देवहूति को कपिल देव जी का भक्ति लक्षणों का वर्णन करना

श्रीमद भगवद पुराण * पच्चीसवाँ अध्याय *[स्कंध३]

दो०--मोक्ष मिले जा तरह से, कही कपिल समझाय।
पचीसवें अध्याय में कहीं सकल समझाय ।।


मैत्रेय जी बोले हे विदुर जी ! कर्दम ऋषि के बन जाने के पश्चात देवहूति को हृदय में अतिशोक हुआ। परन्तु ब्रह्मा जी के बचनों का स्मरण कर अपने मन में धैर्य धारण किया, और कपिल देव जी से हाथ जोड़ कर कहने लगी। हे प्रभू ! मैंने देवताओं के मुख से यह सुना था कि श्री प्रभु नारायण परमवृम्ह माया मोह रूपी फल फूलों से लदे वृक्ष को काटने के लिये अवतार धारण करेंगे। अतः अब आपके होते हुये मुझे किसी अन्य वस्तु को कोई इच्छा नहीं रही। अब आप मुझे अपनी शरणागत जान करा ज्ञान प्रदान किजिये, जिससे मेरा, अज्ञान रूपी अंधकार नष्ट हो जावे । और आप इस प्रकृति के वह भेद भी मुझे बताएं जिस से इस संसार की उत्पत्ति होती है । तथा जिस प्रकार आदिपुरुष भगवान का प्रकाश संपूर्ण जीवों में प्रकाशित होता है। इस प्रकार अपनी माता देवहूति की विनती सुन कर कपिल देव जी बोले-हे माता! इस भेद को पूछने के कारण मैं तुम पर अति प्रसन्न हुआ हूँ योगी और ऋषि मुनि ही ऐसी बातें सुनने की अभिलाषा रखते है । इस संसार के माया मोह से मुक्ति पाने के लिये ज्ञान प्राप्त करने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है । जो माता, पिता आदि अपने आत्माओं को ज्ञानोपदेश नहीं करते हैं। उन्हें अपना हितू न जानकर शत्रु जानना ही उचित है। हे माता ! आप स्वयं भी ज्ञान युक्त हो तुम्हें भव सागर से पार होने में किसी प्रकार का कोइ संदेह नहीं हैं परन्तु यह बात आपको निश्चित रूप से समझ लेनी चाहिये कि कोई भी मनुष्य मेरी दया के बिना भवसागर से पार नहीं होता है। अब मैं आपके सामने ज्ञान को वर्णन करता हूँ इसको जो मनुष्य स्नेह पूर्वक सुनेगा वह कृतार्थ होकर भवसागर को पार करता हैं। हे माता ! जो लोग काम, क्रोध, अहंकार, में तथा मद के वशीभूत हो संसारी लोगों की मोह माया में कैसे रहते हैं, उन्हें नरक अवश्य भोगना पड़ता है। जो मनुष्य इन सब में लिप्त रहता है वह इन अनेक दुखमयी योनियों को भोगता है और जो परमात्मा में लीन रहता है और इन सबसे पृथक रहता है वही भगवान को प्राप्त कर लेता है । क्यों कि बिना ज्ञान के क्रोध काम आदि वश में नहीं हो पाते हैं। जो मनुष्य वैराग्य धारण कर भक्ति योग का अभ्यास करते हैं, वे लोग काम,क्रोध आदि को अपने वश में कर लेते हैं। जिन लोगों की मेरे चरणों में सच्ची भक्ति होती है वे लोग अपनी मुक्ति का मार्ग बना लेते हैं । जितना प्रीति मनुष्य धन तथा परिवार आदि से रखना है अगर इतनी प्रीती- भक्ति भगवान के भक्तों से करे तो वो सहज में ही भव तागर को पार-कर मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । 

कपिल भगवान द्वारा मनुष्य की देवों से समता।। मनुष्य का उच्चतम वर्णन।।


हे माता ! यदि मनुष्य ज्ञानी होवे तो वे भी देवताओं से किसी प्रकार कम नहीं होता । संसार के यज्ञ, दान, योग आदि तथा तीर्थ स्ववृत्त इत्यादि सभी धर्मों से भक्ति योग सर्वोपरि है। परन्तु जब तक संसारी तृष्णा नष्ट नहीं होती है, तब तक ईश्वर के चरणों में भक्ति करना अत्यन्त दुर्लभ होता है। अतः ज्ञान की प्राप्ति हेतु सत्संग करना अत्यंत आवश्यक होता है। हे माता ! मैंने मनुष्यों के कल्याणार्थ आत्म-विचार को ही मुख्य माना है। जिसके प्रभाव से दुख सुख का भली प्रकार नाश हो जाता है। मन से ही जीव का बंधन है और मन से ही मोक्ष को प्राप्त होता है। जब मनुष्य का मन मोह, लोभ, अहंकार आदि से दूर हो जाता है तब वह पूर्ण शुद्ध हो जाता है। अर्थात तब उसे किसी प्रकार का दुख सुख नहीं व्यापता । तब उस समय पर प्राणी (मनुष्य) पुरुष आकृति से परे ईश्वर को सर्वदा स्वयं प्रकाश रूप भेद रहित अखण्डित अनुस्वरूप ब्रह्म के, ज्ञान-वैराग्य युक्त, तथा भक्ति से युक्त, ऐसे अपने मन उदासीन ब्रह्मस्वरूप तथा क्षीण बन वाली प्रकृति को देखता है। इसके अतिरिक्त वृह्म प्राप्ती के लिये अन्य कोई कल्याण कारी मार्ग नहीं है। हे माता! जीव का जगत में आस्कत हो जाना ही अजर फांसी है । और वही अस्कत साधु जनों में करने से मोक्ष का खुला द्वार जाता है। साधु के लक्षण इस प्रकार के हैं, -सहनशील, दयावान, समस्त देहधारियों के प्यारे तथा जिनकी किसी से शत्रुता न हो, और सदा शान्त स्वरूप रहें वे लक्षण वाले साधु पुरुष साधुओं के आभूषण रूप होते हैं। जो लोग सब कुछ त्याग कर मुझमें मन लगाकर मेरी कथा को सुनते हैं और कहते हैं वे लोग आध्यात्मिक तापों से व्यथित नहीं होते हैं । ऐसे महात्माओं का संग करने से सारे दोष दूर हो जाते हैं।

क्योंकि उसके सुनने अर्थात हरि कथा सुनने और प्रेम करने से शीघ्र मोक्ष मार्ग में श्रद्धा, प्रीति, भक्ति हो जाती है । हे माता ! जब मनुष्य मेरी सृष्टि आदि लीलाओं का निरन्तर चिन्तन करता है तब उससे उत्पन्न हुई भक्ति से देखे सुने इंद्रियों के विषयों से वैराग्य हो जाता है, जिससे अपने चित्त को वश करने में प्रवृत्त हुआ योगी सुगम योग मार्गों से प्रयत्न करता है। प्रकृति के गुणों की सेवा करने से तथा अपने बढे हुए ज्ञान के कारण योग साधन से मेरे समर्पण की हुई भक्ति से प्राणी इसी देह में सर्वान्तर्यामी मुझको, प्राप्त हो जाता है। कपिल देव जी के यह बचन कहने पर देवहूति ने कहा-हे प्रभू ! आपके विषय में किस प्रकार की भक्ति करनी चाहिये, और जिससे मैं तुम्हारे मोक्ष पद को सर्वोक्तभाव से प्राप्त कर सक सो आप सरल भाव से प्रकट कीजिए।

कपिल भगवान कहने लगे हे माता ! सुनो एक, रूप,नाम विचार रहित मन वाले पुरुष, ऐसे इन्द्रियों के देवताओं का जो वेद विहित कर्म करती हैं, उन इन्द्रियों की वृत्ति का भगवान में प्राप्त होना, ऐसे स्वभाव से प्राप्त होने वाली भक्ति मुक्ति से भी बड़ी होती है। भक्ति शीघ्र ही लिंग शरीर दग्ध कर देती है। परन्तु वह भक्ति निष्काम होनी चाहिये। जिनकी इच्छा हमारे चरणों की सेवा में रहती है वे पुरुष सायुज्य मोक्ष की इच्छा नहीं करते हैं। हे माता ! ऐसे लोगों को इच्छा न होने पर भी भक्ति की शक्ति के कारण मोक्ष प्राप्त होती है। अज्ञान नष्ट होने के पश्चात् वे वैकुण्ठलोक में न चाहने पर भी सत्यलोक भोग सम्पत्ति व अणमादिक आठ प्रकार की सिद्धियों को पाते हैं। ऐसे लोगों को मेरा काल रूप चक्र भी विनास नहीं करता है। अतः योगी जन ज्ञान वैराग्य से प्राप्त भक्ति योग द्वारा अपनी कुशल के निमित्त प्रभु चरण कमलों का आश्रय लेते हैं । अतः संसारी पुरुषों को जो अपना कल्याण चाहते हैं उन्हें अपने मन को भक्ति योग द्वारा मुझ में लगाकर स्थिर करना चाहिये, जिससे वह मन पुन: चंचल न होवे


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