मैत्रैय जी द्वारा विद्वान् विदुर जी को आत्मज्ञान देना।
श्री मद भागवद पुराण अध्याय ७ [स्कंध ३] (विदरजी द्वारा ज्ञानतत्व पूछना) दोहा-कहे वचन हितमय विदुर, मैत्रेय ऋषि सम्मान । सो सप्तम अध्याय में, वर्णी कथा व्खान। श्री शुकदेवजी बोले-हे परीक्षत ! मैत्रेयजी के प्रति विद्वान विदुरजी ने कहा-हे मुने ! चैतन्य स्वरूप को क्रियाओं का और निर्गुण के गुणों की लीला से किस प्रकार सम्बन्ध हो सकता है सो आप कहो। क्यों कि खेल में उपाय करना और खेल करने की इच्छा करना ये दोनों प्रतिक्रियायें किसी अन्य के होने पर ही होती हैं। परन्तु सदैव अन्य से निवृत और तृप्त हैं उस ईश्वर को खेल करने की इच्छा कैसे हुई सो कहो । क्यों कि ईश्वर ने अपनी त्रिगुणमयी माया से संसार का निर्माण किया और वे उसी से पालन करते हैं, और फिर उसी से संहार करते हैं जो देश, काल, अवस्था तथा अपने व पराये से नष्ट ज्ञान नहीं होता सो वह ईश्वर माया के साथ किस प्रकार से संयुक्त हो सकता है। जो जीव सर्व व्यापकत्व भाग से सम्पूर्ण देहों में स्थित है, उस जीव को कर्मो से दुर्भागीपन या क्लेश का होना किस प्रकार संभव हो सकता है। यह हमारे मन में अज्ञान संकट के कारण खेद है कृपा कर महान मोह रूप दुख को दूर कर...