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श्रीमद भागवद पुराण उन्तीसवां अध्याय [स्कंध४]।।नारद जी द्वारा जनम से मृत्यु के उपरांत का पूर्ण ज्ञान।।

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विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण] श्रीमद भागवद पुराण [introduction] • श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण] श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १] •  श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २] •  श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३] श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४] श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५] श्रीमद भागवद पुराण स्कंध ६ श्रीमद भागवद पुराण स्कंध ७ Vedas: THE TRUTH,THE SUMMARY. NEED TO READ, ENCHANT VEDAS. https://anchor.fm/shrimad-bhagwad-mahapuran एके साधे सब सधे। सब साधे, सब जाये।। श्रीमद भागवद पुराण उन्तीसवां अध्याय [स्कंध४] (उपरोक्त कथन की व्याख्या ) नारद जी द्वारा जनम से मृत्यु के उपरांत का पूर्ण ज्ञान।। दोहा-करि प्रकाश अध्यात्म का, नारद मुनि व्याख्यान । उन्तीसवें अध्याय में, समुचित किया निदान ।। श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षित मैत्रेय जी द्वारा विदुर से जो कथा वर्णन की है उसमें नारद मुनि ने राजा प्राचीन वर्ही से जो आत्म ज्ञान प्रदान करने के लिये कथा का प्रकाश किया तो राजा प्राचीन वर्हि ने पूछा-हे देवर्षि! आपने जो आत्म ज्ञान देने के निमित्त जो वचन कहे हैं, मैं जोकि कर्म वासनाओं से फंसा हुआ संसारी

बृम्हा जी द्वारा भगवान विष्णु का हृदय मर्म स्तवन।।

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 श्रीमद भागवद पुराण अध्याय ९ [स्कंध३] (बृम्हा जी द्वारा भगवान का स्तवन) दो०-विष्नू की स्तुति करी, बृम्हा खूब बनाय । या नौवे अध्याय में कहते चरित्र सुनाय ॥ श्री शुकदेव जी कहने लगे-हे परीक्षत ! जब वृह्मा जी ने भगवान नारायण का तप किया और शया पर दर्शन किया तो स्तुति कर कहा-हे प्रभु बहुत काल तक आपका मैंने तप किया अाज अापको मैंने जाना है हे भगवान ! आपके इस मन भावन स्वरूप से पृथक और कुछ भी नहीं है। जो कुछ और है, वह भी शुद्ध नहीं है क्योंकि संपूर्ण संसार में आपको अपनी माया के विकार से युक्त होकर आप ही अनेकानेक रूप में भाषित होते हो हे प्रभु! जो यह आपका विकल्प रहित आनंद मात्र सदा तेजोमय जगत का उत्पन्न कर्ता विश्व से भिन्न अद्वितीय तथा महा भूत इंद्रियों का कारण आपका रूप है उस से परे और कुछ भी नहीं है अंतः मैं आपकी शरण हूँ। आपने मुझ जैसे उपाशकों की मंगल के अर्थ ध्यान में चौदह भुवन का मंगल दायक चिदा नंद स्वरूप का दर्शन दिया है हे मङ्गल रूप भुवन ! हे स्तुति योग्य ! हे सम्पूर्ण संसार के सुहद! आपने त्रिलोकी रचने वालों में मुझे अपनी कृपा से अपनी नाभि कमल से प्रकट किया, एक आत्म तत्व आप सत्वादि गुण रूप

शुकदेव जी द्वारा श्रीमद भागवत आरंभ एवं विराट रूप का वर्णन।।

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श्रीमद भागवद  पुराण द्वतीय स्कंध प्रारंभ  प्रथम अध्याय ॥ मंगलाचरण ॥ दोहा-गिरजा सुत शंकर सुवन, आदि पूज्य प्रिय देव । विद्या दायक ज्ञान देउ, शरण चरण में लेव ॥ १ ॥ आदि अनादि अनंत में, व्यापक रहत हमेश । एक रदन करिवर बदन, दीजै ज्ञान गणेश ॥२॥ नरतन दुरलभ प्राप्त होय,पाहि न याहि गमाय । नारायण वित धारिये, पाष क्षार हवै जाय ॥ ३ ॥ जग नायक को ध्यान धरि, टरै पाप को भार । भव सागर के भंवर से, होय अकेला पार ॥ ४ ॥ ।।प्रथम अध्याय ।। (शुकदेव जी द्वारा श्रीमद भागवत आरंभ एवं विराट रूप का वर्णन) दोहा-जिस प्रकार हरि रूप का, होय हृदय में ध्यान ।  वर्णन करू प्रसंग वह, देउ सरस्वती ज्ञान ।। श्री शुकदेवजी बोले-हे राजन् ! जो संसारी मनुष्य आत्म ज्ञान से निन्तात अनभिज्ञ रहते हैं, उन्हें अनेक बिषय सुनने चाहिए क्योंकि यदि वे दिन रात इन्हीं सांसारिक विषयों के झंझट में पड़े रहेंगे तो वे कुछ भी नहीं जान पायेंगे। ऐसे पुरुषों की आयु के दिवस कुछ तो निन्द्रा में व्यतीत हो जाते हैं और शेष स्रो,पुत्र तथा धन की तृष्णा में व्यतीत हो जाते हैं। ऐसे मनुष्य लोक पर लोक में पितृ पुरुषों के उदाहरण को प्रत्यक्ष देखते हैं कि देह, स्री पु

श्रीमदभगवाद्पुराण किसने कब और किसे सुनायी।।

श्रीमद्भागवद्पूरण अध्याय ४ [स्कंध २] (श्री शुकदेवजी का मंगला चरण) दोहा-सृष्टि रचना हरि चरित्र, पूछत प्रश्न नृपाल । वो चौथे अध्याय में, कीया वर्णन हाल । सूतजी बोले-श्री शुकदेवजी के वचन सुनकर राजा परीक्षित ने श्रीकृष्ण के चरणों में चित्त को लगा दिया और ममता उत्पन्न कारक स्त्री, पुत्र, पशु, बन्धु, द्रव्य, राज्य का त्याग कर दिया। परीक्षत ने कहा-हे सर्वज्ञ! आपका कथन परम सुन्दर है हरि कथा श्रवण करने से हमारे हृदय का अज्ञान रूप तिमिर नाश को प्रप्त हुआ है। अब मेरी जिज्ञासा है कि जिसका विचार वृह्मादिक करते हैं, ऐसे जगत को वे परमेश्वर किस प्रकार पालन करते और संहार करते हैं वह सब कहिये। क्योंकि मुझे सन्देह है कि एक ही ईश्वर ब्रह्मादिक अनेक जन्मों को धारण कर लीला करते हुए माया के गुणों को एक ही काल में अथवा क्रम से धारण करते हैं सो इन सबका उत्तर आप मुझसे यथार्थ वर्णन कीजिये। श्री शुकदेवजी बोले-हे भारत ! परम पुरुष परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ, जो कि ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, रूप धारण करते हुये समस्त प्राणियों के घट में विराजमान रहते हैं, उस परमात्मा का मार्ग किसी को अवलोकन नहीं हो पाता है सो प्र

शुकदेव जी द्वारा विभिन्न कामनाओं अर्थ देवो का पूजन का ज्ञान।। श्रीमद्भागवद्पूराण महात्मय अध्याय ३ [स्कंध २]

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* तीसरा अध्याय *स्कंध २ (देव पूजन के अभीष्ट फल लाभ का उपाय वर्णन) दो० पूजन कर जिन देवकौ, जैसौ ले फल पाय । सो द्वतीय अध्याय में, वर्णत है सब गाय ।। श्री शुकदेव जी परीक्षत राजा से बोले -हे नृपेन्द्र ! जैसा आपने हमसे पूछा वैसा हमने यथावत वर्णन किया है। मृत्यु को प्राप्त होने वाले बुद्धिमान मनुष्य को हरि भगवान की कीर्ति का श्रवण कीर्तन करना ही अत्यन्त श्रेष्ठ हैं। परन्तु अन्य अनेक कामों के फल प्राप्त करने के लिये अन्य देवताओं का पूजन भी करे, बृह्मा का पूजन करने से बृह्मतेज की वृद्धि होती है, इन्द्र का पूजन करने से इन्द्रियों को तृष्टता होती है। दक्ष आदि प्रजापतियों का पूजन करने से संतान को बृद्धि होती है । लक्ष्मी की कामना से देवी दुर्गा का पूजन करना चाहिये, और अग्नि देव का पूजन कर ने से तेज बढ़ता है, यदि धन की कामना हो तो वस्तुओं का पूजन करे। बलबान मनुष्य वीर्यवृद्धि की इच्छा करतो वह ग्यारह रुद्रों का पूजन करे। अदिति का पूजन करनाअन्न आदि भक्ष्य पदार्थों को कल्पना वाले मनुष्य को करना चाहिये। यदि स्वर्ग प्राप्ती की इच्छा होतो बारह आदित्यों की पूजा करे। विश्वदेवों के पूजन करने से राज्य की का

कैसे करते हैं ज्ञानीजन प्राणों का त्याग।। श्रीमद भगवद पुराण महात्मय अध्याय २[स्कंध २]

* दूसरा अध्याय * स्कंध २ ( योगी के क्रमोत्कर्ष का विवरण) दोहा: सूक्ष्म विष्णु शरीर में, जा विधि ध्यान लखाय । सो द्वितीय अध्याय में वर्णीत है हरषाय ॥ श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! पदम योनी श्रीब्रह्माजी महाराज प्रलय के अंत में प्रथम श्रृष्टि को भूल गये थे, किन्तु श्री हरि ने प्रसन्न हो उन्हें पीछे धारण शक्ति प्रदान की जिससे वह पुनः रचना कर सके। स्वर्ग इत्यादि नाना कल्पना में मनुष्य ने बुद्धि को व्यर्थ चिन्ताओं में ग्रसित कर रखा है । जिस प्रकार मनुष्य स्वप्न में केवल देखता है और भोग नहीं सकता उसी प्रकार स्वर्ग आदि प्राप्त होने पर भी मनुष्य असली सुख को नहीं भोग सकता है। इसी कारण बुद्धिमान जन केवल प्राण मात्र धारण के उपयुक्त विषयों का भोग करते हैं। जब कि वे संसार के क्षणिक भोगों में नहीं पड़ते हैं। जबकि भूमि उपलब्ध है तो पलंग की आवश्यकता क्या है। दोनों वाहु के होने सेतोषक (तकिये) की आवश्यकता क्या है, और पेड़ों की छाल हैं तो भाँति-भाँति के वस्त्रों की क्या आवश्कता है। अंजलि विद्यमान है तो गिलास (पत्र) को जल पीने को क्या आवश्कता है । पेड़ों में फल लगना मनुष्य के भोजन के लिये ही है और

वेद व्यास जी द्वारा भगवद गुण वर्णन।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का दूसरा आध्यय [स्कंध १] (भगवत गुण वर्णन ) श्री व्यासजी कहते हैं कि शौनकादि ऋषीश्वरों के इनप्रश्नों को सुन कर सूतजी बड़े प्रसन्न भये और उन महर्षि लोगों के वचनों की बहुत सराहना की, फिर कहना प्रारम्भ किया।वहां पहले सूतजी विनय पूर्वक श्री शुकदेवजी को प्रणाम करते हैं कि जन्मते ही जो शुकदेवजी, सब काम को छोड़कर यज्ञोपवीत के बिना ही सब मोह जाल को त्यागकर अकेले चले उस समयवेद व्यासजी मोह से उसके पीछे-पीछे दौड़े और कहा कि हेपुत्र! हे पुत्र ! खड़ा रह, ऐसे सुनकर शुकदेवजी अपने योगबलसे सबके हृदय में प्रवेश होने वाले बन के वृक्षों में प्रविष्ट होकर बोले, यानी उस समय वे वृक्ष ही शुकदेवजी के रूप से ये जबाव देते भये कि पिताजी ! न कोई पिता है न पुत्र है, क्यों झूठामोह करते हो ? ऐसे शुकदेवजी मुनि को हम नमस्कार करते हैं, और सब वेदों के सारभूत आत्म तत्व को विख्यात करनेवाले व अध्यात्म विद्या को दीपक की तरह प्रकाश करने वाले ऐसे गुह्य श्रीमद्भागवत पुराण को जो शुकदेवजी इस अन्धकार से छूटने की इच्छा करने वाले संसारी जीवों केअनुग्रह के वास्ते करते भये और जो सब मुनियों को ज्ञान देने वाले

शौनकादि ऋषियों का सूत जी से भागवत के विषय में सम्वाद।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का प्रथम आध्यय [स्कंध १] प्रारम्भदोहा: मंगलमय श्री भगवान का, मङ्गल मय है,नाम। मंगलमय श्री कृष्ण है, जिनको मथुरा धाम ॥ शौनकादि ऋषियों का सूत जी से भागवत के विषय में सम्बाद ।  भागवत शास्त्र की रचना के समय जो प्रतिपद्य परब्रह्म हैं, श्री वेद व्यस जी महाराज उसका स्मरण करते हैं, जिस परब्रह्म परमात्मा से इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति संहार होता है और जो सब कार्यों में समान रूप से विराजमान है,तथा उन सबों से अलग हैं जो मृतिका घर और स्वर्ण आभूषणों पुराण, महाभारत इतिहास आदि धर्म शास्त्र वगैरह पढें हैं और जिन्होंने अच्छी तरह से शिष्यों को सुनाये भी ही हैं। अलग नहीं है, और जिसने ब्रह्माजी के वास्ते अपने मन करके वह वेद प्रकाशित किया है कि जिस वेद में अच्छे-अच्छे पण्डित लोग भो मोहित हो जाते हैं अर्थात वह वेद पढ़ने से भी ठीक समझ में आना मुश्किल है और जैसे कभी चमकते हुए कालर में जल और जल में स्थल अच्छा सा दिखाई पड़ता है, इसी प्रकार जिस परमात्मा में सत्वादि तीन गुणों को रचाये सब कार्य मात्र झूठा भी है तथापि जिस ब्रह्म की अधिष्ठान सत्ता से अच्छा सा मालुम होता है और जो आप स्वयं

धुन्दकरी और गौकर्ण के जनम की कथा [मंगला चरण]

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श्रीमदभागवदपुराण चौथा अध्याय मंगला चरण ( श्रीकृष्ण के धुन्धुकारि मोक्ष वर्णन) दोहा-पीड़ित हो घुधकरि सों आत्म देह दुख पाय । गये विपिन गोकर्ण जिमि सो चतुर्थ अध्याय ॥४॥ भागवद कथा में पितम्बरधारी श्रीकृष्ण भगवान का आगमन सूजी बोले कि इसके उपरान्त भगवत भक्तों के मन में अलौकिक भक्ति देख अपने लोक को छोड़कर भक्त वत्सल भगवान पीताम्बर पहिरे, कटि में श्रुध घटिका और सिर पर मोर मुकुट तथा कानों में मकराकृत कुण्डल धारण किये, कोटि कामदेव के समान शोभायमान, केशरिया चन्दनसे चित, परमानन्द और चैतन्य स्वरूप, मधुर मुरली धारण किये अपने भक्तजनों के निर्मल अन्तःकरण में प्रगट हुए। उस समय उस सभा में जितने मनुष्य और देवता बैठे थे, वे सब शरीर, घर और आत्मा को भूल गये उन लोगों को इस तन्मय अवस्था को देखकर नारद जी बोले-हे ऋषियों! आज मैंने इस सभा में सप्ताह श्रवण की यह अलौकिक महिमा देखी। अहो! जिसको सुनकर मढ, शट, पशु, पक्षी सभा पाप रहित हो गये, तब अन्य महात्मा, पुरुषों की तो बात क्या है? परन्तु मुझसे आप यह कहिये कि इस कथामय सप्ताह यज्ञ से कौन कौन पवित्र होते हैं ? सनत्कुमार बोले कि जो मनुष्य पापात्मा, सदा दुराचार रत, क्रोध