धुन्दकरी और गौकर्ण के जनम की कथा [मंगला चरण]


श्रीमदभागवदपुराण चौथा अध्याय मंगला चरण

( श्रीकृष्ण के धुन्धुकारि मोक्ष वर्णन)


दोहा-पीड़ित हो घुधकरि सों आत्म देह दुख पाय ।

गये विपिन गोकर्ण जिमि सो चतुर्थ अध्याय ॥४॥





भागवद कथा में पितम्बरधारी श्रीकृष्ण भगवान का आगमन सूजी बोले कि इसके उपरान्त भगवत भक्तों के मन में अलौकिक भक्ति देख अपने लोक को छोड़कर भक्त वत्सल भगवान पीताम्बर पहिरे, कटि में श्रुध घटिका और सिर पर मोर मुकुट तथा कानों में मकराकृत कुण्डल धारण किये, कोटि कामदेव के समान शोभायमान, केशरिया चन्दनसे चित, परमानन्द और चैतन्य स्वरूप, मधुर मुरली धारण किये अपने भक्तजनों के निर्मल अन्तःकरण में प्रगट हुए। उस समय उस सभा में जितने मनुष्य और देवता बैठे थे, वे सब शरीर, घर और आत्मा को भूल गये उन लोगों को इस तन्मय अवस्था को देखकर नारद जी बोले-हे ऋषियों! आज मैंने इस सभा में सप्ताह श्रवण की यह अलौकिक महिमा देखी। अहो! जिसको सुनकर मढ, शट, पशु, पक्षी सभा पाप रहित हो गये, तब अन्य महात्मा, पुरुषों की तो बात क्या है?


परन्तु मुझसे आप यह कहिये कि
इस कथामय सप्ताह यज्ञ से कौन कौन पवित्र होते हैं ?
सनत्कुमार बोले कि जो मनुष्य पापात्मा, सदा दुराचार रत, क्रोध रूप अग्नि से दग्ध, कुटिल और कामी हैं, वे इस कलियुग में सप्ताह यज्ञ से पवित्र हो जाते हैं। जो मनुष्य सत्य से हीन, पिता, माता के दोषी, तृष्णा से व्याकुल,आश्रम धर्म से वर्जित, पाखणी, घमंडी और हिंसक भी इस सप्ताह यज्ञ से पवित्र हो जाते है। मैं यहां तुम्हार आगे एक पुरातन इतिहास का वर्णन करता हूँ। जिसके सुनने मात्र से ही पापों का नाश हो जाता है।
गौकर्ण और धुन्धूकरि का जनम
तुन्ग्भृदा नदी के तट पर एक सवो्तम नगर था, वहां आत्मदेव नामक एक तेजस्वी बाह्माण श्रोत समर्त कर्मों में रहता विलिक्षं रह्ता था वह ब्राह्मण महा विद्रान तथा उसकी स्त्री का नाम धुन्दली था। वह महासुन्दरी होते हुए भी क्रूर और कलह प्रिय थे। दोनों पुरुष स्त्री पर कोई संतान न होने के कारण दुखी थे। तब तो उन्होंने संतान उत्पन्न होने के अर्थ अनेक प्रकार के धर्म किये। दीन जनों को गौ दान, भूमि- दान, स्वर्ण दान और वस्त्रदान आदि दान दिये परन्तु सब निष्फल हुए, यह ब्राह्मण एक दिन मारे दुःख के घर छोड़ बनको चल दिया । जब मध्यान्ध का समय हुआ तो प्यास से व्याकुल हो एक सरोवर के समीप पहुँचा और जल पीकर वहीं बैठ गया और अपने मन मे बहुत कुछ सोच विचार करने लगा। दो घड़ी उपरांत एक सन्यासी वहां आ पहुचा जब महात्मा जल पान कर चुके तब ब्राह्मण इसके समीप जाय महात्मा के चरणों में प्रणाम कर लम्बे-लम्बे श्वास लेता हुआ सन्मुख खड़ा हो गया। तब माहात्मा कहने लगे कि हे ब्राह्मण ! तुम किस कारण रो रहे हो? और ऐसी तुमको क्या चिंता है तुम अपने दुःख का कारण कहो? यह सुन ब्राह्मण बोला कि हे महात्मा ! अपने पूर्व पापों के फल से दुःख में पाता है सो आप से क्या कहै? मेरे पूर्वज दिये जल को दुखी हो श्वास से गरम कर पीते हैं कि आगे को इससे सन्तान न होने से हमको जलदान कौन देखेगा। मेरे दिये हुए पदार्थको देवता और ब्राह्मण भी प्रीति पूर्वक ग्रहण नहीं करते इस कारण प्राण छोड़ने को मैं यहाँ आया है। इस संसार में सन्तान के बिना जीना धिक्कार है। जिस गौ को मैं पालता हूँ वह बध्या हो जाती है. जिस वृक्ष को मैं लगाता है वह फल हीन होजाता है। जो फल मेरे घर आता है वह सूख जाता है। ऐसे भायहीन और सन्तानहीन मुझको जी कर क्या जीकर क्या करना है। दया से प्रेरित उस ब्राह्मण की मस्तक की रेखा को बँचकर महात्मा ने उसे से यह समाचार कहा। इस संतान रूपी अज्ञान का त्याग करो जो, तुम्हारे भाग्य में संतान का होना नहीं लिखा है। अब तो क्या सात जन्म तक तुम्हारे पुत्र होना नहीं लिखा है । देखो सन्तति से राजा सगर और अंग ने कैसे-कैसे कष्ट सहे। उनका इतिहास तुमने नहीं सुना? इस कारण हे ब्राह्मण !
पुत्र की आशा छोड़कर सन्यास धारण करना यह सुनकर ब्राह्मण बोला कि हे कृपासिन्धु ज्ञान देने से मुझको कुछ भी न होगा, मुझे तो जैसे बने वैसे पुत्र दान दीजिये, जो नहीं दोगे तो में आपके आगे ही दुखित होकर अपने प्राण छोड़ दूं गा । ब्राह्मण का इस प्रकार आग्रह देखकर उस योगी ने उत्तर दिया कि हे ब्राह्मण ! देखो विधि के अंक मिटाने से राजा चित्रकेतु की कैसी दशा हुई । जैसे दवहत होन से उद्यम वृथा हो जाता है, ऐसे ही यदि तुम पुत्र उत्पन्न करोगे तो पुत्र से तुमको कुछ सुख प्राप्त नहीं होगा। तुम्हारा अत्यन्त आग्रह देखकर एक फल दिये देता हूँ। यह फल ले जाकर अपनी स्त्री को खिलाय देना इससे तुम्हारे पुत्र होवेगा और स्त्री से यह कह देना कि सत्य, शौच, दया दान पूर्वक रहे, दोपहर उपरान्त अतिथि को भोजन कराकर आप भोजन करे, इस नियम से एक वर्ष पर्यंत रहेगी तो बहुत उत्तम पुत्र उत्पन्न होवेगा । इस प्रकार कहकर महात्मा चला गया और ब्राह्मण अपने घर आया। घर आकर वह फल अपनी स्त्री को दिया और कहा कि इसके खाने से तेरे एक अत्यन्त स्वरूपवान पुत्र होगा । उस ब्राह्मण की वह स्त्री कुटिल स्वभाव बोलो तो थी ही उस फल को देखकर अपनी सखीके आगे रोई और कहने लगी कि अहो मुझको तो बड़ी चिता उत्पन्न हुई, मैं इस फल को न खाऊँगा । यह फल खाने से गर्भ रहेगा, फिर पेट बढ़ेगा, और भोजन कम किया जायेगा जिससे निर्बलता हो जायगी। देवयोग से गांव में आग लगे तो गर्भिणी कैसे भाग सकती है, और शुक्र के समान उदर में स्थित रहा गर्भ कुक्ष। से निकल कर बाहर कैसे आवेगा? कदावित गर्भस्य बालक टढ़ा हो जायगा तो मरण होने में कोई संदेह ही नहीं रहेगा। दूसर बालक का जन्म होते समय भी महा दुःख होगा और कदाचित् मेरी सामर्थ्य घट जाय तो मेरा सब धन ननद हर ले जायेगी, तो कैसी होगी तथा साथ शौच आदि नियमों का धारण करना भी महा कठिन है। इन सब क्लेशों को सहकर बालक उत्पन्न भी किया, तो फिर उस बालक के पालन पोषण में बड़ा परिश्रम होगा, इस कारण मैं तो जानती हू कि जो स्त्री बन्ध्या या विधवा है, वह सब प्रकार से सुखी है। इस प्रकार कुतक्र्ना करके इस दुष्टा ने उस फल को नहीं खाया। जब पति ने आकर पूछा कि क्या वह फल खा लिया ? तो बोली-हां मैंने खा लिया है उसी समय उसकी बहिन उसके घर आई तब उसके आगे इसने अपना सब वृत्तान्त सुनाकर कहा कि मुझको यही बड़ी चिंता है। इसी सोच विचार में मैं दुबली हो गई है, बहिन! इसका क्या उपाय करें ? तब वह बोली कि मेरे गर्भ है। जब बालक उत्पन्न होगा तब तुझको दे दूंगा । तब तक तुम गर्भिणी सी होकर गुप्त रहो, और मेरे पति को कुछ द्रब्य हे देना, वह तुझको अपना बालक दे देगे। और मैं लोक में बात प्रगट कर दूंगी कि मेरा बालक छः महीने का मर और मैं तुम्हारे घर में नित्य आकर उस बालक का पालन पोषण करूगी और यह जो फल है, सो परीक्षा के निमित्त अपनी गौ को खिला दे, यह सुनकर धुन्धली ने वह फल गाय को खिला दिया। कुछ समय व्यतीत होने पर उसकी बहिन के बालक उत्पन्न हुआ,तब बालक के पिता ने वह बालक लाकर धुन्दली को दे दिया । धुन्धुली ने उसी समय अपने पिता को कहला भेजा कि सूखपूर्वक मेरे बालक उत्पन्न हो गया है। आत्मदेव ने ब्राह्मणों को बुलाकर बालक का जात कर्म करवा दिया, उसके द्वार पर भान्ति-भान्ति के बाजे बजने कुछ मंगल होने लगा । इसके उपरांत धुन्धली अपने पति से यूँ बोली बिना ढूध वाली मैं, इस बालक को कैसे पालूँगी थोड़े दिन हुए कि मेरी बहिन के पुत्र होकर मर गया है, उसको बुलवाकर कर यहां रख लो,वह घर का काम काज भी करेगी और बालक का पालन पोषण भी करेंगी। यह सुनकर आत्मदेव ने उस पुत्र की रक्षा के निमित्त वैसा हो सब प्रबंध कर दिया, धुन्धली उस पुत्र का नाम धुन्धकरी रखा। तीन मास व्यतीत होने पर उस गौ के भी एक बालक उत्पन्न हुआ जो कि मनुष्य के समान स्वरूप वाला व सब अंगों से सुन्दर, शरीर व के समान कान्तिवान था।उस बालक को देखकर आत्मदेव बहुत प्रसन्न हुआ और उसने स्वयं उसका संस्कार किया, इस अद्भुत बात को देखने के निमित्त जगह जगह के मनुष्य वहां आये, देववश इस भेद को किसी भी नहीं जाना । गौ के बालक के कान गाय के समान थे, इस कारण आत्मदेव ने उस बालक का नाम गोकर्ण रखा। कुछ समय में वे दोनो बालक तरुण हुए। गोकर्ण तो महा ज्ञानी पण्डित हुआ और धुन्धकारी बड़ा दुराचारी, क्रोधी, कुकर्मी विग्रहकर्ता, चाण्डालों के हाथ का भोजन करने वाला और वैश्यागामी हुआ, उसने अपने पिता का सब धन वेश्याओं को दे डाला! फिर तो विचारा दीन धनहीन उस का पिता उच्च स्वर से रो रोकर कहने लगा, कि ऐसे कुकर्मी दुःखदायक पुत्र होने से तो निसंतान होना ही श्रेष्ठ है। अब मैं कहा जाऊ क्या करू?? अब मैं इस दुःख से अपने प्राण त्याग दूंगा।।
महायोगी गौकर्ण पिता के समीप आय ज्ञान वैराग्य दर्शाकर समझाने लगा-हे पिता! यह संसार असार है, इसमें किसका कौन पुत्र किसका धन विचार कर देखो तो यह सब मिथ्या है। अब आप इस अज्ञान को छोड़ो, यह शरीर नाशवान है, एक न एक दिन छूट जायगा, इस कारण म मोह को त्याग कर बन में जाकर भगवान का भजन करा। गौकर्ण का यह वचन सुनकर ब्राह्मण ने कहा हे पुत्र!बन में जाकर मुझको क्या क्या कर्म करना उचित है, सो तुम कहो।

महाज्ञानी गौकर्ण द्वारा पिता (आत्मदेव) को ज्ञान

 

महाज्ञानी गौकर्ण ने उत्तर दिया कि हे पिता! प्रथम तो इस अस्थि, मांस और रुधिर से बने शरीर में अभिमान मत करो और पुत्रों से ममता त्याग दो और इस संसार को प्रतिदिन क्षण भंगुर जानकर भगवान को भक्ति में प्रीति करके वैराग्य सुखका अनुभव करो। भागवत का निरंतर सेवन करो और लौकीक धर्मों अर्थात काम्य कर्म का त्याग करो तथा काम तृष्णा को छोड़ शीघ्र भागवत सेवा और कथा के रस का निरन्तर पान करो। इस प्रकार ज्ञान पाकर आत्मदेव बन को चला गया और श्रीकृष्णचन्द्र भगवान की सेवा करने और दशम स्कंध पाठ करने से श्रीकृष्ण भगवान को प्राप्त होकर परमधाम को चला गया।

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