर्णन करते हैं।

भक्ति के प्रकार।। भक्ति के लक्षण।।


पुराणों में कथा कीर्तन देवनारायण का श्रवण करना तथा दूसरा कीर्तन इत्यादि करना कहा गया है। परन्तु यहाँ पहिला लक्षण भक्ति का संतों की संगति करके तथा दूसरी में संन्तों द्वारा हरि कथा चरित्र कीर्तन आदि श्रवण करके इत्यादि प्रकार से जानना चाहिये।

जो भक्ति हिंसा, कपट, और मत्सरता इन तीन प्रकार में से किसी भाव से जो भक्ति की जाती हैं वह भक्ति तामसी कही जाती है।

इस के अतिरिक्त इन्हीं तीनों प्रकार में से अगर मूर्ति पूजा करके यश और ऐश्वर्य के लिये की जाती है वह राजसी भक्ति कही जाती है।

तथा जो भक्ति मुझ में मन लग कर और अपने कर्मों को परमेश्वर के समर्पण करके विधि पूर्वक पूजन तथा भजन करके मेरी भावना से मेरा स्वरूप जानकर की जाती है, वह सतो गुण भक्ति होती है।

हे माता ! हमने आपसे यह निर्गुण भक्ति का वर्णन किया है जो कामना रहित श्रद्धा युक्त धर्म का आचरण करके सर्वदा निष्काम पूजा पाठ करे और कोई जीव हिंसा न करें ऐसी भक्ति नित्य करने से अंत करण पवित्र हो जाता है। मेरी मूर्ति आदि का दर्शन, स्पर्शन, पूजा, स्तुति, प्राणायामादिक से, तथा सब जीव मात्र में तुझे ही जानकर, ध्येय धारण कर वैराग्य से हृदय शुद्ध हो जाता है। महात्मा एवं हरि भक्तों का आदर सत्कार करने से दीन दुखी पर दया करने से सज्जन से मित्रता करने से यम नियम के साधन से और हृदय से स्मरण करने से देह शुद्ध हो जाती है। कथा वाचन द्वारा मेरी कथा हरि नाम संकीर्तन करने से, साधुओं का सत्संग करने से और अहंकार का त्याग कर देने से मन निर्मल हो जाता है । जिस पुरुष का अंतः करण इन गुणों से जब शुद्ध हो जाता है तो तब वह अतः करण मेरे गुण श्रवण करने मात्र से ही मुझको प्राप्त हो जाता है। हे माता! मैं सबका अंतर्यामी हमेशा सब जीवों में स्थिर रहता हूँ । जो मनुष्य मेरे नाम का दिखावा करके धन संचय के निमित्त केवल दिखावे के लिये मेरी मूर्ति की पूजा करता है वह केवल विडंबना मात्र है जो मनुष्य मुझे यह जानता हैं कि मैं सब प्राणियों में स्थिर हूँ। और तब वह मेरी मूर्ति की पूजा मुझे छोड़कर करता है सो इस प्रकार जानो कि वह मूर्ख राख में होम करता है । हे माता! चाहे कोई मुझे किसी रीति से पूजे अथवा भजे मैं तब तक उस पर कभी प्रसन्न नहीं होता हूँ जब तक कि वह यह न जान ले कि मैं प्रत्येक प्राणी मात्र में विराजमान हूँ। अत: हे माता! मेरा पूजन भजन करना तभी सार्थक होता हैं जब कि मनुष्य मुझे प्रत्येक प्राणी मात्र में विराजमान समझता है।


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