श्रीमद भागवद पुराण * पच्चीसवां अध्याय *[स्कंध४] (जीव का विविधि संसार वृतांत)


श्रीमद भागवद पुराण * पच्चीसवां अध्याय *[स्कंध४]  (जीव का विविधि संसार वृतांत)  जिमि विधि होवे संसार यह वृतांत।   पच्चीसवें अध्याय में वर्णी कथा सुखांत।।    मैत्रेय जी बोले-हे बिदुर जी ! इधर तो यह प्रचेता लोग भगवान का दर्शन करके तथा वर प्राप्त कर के भी तप करने में लगे रहे। उधर राजा प्राचीन वह राज्य तथा कर्म में आसक्त रहा । तब एक दिन उसके यहाँ नारद जी ने आकर कहा-हे राजन्! आप उन कर्मों के द्वारा किस फल के प्राप्त होने की इच्छा करते हो संसार में दुख की हानि और सुख की प्राप्ति होना हो कल्याण नहीं है। नारद जी के ये बचन सुनकर प्राचीन वर्हि ने कहा-है वृह्मन् ! मेरी बुद्धि कर्मों में विधी हुई हैं अतः इसी कारण से मैं मोक्ष रूपी आनंद से अपरिचित हूँ, सो अब आप ही मुझे ऐसा निर्मल ज्ञानोपदेश कीजिये कि जिससे में कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाऊँ। तब नारद जी ने कहा-हे प्रजापते ! तुमने दया हीन होकर यज्ञ में हजारों पशुओं का बध किया है, वे पशु तुम्हारे द्वारा दी हुई पीड़ा को सहन करते हुये तुम्हारे मरने की राह देख रहे हैं जब तुम मरोगे तब ये अपनी हत्या का बदला लेने के लिये अपने सींगों से मारेंगे। उस समय सींग लोहे से मढ़े हुये होंगे । सो हे, राजन् ! इस अपनी बात की पुष्टि करने के लिये में राजा पुरंजन का हाल कहता हूँ। राजा पुरंजन।।  हे राजन् ! पुरंजन नाम का एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका एक अत्यंत घनिष्ठ अविज्ञात नाम का मित्र था एक बार वह राजा अपनी राजधानी बनाने के लिये किसी सुन्दर नगर की खोज में संपूर्ण पृथ्वी पर घूमा। परन्तु उसे अपनी मन इच्छानुसार कोई स्थान न मिला जिसके कारण वह अपने मन में उदास हो गया। एक समय यह राजा पुरंजन दक्षिण की और घूमता हुआ हिमवान के शिखरों में चला गया। वहाँ उसने एक अति सुन्दर हर प्रकार को सुविधा से पूर्ण नगर को देखा । यह नगर राजसी ठाठों से हर प्रकार से शोभित था नगर के बाहर ही एक बहुत सुन्दर वन था । जो अनेक प्रकार के फलों वाले वक्षों से परिपूर्ण था उसी में एक बहुत सुन्दर तालाब था । जिसमें निर्मल जल भरा हुआ था । जलाशय के मध्य में कमलों पर अनेक भौंरे भमर कर रहे थे। सो हे राजन् ! उसी सुन्दर बन में एक अति सुन्दर स्त्री अपने दस सेवकों के साथ विचरण करती हुई राजा पुरंजन ने देखी । उन सेवकों में से प्रत्येक के साथ सैकड़ों सुन्दर स्त्रियाँ थीं। उस सुन्दर स्त्री की एक बड़ा पाँच शिर वाला सर्प रक्षा करता था। वह सुन्दर रमणी सोलह वर्ष वाली उस सुन्दर वन में विचरण करती अपने मन के मंतव्य की प्राप्ती हेतु विचरती थी। उस स्त्री को देखकर राजा पुरंजन अति प्रभावित हुआ और उसके नयनों के वाण से घायल हो उसके ऊपर आसक्त होगया। तब वह उसका परिचय प्राप्त करने के लिये निकट जाकर इस प्रकार बोला-हे कमल नयनी ! तुम कौन हो, और किसकी कन्या हो, तथा किस कारण यहाँ भ्रमण करती हो, तथा अपने मन का अभिप्राय मुझ पर प्रकट करो। यह ग्यारह महाभट तुम्हारे साथ में कौन हैं, तथा यह साथ में सैकड़ों स्त्रियाँ कौंन हैं, और यह सबसे अधिक महाबली पाँच शिर वामा सर्प कौन हैं। इस वन में किस कारण से विचरण कर रही हो । अतः मेरी प्रार्थना स्वीकार करके मेरे साथ रहकर इस नगर को सुशोभित करो । तुम्हारी लज्जा भरी मुस्कान से कामदेव द्वारा तिरछी चितवन की पैनी अनी से मेरे मन को हरण कर लिया है । श्री नारदजी राजा प्राचीन वर्हि से कहते हुये इस प्रकार बोले-जब राजा पुरंजन ने उस नारी के सामने इस प्रकार से अधीर होकर प्रार्थना की तो वह स्त्री भी उस राजा पुरंजन को देखकर मोहित होगई।   तब वह सुन्दर स्त्री बोली-हे वीर पुरुष ! यह बात मैं स्वयं भी नहीं जानती हूँ कि मैं कौन हूँ और किसकी कन्या हूँ, तथा जब से होश संभाला है तबसे यहीं इसी पुरी में अपने इन मित्रों के साथ निवास करती हूँ। मैं यह भी नहीं जानती हूँ कि यह नगर किसने बनाया है। हाँ! इतना अवश्य है कि मेरी तथा इस नगरी की रक्षा मेरे इन सब मित्रों के साथ यही मेरा मित्र पाँच शिर वाला सर्प ही किया करता है। हे विभो ! यदि आप साँसारिक भोगों की इच्छा रखते हो सो आप मेरी नवद्वार वालो नगरी में आनंद से रहो, मैं अपने सभी मित्रों के साथ रहकर आपकी हर विषय भोग की इच्छा को पूरा करुंगी । सो आप मेरे साथ विषय के भोग करते हुये सौ वर्ष तक मेरी इस रभणीक नौ द्वार वाली नगरी में निवास करो ! हे राजन् ! गृहस्थाश्रम के निमित्त आप जैसे वीर, उदार, रूपवान, पति को पाकर मेरे समान कौन स्त्री है जो आपको न करे ।   नारदजी कहते हैं-हे राजन ! इस प्रकार दोनों ने एक दूसरे के साथ अनेक वार्तालाप किया और फिर पुरंजन उस स्त्री के साथ सौ वर्ष तक भोग करने की इच्छा से वहीं रहने लगा । वह उस स्त्री के तथा अन्य सभी बहुत सी स्त्रियों के साथ गर्मी के समय में सरोवर में घुसकर विहार करने लगा। उस सुन्दर नगर में अलग-अलग दिशाओं में जाने के लिये सात द्वार ऊपर और दो द्वार नीचे थे । इनमें पाँच द्वार पूर्व की ओर और दो द्वार पश्चिम की ओर तथा एक द्वार उत्तर तथा दक्षिण दिशा की ओर थे।  नारद जी को श्राप।।  यह स्त्री कौन थी ओर पुरंजन कौन था। यह सब इस प्रकार जानना चाहिये जैसा कि नारदजी ने राजा प्राचीन बर्हि के पूछने पर कहा कि एक समय राजा कालदेव की कन्या मृत्यु अपना पति खोजने के लिये हर समय भ्रमण करती रहती थी । परन्तु उसे मृत्यु जानकर कोई पतिनी रूप में स्वीकार नहीं करता था। तब एक दिन वह नारदजी के पास पहुंची और कहा-कि हे देवर्षि आप मेरे साथ विवाह कर लीजिये। तब नारदजी ने उसे स्वीकार नहीं किया तब उसने अति क्रोधित हो नारदजी को श्राप दिया कि तुम ढाई घड़ी से अधिक किसी स्थान पर न ठहरोगे। यदि अधिक समय ठहरोगे तो उसी समय तुम्हारे शिर में दर्द होने लग जाएगा । तब मृत्यु द्वारा यह शाप देने पर नारदजी ने उसे एक यह उपाय बताया कि हे मृत्यु ! तू प्रज्वार नाम वाले गंधर्व के समीप जा और उसकी बहिन बनकर उसी से प्रार्थना कर कि वह तेरे लिये पति को खोज करे, सो वही इतनी सामर्थ्य को प्राप्त है कि नित्य एक पति तेरे लिये अवश्य खोज दिया करेगा । क्योंकि वह बहुत बड़ी सैना वाला गंधर्व है। इस प्रकार से तेरी विषय बासना शान्त हो जाया करेगी। नारदजी की बात मानकर वह मृत्यु नाम वाली कन्या प्रज्वार नाम के गंधर्व के पास गई, और उससे कहा-हे गंधर्व ! मैं तुम्हें अपना भाई बनाने के लिये तुम्हारे पास आई हूँ सो आप मेरी इच्छा को पूरा करो । प्रज्वार ने मृत्यु की बात को स्वीकार करके अपनी बहिन के रूप में मृत्यु को स्वीकार कर लिया। तब उसे बहिन बनाने के पश्चात् प्रज्वार ने अपने यहाँ की एक 'जरा' नाम वाली कुटिनी को बुलाकर कहा हे कुटिनी ! तुम मेरी बहिन मृत्यु के लिये किसी एक नव योवन सुन्दर पुरुष की खोज करो। जिससे कि मैं अपनी इस बहिन का विवाह उस पुरुष के साथ करदू।   कहनें का असली तात्पर्य नारदजी का यह था कि वह राजा प्राचीन वहि को समझाकर यह बताना चाहते थे कि मनुष्य को केवल सांसरिक सुख भोग में ही जीवन नष्ट न करना चाहिये अपना परलोक सुधारने के लिये ईश्वर का भजन भी करना चाहिये । समझाने का अर्थ यह भी था कि यदि कोई मनुष्य किसी को कोई चीज अपनी खुशी से बेटे और लेने वाला आदमी उसको न लेवे अथवा द्रव्य प्राप्त करके दान पुन्य न करें, वह व्यक्ति अंत में अत्यंत कष्ट पाता हुआ पछिताता है। इसी कारण भगवान ने मृत्यु का समय निश्चित नहीं किया है, क्योंकि यदि प्राणी को अपने मरने का समय ज्ञात हो जावे तो वह सांसारिक माया मोह के सभी कार्यो को त्याग कर वैराग्य धारण कर लेगा।   इसी प्रकार अागे नारदजी उस स्त्री के नगर के नौ द्वार कहे हैं। सो वह आप इस प्रकार जाने कि एक ही सूत पर बने हुये दोनों द्वार नेत्र हैं जो कि इन द्वारों के द्वारा राजा पुरंजन विभाजित नाम देशको अर्थात रूप(इन्द्रियनेत्रमित्रों) के साथ सैर करता है। और दो द्वार नाक के कहे गये हैं जोकि एक ही सूध पर हैं इन द्वारों से राजा पुर जन अवधूत (घाण) नाम सखा के साथ सौरभ (गंध) नाम देश में शैर करता है। इसी तरह एक द्वार (मुख्य) है जिससे पुरंजन राजा आपण (संभाषण) और बहूदन (अन्न) इन दो देशों में अपने रसज्ञ (जिव्हा नाम मित्र के साथ सैर करने जाता है । यही पाँच द्वार पूर्व दिशा वाले कहे हैं अर्थात दो नेत्र, दो नाक के द्वार तथा एक मुख यह पाँच द्वार पूर्व दिशा वाले हैं। दक्षिण देश का द्वार दायाँ कान है यह पितरों को बुलाने वाला दक्षिण कर्ण अर्थात इस द्वार से राजा पुर जन दक्षिण पाँचाल देश, प्रवत्ति मार्ग वाले कर्म काण्ड विषयक शास्त्र में श्रुतधर नाम (कर्ण इन्द्रिय) मित्र के साथ हवा खोरी करने को जाता है । अर्थात दक्षिण दिशा वाला द्वार दायाँ कान कहा है। और वायाँ कान उत्तर दिशा वाला द्वार कहा है। जिसके द्वारा राजा पुरजन पांचाल निवृत्त शास्त्र देश में पूर्वोक्त श्रुतधर नाम वाले मित्र के साथ सैर करने को जाता है । और पश्चिम द्वार आसुरी (शिश्न) नाम है इस द्वार के द्वारा राजा पुरजन ग्रामक (मैथुनसुख) नाम देश में दुर्मद (उपस्थइन्द्रिय) नाम वाले मित्र साथ सैर करने को जाता है। इस प्रकार उपरोक्त नारद के उपदेश वाले चरित्र में इन दश द्वारों को कहा गया है।  नारद मुनि द्वारा दिए ज्ञान का अर्थ।।  राजा पुरंजन किसे कहा गया है और उसका मित्र अविज्ञात किसे कहा गया है?  सो नारदजी ने इस प्रकार समझाया कि पुरंजन जीवात्मा को कहा गया है और उसका मित्र अविज्ञात नाम परमात्मा को कहा गया है । इसी प्रकार नारदजी के कहे हुये इस द्रष्टान्त को ज्ञान प्राप्ती के लिये समझना चाहिये द्वारों के विषय में पश्चिम की ओर गुदा याम (निॠति ) द्वार हैं, इस द्वार से पुरजन राजा लुब्धक [वायुइन्द्रिय] नाम मित्र के साथ वैशस [मल त्याग] नाम देश में शैर करने को जाता है। उस नगर में इन नौ द्वारों के अतिरिक्त निर्वाक (पांव) और पेशस्कृत नाम वाले द्वारों से भी काम करता है। यह राजा पुरंजन विषूलीन (मन) नाम मंत्री के साथ जब अपने अंतःपुर (हृदय] में जाता है, तब स्त्री (बुद्धि) और पुत्रों [इन्द्रियों के परिणाम] हर्ष के संबंध में मोह [तमोगुण का] कार्य प्रसाद सत्वगुण कार्य] और हर्ष स्त्रीगुण का कार्य] को प्राप्त होता है, । इस प्रकार कर्मों में आसक्त हो अज्ञानी राजा पुरंजन [जीवात्मा अपनी स्त्री [वृद्धि] की आज्ञा के अनुसार कार्य करने लगता है। जिस प्रकार जिस जिस काम को यह पुरंजन की स्त्री करती है उसी कर्मों को करने लग जाता है । नारदजी ने कहा-है राजा प्राचीन वर्हि, वह राजा पुरंजन स्त्री के वशीभूत हो मृग तृष्णा के अनुसार कामों को करने को भागा फिरता है।


श्रीमद भागवद पुराण * पच्चीसवां अध्याय *[स्कंध४]

(जीव का विविधि संसार वृतांत)


जिमि विधि होवे संसार यह वृतांत।

पच्चीसवें अध्याय में वर्णी कथा सुखांत।।



मैत्रेय जी बोले-हे बिदुर जी ! इधर तो यह प्रचेता लोग भगवान का दर्शन करके तथा वर प्राप्त कर के भी तप करने में लगे रहे। उधर राजा प्राचीन वह राज्य तथा कर्म में आसक्त रहा । तब एक दिन उसके यहाँ नारद जी ने आकर कहा-हे राजन्! आप उन कर्मों के द्वारा किस फल के प्राप्त होने की इच्छा करते हो संसार में दुख की हानि और सुख की प्राप्ति होना हो कल्याण नहीं है। नारद जी के ये बचन सुनकर प्राचीन वर्हि ने कहा-है वृह्मन् ! मेरी बुद्धि कर्मों में विधी हुई हैं अतः इसी कारण से मैं मोक्ष रूपी आनंद से अपरिचित हूँ, सो अब आप ही मुझे ऐसा निर्मल ज्ञानोपदेश कीजिये कि जिससे में कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाऊँ। तब नारद जी ने कहा-हे प्रजापते ! तुमने दया हीन होकर यज्ञ में हजारों पशुओं का बध किया है, वे पशु तुम्हारे द्वारा दी हुई पीड़ा को सहन करते हुये तुम्हारे मरने की राह देख रहे हैं जब तुम मरोगे तब ये अपनी हत्या का बदला लेने के लिये अपने सींगों से मारेंगे। उस समय सींग लोहे से मढ़े हुये होंगे । सो हे, राजन् ! इस अपनी बात की पुष्टि करने के लिये में राजा पुरंजन का हाल कहता हूँ।

राजा पुरंजन।।

हे राजन् ! पुरंजन नाम का एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका एक अत्यंत घनिष्ठ अविज्ञात नाम का मित्र था एक बार वह राजा अपनी राजधानी बनाने के लिये किसी सुन्दर नगर की खोज में संपूर्ण पृथ्वी पर घूमा। परन्तु उसे अपनी मन इच्छानुसार कोई स्थान न मिला जिसके कारण वह अपने मन में उदास हो गया। एक समय यह राजा पुरंजन दक्षिण की और घूमता हुआ हिमवान के शिखरों में चला गया। वहाँ उसने एक अति सुन्दर हर प्रकार को सुविधा से पूर्ण नगर को देखा । यह नगर राजसी ठाठों से हर प्रकार से शोभित था नगर के बाहर ही एक बहुत सुन्दर वन था । जो अनेक प्रकार के फलों वाले वक्षों से परिपूर्ण था उसी में एक बहुत सुन्दर तालाब था । जिसमें निर्मल जल भरा हुआ था । जलाशय के मध्य में कमलों पर अनेक भौंरे भमर कर रहे थे। सो हे राजन् ! उसी सुन्दर बन में एक अति सुन्दर स्त्री अपने दस सेवकों के साथ विचरण करती हुई राजा पुरंजन ने देखी । उन सेवकों में से प्रत्येक के साथ सैकड़ों सुन्दर स्त्रियाँ थीं। उस सुन्दर स्त्री की एक बड़ा पाँच शिर वाला सर्प रक्षा करता था। वह सुन्दर रमणी सोलह वर्ष वाली उस सुन्दर वन में विचरण करती अपने मन के मंतव्य की प्राप्ती हेतु विचरती थी। उस स्त्री को देखकर राजा पुरंजन अति प्रभावित हुआ और उसके नयनों के वाण से घायल हो उसके ऊपर आसक्त होगया। तब वह उसका परिचय प्राप्त करने के लिये निकट जाकर इस प्रकार बोला-हे कमल नयनी ! तुम कौन हो, और किसकी कन्या हो, तथा किस कारण यहाँ भ्रमण करती हो, तथा अपने मन का अभिप्राय मुझ पर प्रकट करो। यह ग्यारह महाभट तुम्हारे साथ में कौन हैं, तथा यह साथ में सैकड़ों स्त्रियाँ कौंन हैं, और यह सबसे अधिक महाबली पाँच शिर वामा सर्प कौन हैं। इस वन में किस कारण से विचरण कर रही हो । अतः मेरी प्रार्थना स्वीकार करके मेरे साथ रहकर इस नगर को सुशोभित करो । तुम्हारी लज्जा भरी मुस्कान से कामदेव द्वारा तिरछी चितवन की पैनी अनी से मेरे मन को हरण कर लिया है । श्री नारदजी राजा प्राचीन वर्हि से कहते हुये इस प्रकार बोले-जब राजा पुरंजन ने उस नारी के सामने इस प्रकार से अधीर होकर प्रार्थना की तो वह स्त्री भी उस राजा पुरंजन को देखकर मोहित होगई।

तब वह सुन्दर स्त्री बोली-हे वीर पुरुष ! यह बात मैं स्वयं भी नहीं जानती हूँ कि मैं कौन हूँ और किसकी कन्या हूँ, तथा जब से होश संभाला है तबसे यहीं इसी पुरी में अपने इन मित्रों के साथ निवास करती हूँ। मैं यह भी नहीं जानती हूँ कि यह नगर किसने बनाया है। हाँ! इतना अवश्य है कि मेरी तथा इस नगरी की रक्षा मेरे इन सब मित्रों के साथ यही मेरा मित्र पाँच शिर वाला सर्प ही किया करता है। हे विभो ! यदि आप साँसारिक भोगों की इच्छा रखते हो सो आप मेरी नवद्वार वालो नगरी में आनंद से रहो, मैं अपने सभी मित्रों के साथ रहकर आपकी हर विषय भोग की इच्छा को पूरा करुंगी । सो आप मेरे साथ विषय के भोग करते हुये सौ वर्ष तक मेरी इस रभणीक नौ द्वार वाली नगरी में निवास करो ! हे राजन् ! गृहस्थाश्रम के निमित्त आप जैसे वीर, उदार, रूपवान, पति को पाकर मेरे समान कौन स्त्री है जो आपको न करे ।

नारदजी कहते हैं-हे राजन ! इस प्रकार दोनों ने एक दूसरे के साथ अनेक वार्तालाप किया और फिर पुरंजन उस स्त्री के साथ सौ वर्ष तक भोग करने की इच्छा से वहीं रहने लगा । वह उस स्त्री के तथा अन्य सभी बहुत सी स्त्रियों के साथ गर्मी के समय में सरोवर में घुसकर विहार करने लगा। उस सुन्दर नगर में अलग-अलग दिशाओं में जाने के लिये सात द्वार ऊपर और दो द्वार नीचे थे । इनमें पाँच द्वार पूर्व की ओर और दो द्वार पश्चिम की ओर तथा एक द्वार उत्तर तथा दक्षिण दिशा की ओर थे।

नारद जी को श्राप।।


यह स्त्री कौन थी ओर पुरंजन कौन था?

 यह सब इस प्रकार जानना चाहिये जैसा कि नारदजी ने राजा प्राचीन बर्हि के पूछने पर कहा कि एक समय राजा कालदेव की कन्या मृत्यु अपना पति खोजने के लिये हर समय भ्रमण करती रहती थी । परन्तु उसे मृत्यु जानकर कोई पतिनी रूप में स्वीकार नहीं करता था। तब एक दिन वह नारदजी के पास पहुंची और कहा-कि हे देवर्षि आप मेरे साथ विवाह कर लीजिये। तब नारदजी ने उसे स्वीकार नहीं किया तब उसने अति क्रोधित हो नारदजी को श्राप दिया कि तुम ढाई घड़ी से अधिक किसी स्थान पर न ठहरोगे। यदि अधिक समय ठहरोगे तो उसी समय तुम्हारे शिर में दर्द होने लग जाएगा । तब मृत्यु द्वारा यह शाप देने पर नारदजी ने उसे एक यह उपाय बताया कि हे मृत्यु ! तू प्रज्वार नाम वाले गंधर्व के समीप जा और उसकी बहिन बनकर उसी से प्रार्थना कर कि वह तेरे लिये पति को खोज करे, सो वही इतनी सामर्थ्य को प्राप्त है कि नित्य एक पति तेरे लिये अवश्य खोज दिया करेगा । क्योंकि वह बहुत बड़ी सैना वाला गंधर्व है। इस प्रकार से तेरी विषय बासना शान्त हो जाया करेगी। नारदजी की बात मानकर वह मृत्यु नाम वाली कन्या प्रज्वार नाम के गंधर्व के पास गई, और उससे कहा-हे गंधर्व ! मैं तुम्हें अपना भाई बनाने के लिये तुम्हारे पास आई हूँ सो आप मेरी इच्छा को पूरा करो । प्रज्वार ने मृत्यु की बात को स्वीकार करके अपनी बहिन के रूप में मृत्यु को स्वीकार कर लिया। तब उसे बहिन बनाने के पश्चात् प्रज्वार ने अपने यहाँ की एक 'जरा' नाम वाली कुटिनी को बुलाकर कहा हे कुटिनी ! तुम मेरी बहिन मृत्यु के लिये किसी एक नव योवन सुन्दर पुरुष की खोज करो। जिससे कि मैं अपनी इस बहिन का विवाह उस पुरुष के साथ करदू।

कहनें का असली तात्पर्य नारदजी का यह था कि वह राजा प्राचीन वहि को समझाकर यह बताना चाहते थे कि मनुष्य को केवल सांसरिक सुख भोग में ही जीवन नष्ट न करना चाहिये अपना परलोक सुधारने के लिये ईश्वर का भजन भी करना चाहिये । समझाने का अर्थ यह भी था कि यदि कोई मनुष्य किसी को कोई चीज अपनी खुशी से बेटे और लेने वाला आदमी उसको न लेवे अथवा द्रव्य प्राप्त करके दान पुन्य न करें, वह व्यक्ति अंत में अत्यंत कष्ट पाता हुआ पछिताता है। इसी कारण भगवान ने मृत्यु का समय निश्चित नहीं किया है, क्योंकि यदि प्राणी को अपने मरने का समय ज्ञात हो जावे तो वह सांसारिक माया मोह के सभी कार्यो को त्याग कर वैराग्य धारण कर लेगा।


इसी प्रकार आगे नारदजी उस स्त्री के नगर के नौ द्वार कहे हैं। सो वह आप इस प्रकार जाने कि एक ही सूत पर बने हुये दोनों द्वार नेत्र हैं जो कि इन द्वारों के द्वारा राजा पुरंजन विभाजित नाम देशको अर्थात रूप(इन्द्रियनेत्रमित्रों) के साथ सैर करता है। और दो द्वार नाक के कहे गये हैं जोकि एक ही सूध पर हैं इन द्वारों से राजा पुर जन अवधूत (घाण) नाम सखा के साथ सौरभ (गंध) नाम देश में शैर करता है। इसी तरह एक द्वार (मुख्य) है जिससे पुरंजन राजा आपण (संभाषण) और बहूदन (अन्न) इन दो देशों में अपने रसज्ञ (जिव्हा नाम मित्र के साथ सैर करने जाता है । यही पाँच द्वार पूर्व दिशा वाले कहे हैं अर्थात दो नेत्र, दो नाक के द्वार तथा एक मुख यह पाँच द्वार पूर्व दिशा वाले हैं। दक्षिण देश का द्वार दायाँ कान है यह पितरों को बुलाने वाला दक्षिण कर्ण अर्थात इस द्वार से राजा पुर जन दक्षिण पाँचाल देश, प्रवत्ति मार्ग वाले कर्म काण्ड विषयक शास्त्र में श्रुतधर नाम (कर्ण इन्द्रिय) मित्र के साथ हवा खोरी करने को जाता है । अर्थात दक्षिण दिशा वाला द्वार दायाँ कान कहा है। और वायाँ कान उत्तर दिशा वाला द्वार कहा है। जिसके द्वारा राजा पुरजन पांचाल निवृत्त शास्त्र देश में पूर्वोक्त श्रुतधर नाम वाले मित्र के साथ सैर करने को जाता है । और पश्चिम द्वार आसुरी (शिश्न) नाम है इस द्वार के द्वारा राजा पुरजन ग्रामक (मैथुनसुख) नाम देश में दुर्मद (उपस्थइन्द्रिय) नाम वाले मित्र साथ सैर करने को जाता है। इस प्रकार उपरोक्त नारद के उपदेश वाले चरित्र में इन दश द्वारों को कहा गया है।


नारद मुनि द्वारा दिए ज्ञान का अर्थ।।


राजा पुरंजन किसे कहा गया है और उसका मित्र अविज्ञात किसे कहा गया है?


सो नारदजी ने इस प्रकार समझाया कि पुरंजन जीवात्मा को कहा गया है और उसका मित्र अविज्ञात नाम परमात्मा को कहा गया है । इसी प्रकार नारदजी के कहे हुये इस द्रष्टान्त को ज्ञान प्राप्ती के लिये समझना चाहिये द्वारों के विषय में पश्चिम की ओर गुदा याम (निॠति ) द्वार हैं, इस द्वार से पुरजन राजा लुब्धक [वायुइन्द्रिय] नाम मित्र के साथ वैशस [मल त्याग] नाम देश में शैर करने को जाता है। उस नगर में इन नौ द्वारों के अतिरिक्त निर्वाक (पांव) और पेशस्कृत नाम वाले द्वारों से भी काम करता है। यह राजा पुरंजन विषूलीन (मन) नाम मंत्री के साथ जब अपने अंतःपुर (हृदय] में जाता है, तब स्त्री (बुद्धि) और पुत्रों [इन्द्रियों के परिणाम] हर्ष के संबंध में मोह [तमोगुण का] कार्य प्रसाद सत्वगुण कार्य] और हर्ष स्त्रीगुण का कार्य] को प्राप्त होता है, । इस प्रकार कर्मों में आसक्त हो अज्ञानी राजा पुरंजन [जीवात्मा अपनी स्त्री [वृद्धि] की आज्ञा के अनुसार कार्य करने लगता है। जिस प्रकार जिस जिस काम को यह पुरंजन की स्त्री करती है उसी कर्मों को करने लग जाता है । नारदजी ने कहा-है राजा प्राचीन वर्हि, वह राजा पुरंजन स्त्री के वशीभूत हो मृग तृष्णा के अनुसार कामों को करने को भागा फिरता है।

Find the truthfulness in you, get the real you, power up yourself with divine blessings, dump all your sins...via... Shrimad Bhagwad Mahapuran🕉

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