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श्रीमद भगवद पुराण बत्तीसवा अध्याय[सांख्य योग]

श्रीमद भगवद पुराण बत्तीसवा अध्याय  (अर्धव गति एवं प्रकृति का वर्णन ) दो०-पुरुष सुकर्म सुधर्म से होय सत्व गुण प्राप्त । सो बत्तीस अध्याय में कही कथा कर प्राप्त।। श्री कपिलदेव जी भगवान बोले-हे माता ! जो कोई गृहस्थी में रहकर गृहस्थ धर्म का आचरण करता है, वह उन धर्मों से फल चाहता हुआ अनुष्ठान करता हैं। वह भगवान के विमुख कामनाओं में यज्ञ आदि करके तथा श्रद्धा पूर्वक देवताओं का पूजा करता है । वह चंद्रमा के लोक को प्राप्त होकर अमृत पान करके वापस फिर पृथ्वी पर आकर जन्म लेता है, क्योंकि जिस समय नारायण भगवान अपनी शेष शय्या पर शयन करते है उस समय सकाम कर्म करने वाले गृहस्थियों के सब लोक नाश हो जाते हैं। जो पुरुष काम व कार्य के लिये अपने धर्म का फल नहीं मांगते हैं, और संग रहित व परमेश्वरार्पण निष्काम कर्म करते हैं, वे लोग सूर्य लोक के द्वारा परमेश्वर को प्राप्त हो जाते हैं, और जो लोग ब्रह्म को ईश्वर जान कर उपासना करते हैं, वे लोग वृम्हा जी के लोक में महा प्रलय पर्यन्त निवास करते हैं। जब बृम्हा जी अपनी १०० वर्ष की आयु को भोग कर जगत को लय करने की इच्छा से परश्मेवर में लीन होते हैं, उसी समय वैरागी योगी

श्रीमद भागवद पुराण उन्तीसवाँ अध्याय (संसार व काल प्रभाव का वर्णन)

 श्रीमद भागवद पुराण उन्तीसवाँ अध्याय (संसार व काल प्रभाव का वर्णन) दो०-भक्ति योग के मार्ग सब कहे कपिल समझाय। उन्तीसवाँ अध्याय में, वर्णित किये उपाय ॥ श्री कपिलदेव जी बोले हे माता! इस संपूर्ण चराचर जगत में जीवधारी सर्वश्रेष्ठ हैं । और उन जीवधारियों में भी प्राणधारी सर्वश्रेष्ठ हैं। इन प्राणधारियों में भी वे प्राणधापी श्रेष्ठ हैं जिन्हें ज्ञानेन्द्रियों का ज्ञान है, और उनमें भी स्पर्श ज्ञानी श्रेष्ठ हैं और इस ज्ञानियों में रसज्ञाता ज्ञानी है तथा रसज्ञाता ज्ञानियों में भी गंध जानने वाले ज्ञानी श्रेस्ठ हैं। इस प्रकार के जानियों में भी शम्न ज्ञाता ज्ञानी अधिक श्रेष्ठ होते हैं, इन में भी स्वरूप ज्ञाता ज्ञानी श्रेष्ठ हैं, इन में भी श्रेष्ठ, जिनके दोनों ओर दाँत होते हैं, और इन में भी वे श्रेष्ठ वे होते हैं जिनके चरण होते हैं। इन चरण वालों में दो प्रकार के हैं एक चतुष्पद और दूसरे द्विपद है।इनमें द्वीपद अधिक श्रेष्ठ कहे हैं। यह द्वीपद मनुष्य हैं जो सर्व श्रेष्ठ ज्ञानी माना गया है। मानव जाती के वर्ण,भेद।। अब हे माता ! मनुष्यों में जो कुछ भेद भाव इस प्रकार है कि, इनमें चार वर्ण हैं ब्राह्मण, क्षत

श्रीमद भागवद पुराण अट्ठाईसवां अध्याय [स्कंध ३] (भक्ति योग तथा योगाभ्यास)

 श्रीमद भागवद पुराण अट्ठाईसवां अध्याय [स्कंध ३] (भक्ति योग तथा योगाभ्यास) दो०-जिस विधि होता योग, साध्य ये आत्मज्ञान। सो वर्णन कीयासकल करके सकल प्रमाण ॥ इस प्रकार भगवान कपिल जी द्वारा ज्ञानोपदेश सुन कर देवहूति ने कहा-हे प्रभो ! जिस प्रकार साँख्य शास्त्र में कहा है वह आप मुझे सुनाओ, कि महतत्व, आदिक तथा प्रकृति व पुरुष का लक्षण और इन सबका असली स्वरूप किस प्रकार ज्ञात किया जाये। इन सब को मूल क्या है और भक्ति योग मार्ग क्या है तथा जिससे पुरुष को वैराग्य उत्पन्न होवे तथा जीव के आवागमन की संसृति कथा, और परे से परे महाकाल स्वरूप परमात्मा का वह स्वरूप वर्णन करों कि जिस के कारण जीव पुन्य कर्म करने को वाध्य क्यों होता है। मैत्रेय जी बोले हे विदुर जी ! अपनी माता के ऐसे सरल बचनों को सुनकर, कपिल भगवान प्रसन्नता पूर्वक बोले हे माता! भक्ति योग मार्गों के भेद से अनेक प्रकार का हो जाता है, क्योंकि मनुष्य की प्रकृति त्रिगुणात्मक होने के कारण संकल्प में भेद भाव उत्पन्न होने से नवधा भक्ति फल देने के लिये २७ (सत्ताईस ) हो जाती है, और श्रवण करने से प्रत्येक के नौ-दौ भेद होने के कारण इक्यासी (८१) प्रक

कपिल भगवान द्वारा माता देवहूती को दिया पूर्ण ज्ञान।।

श्रीमद भागवद पुराण सत्ताईसवाँ अध्याय [स्कंध ३] (मोक्ष रीति का पुरुष और विवेक द्वारा वर्णन ) दो -कपिल देव वर्णन कियो, प्रकृति पुरु से ज्ञान। सो सवैया अध्याय में, उत्तम कियो बखान ।। श्री कपिलजी बोले-हे माता ! प्रकृति रूपी देह में स्थित हुआ परमात्मा प्रकृति रूपी देह के गुण सुख, दुखादि, से लिप्त नहीं होता है । क्यों कि वह निर्विकार, निर्गुण, तथा अकर्ता है । जैसे जल से भरे अनेक पात्रों में अलग-अलग सूर्य का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता हैं। परन्तु उसे तोड़ दिया जाय तो कुछ भी नहीं रहता है। इसी प्रकार आत्मा का ज्ञान सभी प्राणी में भरा हुआ है। जिन प्राणियों को यह ज्ञान प्राप्त हो जाता है उन्हें फिर किसी प्रकार का दुख सुख नहीं व्यापता है । और वह फिर संसारी माया मोह में नही फँसता है । जिस प्रकार तिलों में तेल रहता है परन्तु किसी को दिखाई नहीं देता उसी प्रकार से आत्मा भी सबके शरीर में विद्यमान होने पर भी किसी को दिखाई नहीं देता है। परन्तु जब पुरुष (आत्मा) प्रकृति (शरीर) के सत्वादि गुणों में सब ओर से आसक्त हो जाता है तब वह अपने स्वरूप को भूलकर अहंकार में आसक्त हो जाता है। उसी के परिणाम स्वरूप वह अभिमान क

श्रीमद भागवद पुराण छब्बीसवाँ अध्याय [स्कंध ३] (साँख्य योग्य वर्णन)

 श्रीमद भागवद पुराण छब्बीसवाँ अध्याय [स्कंध ३](साँख्य योग्य वर्णन) दो०--प्रकृति कर्म वर्णन किया,जैसे कपिल सुनाय। छब्बीसवें अध्याय में, धर्म कही समझाय॥ अपनी माता देवहूति को समझाते हुये श्री कपिल भगवान कह चुके तब देवहूति ने कहा-हे प्रभु ! मुझ स्त्री को ऐसा ज्ञान प्राप्त होना बहुत कठिन है। अतः भक्ति पूजा का मार्ग दर्शन देकर प्रकृति के भेद का वर्णन कीजिये । देवहूति के ऐसे बचन सुन कर कपिल देव जी बोले-हे माता! अब मैं तुम्हारे सामने अलग-अलग तत्त्व लक्षणों का वर्णन करता हूँ । मनुष्य के कल्याण करने वाले ज्ञान को कहता हूँ-- यह आत्मा ही अंतर्यामी है, सो यह जीवात्मा विष्णु की अप्रगट रूप और त्रिगुणमयी माया की इच्छा से लीला करके प्राप्त हुआ है। और यही जीवात्मा ज्ञान को अच्छादित करने वाली माया को देख कर जगत में ज्ञान चेष्ठा से मोहित हो, अपने स्वरूप को भूल गया। यद्यपि यह पुरुष साक्षी मात्र को, इसके इसी कर्तृत्वाभिमान से कर्म बंधन होता है, यह सब जीवन मरण आदि कार्य प्रकृति के अविवेक का किया ही होता है। पुरुष को शरीर, इन्द्रिय, देवता, इनका रूप हो जाने प्रकृति ही कारण हैं। और प्रकृति से परे जो पुरुष

देवहूति को कपिल देव जी का भक्ति लक्षणों का वर्णन करना

श्रीमद भगवद पुराण * पच्चीसवाँ अध्याय *[स्कंध३] दो०--मोक्ष मिले जा तरह से, कही कपिल समझाय। पचीसवें अध्याय में कहीं सकल समझाय ।। मैत्रेय जी बोले हे विदुर जी ! कर्दम ऋषि के बन जाने के पश्चात देवहूति को हृदय में अतिशोक हुआ। परन्तु ब्रह्मा जी के बचनों का स्मरण कर अपने मन में धैर्य धारण किया, और कपिल देव जी से हाथ जोड़ कर कहने लगी। हे प्रभू ! मैंने देवताओं के मुख से यह सुना था कि श्री प्रभु नारायण परमवृम्ह माया मोह रूपी फल फूलों से लदे वृक्ष को काटने के लिये अवतार धारण करेंगे। अतः अब आपके होते हुये मुझे किसी अन्य वस्तु को कोई इच्छा नहीं रही। अब आप मुझे अपनी शरणागत जान करा ज्ञान प्रदान किजिये, जिससे मेरा, अज्ञान रूपी अंधकार नष्ट हो जावे । और आप इस प्रकृति के वह भेद भी मुझे बताएं जिस से इस संसार की उत्पत्ति होती है । तथा जिस प्रकार आदिपुरुष भगवान का प्रकाश संपूर्ण जीवों में प्रकाशित होता है। इस प्रकार अपनी माता देवहूति की विनती सुन कर कपिल देव जी बोले-हे माता! इस भेद को पूछने के कारण मैं तुम पर अति प्रसन्न हुआ हूँ योगी और ऋषि मुनि ही ऐसी बातें सुनने की अभिलाषा रखते है । इस संसार के माया मोह से