राजा प्राचीन वहिक पुत्रों को विष्णु भगवान का वर प्राप्त होना।


श्रीमद भागवद पुराण तीसवाँ अध्याय [चतुर्थ स्कंध]   (राजा प्राचीन वहिक पुत्रों को विष्णु भगवान का वर प्राप्त होना)   दोहा-कियो प्रचेतन तप अमित, विष्णु दियो वरदान ।   सो तीसवें अध्याय में, समुचित कियो बखान ।।  श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! इतनी कथा के पश्चात विदुर जी ने श्री मैत्रेय ऋषि से पूछा - हे मुने ! आपने संपूर्ण कथा, और यह भी कहा कि प्रचेताओं ने शिव जी द्वारा रूद्र गीत स्तोत्र को प्राप्त कर भगवान श्री नारायण जी का जल में बैठ कर अखंड तप किया परन्तु उस तप से उन्हें मुक्ति तो अवश्य प्राप्त हुई होगी। परन्तु यह बताइये कि उन्हें पहिले इस लोक में और परलोक में क्या प्राप्त हुआ, वह सब प्रसंग मुझे कृपा कर समझाइये।    विदुर जी द्वारा पूछने पर श्री मैत्रेय बोले-हे बिदुर ! वे दस प्रचेता शिव जी द्वारा रुद्र गीत को प्राप्त कर उससे ईश्वर को प्रसन्न करने के लिये जल बैठ कर दस हजार वर्ष तक घोर तप करने लगे। तब भगवान ने उन दशौ प्रचेताओं से अति प्रसन्न होकर दर्शन देकर मेघ के समान अति गंभीर वाणी से कहा- हे नृपनंदनों! मैं तुम से बहुत प्रसन्न हूँ, अब आप मुझसे वरदान माँगो। तुम सब एक ही धर्म वाले हो और परस्पर अधिक स्नेह रखने वाले हो जो कोई मनुष्य संसार में संध्या के समय तुम्हारा स्मरण करेगा वह सदैव तुम्हारे समान ही अपने भाईयों में परस्पर प्रीत बनाये रखेगा। तथा उसके सभी भाई भी आपस में गहरी प्रोत रखेंगे जो मनुष्य इस रुद्रगीत से सुबह शाम मेरी स्तुति करके स्मरण करेगा, मैं उस मनुष्य को मनोवांच्छित फल प्रदान करुंगा| तुम दशौ भाईयों ने प्रसन्न मन से अपने पिता की आज्ञा का पालन किया है, इस लिये तुम सबको लोक अत्यंत कीर्ति प्राप्त होगी । तुम्हारा एक तेजस्वी पुत्र होगा जो वृह्या जी के समान गुणों वाला होगा। जिस की संतानों से संपूर्ण त्रिलोको परि पूर्ण हो जायगी    हे राजन् सुनो! एक बार काण्डु ऋषि ने प्रम्लों वा नाम वाली अप्सरा में कमल के समान नेत्र वाली एक कन्या को उत्पन्न किया उस अप्सरा ने उस कन्या को वृक्षों में पटक दिया । तब वह कन्या भूख से पीड़ित हो रोने लगी तो वृक्षों के राजा चंद्रमा को उस कन्या पर दया आई , सो उसने दया वश उस कन्या के मुख में अपनी तर्जनी उंगली देदी। सो हे प्रचेताओं वह कन्या अब विवाह के योग्य है, तुम्हारे पिता ने तुम्हें प्रजा उत्पन्न करने की अज्ञा दी थी सो अब तुम दशौ उस कन्या के साथ विवाह करके प्रजा उत्पन्न करो। तुम सब भाई एक ही स्वभाव तथा एक ही धर्म वाले हो, इसलिये वह सुन्दर कटि वाली कन्या तुम्हारे समान धर्म तथा स्वभाव वाली होने के कारण तुम दशौ भाइयों की स्त्री होगी। तुम सब मेरी कृपा से देवताओं के हजारों वर्ष तक सामर्थ वान रह कर पृथ्वी तथा स्वर्ग के सुखों का भोग भोगोगे तत्प- श्चात तुम निरंतर मेरी भक्ति करके विषय वासना को दग्ध कर के शुद्ध अंतःकरण वाले होकर नरक रूप संसार से वैराग्य लेकर मेरे परम धाम को प्राप्त करोगे । भगवान श्री नारायण द्वारा इस प्रकार कहने के पश्चात वे दशौ प्रचेता गद-गद वाणी से हाथ जोड़ कर भगवान की इस प्रकार स्तुति करते बोले ।   हे जगत्पते ! अपने शुद्ध स्वरूप ज्ञान द्वारा सांसारिक क्लेशों को हरने वाले, दुखियों के दुख को नाश करने वाले, आपको कोटि कोटि नमस्कार है। आपने अपना संपूर्ण क्लेशों को दूर करने वाला दर्शन देकर हमें कृतार्थ किया है । आप मोक्ष के दाता भगवान पुरुषार्थ रूप हम पर प्रसन्न हुये हैं । हम श्राप से यही वरदान माँगते हैं, जब हम संसार में अपने कर्मों को करके घूमते रहें, सो आपकी माया में लिप्त न होकर हम जन्म-जन्म में भी आपके गुण गान करने वाले भक्तों का सत्संग करते रहे । और आपके चरित्र रूप कथामृत को श्रवणों द्वारा पान करके आपमें चित्त को लगाये करें । और इससे अधिक वरदान क्या मांगे क्योंकि कामनाओं का तो अंत हो नहीं होता है।    इसके अतिरिक्त हम यह वरदान मांगते हैं कि हम सदैव आपके चरण कमलों में अपनी अटूट प्रीती रखें और किसी प्राणी मात्र से वैर- भाव न रखें । तथा हे प्रभु ! आपकी महिमा को वृह्म, शिव, योगी जन भी केवल स्तुति करके ही जानते हैं, परन्तु आपकी माया का भेद नहीं जानते हैं। सौ हे नाथ ! हमें भी यह वरदान दो कि अपनी बुद्धि के अनुसार आपकी स्तुति करते रहे ।    इस प्रक्ार अब उन प्रचेताओं ने भगवान श्री नारायण की अनेकानेक प्रकार से स्तुति की तो भगवान उन पर अति प्रसन्न हये और तथास्तु कह कर इस प्रकार बचन बोले-हे प्रचेताओ! जो आपने कहा है वो आपको मेरा कृपा से प्राप्त होगा। इतना कह कर भगवान अंतर्ध्यान हो अपने लोक को चले गये । तब वे प्रचेता जन जल से निकल पृथ्वी पर आये तो वृक्षों को बहुत घना देखा मार्ग भी निकलने में कठिनाई दीखी तो उन्होंने अपने मुख से अग्नि निकाल कर वृक्षों को जलाना आरंभ कर दिया इस प्रकार बृक्षों को जलता देख कर वृम्हा जी ने आय उन प्रचेताओं से कहा-हे प्रचेताओ ! इन निर्दोष वृक्षों को मत जलाओ। तुमने भगवान नारायण से भी यह वर माँगा है कि हम संसार में किसी से भी द्वष न करें तब वृम्हा जी का कहा मान कर प्रचेताओं ने अग्नि को समेट लिया तब वृक्षों ने भय मानकर वृम्हा जी के उपदेश से अपनी कन्या उन प्रचेताओं को विवाह दी।  सो हे विदुर! वृम्हा जी की आज्ञा से उन प्रचेताओं ने उस कन्या को अंगीकार किया ॥


श्रीमद भागवद पुराण तीसवाँ अध्याय [चतुर्थ स्कंध]


(राजा प्राचीन वहिक पुत्रों को विष्णु भगवान का वर प्राप्त होना)


दोहा-कियो प्रचेतन तप अमित, विष्णु दियो वरदान ।


सो तीसवें अध्याय में, समुचित कियो बखान ।।


श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! इतनी कथा के पश्चात विदुर जी ने श्री मैत्रेय ऋषि से पूछा - हे मुने ! आपने संपूर्ण कथा, और यह भी कहा कि प्रचेताओं ने शिव जी द्वारा रूद्र गीत स्तोत्र को प्राप्त कर भगवान श्री नारायण जी का जल में बैठ कर अखंड तप किया परन्तु उस तप से उन्हें मुक्ति तो अवश्य प्राप्त हुई होगी। परन्तु यह बताइये कि उन्हें पहिले इस लोक में और परलोक में क्या प्राप्त हुआ, वह सब प्रसंग मुझे कृपा कर समझाइये।



विदुर जी द्वारा पूछने पर श्री मैत्रेय बोले-हे बिदुर ! वे दस प्रचेता शिव जी द्वारा रुद्र गीत को प्राप्त कर उससे ईश्वर को प्रसन्न करने के लिये जल बैठ कर दस हजार वर्ष तक घोर तप करने लगे। तब भगवान ने उन दशौ प्रचेताओं से अति प्रसन्न होकर दर्शन देकर मेघ के समान अति गंभीर वाणी से कहा- हे नृपनंदनों! मैं तुम से बहुत प्रसन्न हूँ, अब आप मुझसे वरदान माँगो। तुम सब एक ही धर्म वाले हो और परस्पर अधिक स्नेह रखने वाले हो जो कोई मनुष्य संसार में संध्या के समय तुम्हारा स्मरण करेगा वह सदैव तुम्हारे समान ही अपने भाईयों में परस्पर प्रीत बनाये रखेगा। तथा उसके सभी भाई भी आपस में गहरी प्रोत रखेंगे जो मनुष्य इस रुद्रगीत से सुबह शाम मेरी स्तुति करके स्मरण करेगा, मैं उस मनुष्य को मनोवांच्छित फल प्रदान करुंगा| तुम दशौ भाईयों ने प्रसन्न मन से अपने पिता की आज्ञा का पालन किया है, इस लिये तुम सबको लोक अत्यंत कीर्ति प्राप्त होगी । तुम्हारा एक तेजस्वी पुत्र होगा जो वृह्या जी के समान गुणों वाला होगा। जिस की संतानों से संपूर्ण त्रिलोको परि पूर्ण हो जायगी



हे राजन् सुनो! एक बार काण्डु ऋषि ने प्रम्लों वा नाम वाली अप्सरा में कमल के समान नेत्र वाली एक कन्या को उत्पन्न किया उस अप्सरा ने उस कन्या को वृक्षों में पटक दिया । तब वह कन्या भूख से पीड़ित हो रोने लगी तो वृक्षों के राजा चंद्रमा को उस कन्या पर दया आई , सो उसने दया वश उस कन्या के मुख में अपनी तर्जनी उंगली देदी। सो हे प्रचेताओं वह कन्या अब विवाह के योग्य है, तुम्हारे पिता ने तुम्हें प्रजा उत्पन्न करने की अज्ञा दी थी सो अब तुम दशौ उस कन्या के साथ विवाह करके प्रजा उत्पन्न करो। तुम सब भाई एक ही स्वभाव तथा एक ही धर्म वाले हो, इसलिये वह सुन्दर कटि वाली कन्या तुम्हारे समान धर्म तथा स्वभाव वाली होने के कारण तुम दशौ भाइयों की स्त्री होगी। तुम सब मेरी कृपा से देवताओं के हजारों वर्ष तक सामर्थ वान रह कर पृथ्वी तथा स्वर्ग के सुखों का भोग भोगोगे तत्प- श्चात तुम निरंतर मेरी भक्ति करके विषय वासना को दग्ध कर के शुद्ध अंतःकरण वाले होकर नरक रूप संसार से वैराग्य लेकर मेरे परम धाम को प्राप्त करोगे । भगवान श्री नारायण द्वारा इस प्रकार कहने के पश्चात वे दशौ प्रचेता गद-गद वाणी से हाथ जोड़ कर भगवान की इस प्रकार स्तुति करते बोले ।


हे जगत्पते ! अपने शुद्ध स्वरूप ज्ञान द्वारा सांसारिक क्लेशों को हरने वाले, दुखियों के दुख को नाश करने वाले, आपको कोटि कोटि नमस्कार है। आपने अपना संपूर्ण क्लेशों को दूर करने वाला दर्शन देकर हमें कृतार्थ किया है । आप मोक्ष के दाता भगवान पुरुषार्थ रूप हम पर प्रसन्न हुये हैं । हम श्राप से यही वरदान माँगते हैं, जब हम संसार में अपने कर्मों को करके घूमते रहें, सो आपकी माया में लिप्त न होकर हम जन्म-जन्म में भी आपके गुण गान करने वाले भक्तों का सत्संग करते रहे । और आपके चरित्र रूप कथामृत को श्रवणों द्वारा पान करके आपमें चित्त को लगाये करें । और इससे अधिक वरदान क्या मांगे क्योंकि कामनाओं का तो अंत हो नहीं होता है।



इसके अतिरिक्त हम यह वरदान मांगते हैं कि हम सदैव आपके चरण कमलों में अपनी अटूट प्रीती रखें और किसी प्राणी मात्र से वैर- भाव न रखें । तथा हे प्रभु ! आपकी महिमा को वृह्म, शिव, योगी जन भी केवल स्तुति करके ही जानते हैं, परन्तु आपकी माया का भेद नहीं जानते हैं। सौ हे नाथ ! हमें भी यह वरदान दो कि अपनी बुद्धि के अनुसार आपकी स्तुति करते रहे ।


इस प्रक्ार अब उन प्रचेताओं ने भगवान श्री नारायण की अनेकानेक प्रकार से स्तुति की तो भगवान उन पर अति प्रसन्न हये और तथास्तु कह कर इस प्रकार बचन बोले-हे प्रचेताओ! जो आपने कहा है वो आपको मेरा कृपा से प्राप्त होगा। इतना कह कर भगवान अंतर्ध्यान हो अपने लोक को चले गये । तब वे प्रचेता जन जल से निकल पृथ्वी पर आये तो वृक्षों को बहुत घना देखा मार्ग भी निकलने में कठिनाई दीखी तो उन्होंने अपने मुख से अग्नि निकाल कर वृक्षों को जलाना आरंभ कर दिया इस प्रकार बृक्षों को जलता देख कर वृम्हा जी ने आय उन प्रचेताओं से कहा-हे प्रचेताओ ! इन निर्दोष वृक्षों को मत जलाओ। तुमने भगवान नारायण से भी यह वर माँगा है कि हम संसार में किसी से भी द्वष न करें तब वृम्हा जी का कहा मान कर प्रचेताओं ने अग्नि को समेट लिया तब वृक्षों ने भय मानकर वृम्हा जी के उपदेश से अपनी कन्या उन प्रचेताओं को विवाह दी।

सो हे विदुर! वृम्हा जी की आज्ञा से उन प्रचेताओं ने उस कन्या को अंगीकार किया ॥


Find the truthfulness in you, get the real you, power up yourself with divine blessings, dump all your sins...via... Shrimad Bhagwad Mahapuran🕉

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