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श्रीमद भागवद पुराण * छठवां अध्याय * [स्कंध२] (पुरुष की विभूति वर्णन)

 श्रीमद भागवद पुराण * छठवां अध्याय * [स्कंध२] (पुरुष की विभूति वर्णन) दोहा-जिमि विराट हरि रूप का, अगम रूप कहलाय। सो छठवें अध्याय में दीये भेद बताय।। ब्रह्माजी बोले-हे पुत्र! भगवान के मुख से बाणी और अग्नि की उत्पत्ति है। विराट भगवान के सातों धातु के गायत्रीादि छन्दों का उत्पत्ति स्थान है। देवताओं का अन्न, हव्य और पितरों का अन्न, कव्य क्यों हैं और इनका उत्पत्ति स्थान मनुष्यों का अन्न भगवान की जिभ्या है यही सम्पूर्ण रसों का कारण है। समस्त पवन और प्राण का स्थान ईश्वर की नासिका है, तथा अश्वनी कुमार, औषधि वह मोह प्रमोद भी यही उत्पत्ति का स्थान भगवान का नासिक ही है। नेत्र रूप और तेज के उत्पत्ति स्थान हैं वर्ग और सूर्य का स्थान परमेश्वर के नेत्र गोलक हैं। भगवान के कान तीर्थ और दिशा का स्थान है, कर्ण। गोलक को आकाश और शब्द का उत्पत्ति स्थान जानना चाहिए । विराट भगवान का शरीर वस्तु के सारांशो का उत्पत्ति स्थान है । रोम वृक्ष है जिनसे यज्ञ सिद्ध होता है। केश- मेघ, दाड़ी 'बिजली, हाथ, पांव, नख क्रमशः- पत्थर व लोहे के विराट भगवान के उत्पत्ति स्थान हैं। भगवान को भुजा लोकपालों का उत्पत्तिस्...

शुकदेव जी द्वारा विभिन्न कामनाओं अर्थ देवो का पूजन का ज्ञान।। श्रीमद्भागवद्पूराण महात्मय अध्याय ३ [स्कंध २]

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* तीसरा अध्याय *स्कंध २ (देव पूजन के अभीष्ट फल लाभ का उपाय वर्णन) दो० पूजन कर जिन देवकौ, जैसौ ले फल पाय । सो द्वतीय अध्याय में, वर्णत है सब गाय ।। श्री शुकदेव जी परीक्षत राजा से बोले -हे नृपेन्द्र ! जैसा आपने हमसे पूछा वैसा हमने यथावत वर्णन किया है। मृत्यु को प्राप्त होने वाले बुद्धिमान मनुष्य को हरि भगवान की कीर्ति का श्रवण कीर्तन करना ही अत्यन्त श्रेष्ठ हैं। परन्तु अन्य अनेक कामों के फल प्राप्त करने के लिये अन्य देवताओं का पूजन भी करे, बृह्मा का पूजन करने से बृह्मतेज की वृद्धि होती है, इन्द्र का पूजन करने से इन्द्रियों को तृष्टता होती है। दक्ष आदि प्रजापतियों का पूजन करने से संतान को बृद्धि होती है । लक्ष्मी की कामना से देवी दुर्गा का पूजन करना चाहिये, और अग्नि देव का पूजन कर ने से तेज बढ़ता है, यदि धन की कामना हो तो वस्तुओं का पूजन करे। बलबान मनुष्य वीर्यवृद्धि की इच्छा करतो वह ग्यारह रुद्रों का पूजन करे। अदिति का पूजन करनाअन्न आदि भक्ष्य पदार्थों को कल्पना वाले मनुष्य को करना चाहिये। यदि स्वर्ग प्राप्ती की इच्छा होतो बारह आदित्यों की पूजा करे। विश्वदेवों के पूजन करने से राज्य की का...

कैसे करते हैं ज्ञानीजन प्राणों का त्याग।। श्रीमद भगवद पुराण महात्मय अध्याय २[स्कंध २]

* दूसरा अध्याय * स्कंध २ ( योगी के क्रमोत्कर्ष का विवरण) दोहा: सूक्ष्म विष्णु शरीर में, जा विधि ध्यान लखाय । सो द्वितीय अध्याय में वर्णीत है हरषाय ॥ श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! पदम योनी श्रीब्रह्माजी महाराज प्रलय के अंत में प्रथम श्रृष्टि को भूल गये थे, किन्तु श्री हरि ने प्रसन्न हो उन्हें पीछे धारण शक्ति प्रदान की जिससे वह पुनः रचना कर सके। स्वर्ग इत्यादि नाना कल्पना में मनुष्य ने बुद्धि को व्यर्थ चिन्ताओं में ग्रसित कर रखा है । जिस प्रकार मनुष्य स्वप्न में केवल देखता है और भोग नहीं सकता उसी प्रकार स्वर्ग आदि प्राप्त होने पर भी मनुष्य असली सुख को नहीं भोग सकता है। इसी कारण बुद्धिमान जन केवल प्राण मात्र धारण के उपयुक्त विषयों का भोग करते हैं। जब कि वे संसार के क्षणिक भोगों में नहीं पड़ते हैं। जबकि भूमि उपलब्ध है तो पलंग की आवश्यकता क्या है। दोनों वाहु के होने सेतोषक (तकिये) की आवश्यकता क्या है, और पेड़ों की छाल हैं तो भाँति-भाँति के वस्त्रों की क्या आवश्कता है। अंजलि विद्यमान है तो गिलास (पत्र) को जल पीने को क्या आवश्कता है । पेड़ों में फल लगना मनुष्य के भोजन के लिये ही है और...