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श्रीमद भागवद पुराण अध्याय १[स्कंध ४] प्रजा की उत्त्पत्ति।।

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 ॥श्री गणेशाय नमः ।। अथ सुख सागर श्रीमद भागवद पुराण * चतुर्थ स्कन्ध प्रारम्भ * अध्याय १ *मंगलाचरण दोहा-गोबिन्द ज्ञान प्रकाश करि, तम अज्ञान हटाय। शरणागत हूँ आपकी, लीजे प्रभू निभाय ।। कृपा आपकी से सदा, होय सुमंगल काज । भव सागर से पार करो मो अनाथ को आज।। प्रथम अध्याय दो-मनु कन्याओं से हुआ, जैसे जग विस्तार। सो पहले अध्याय में वरणों चरित अपार ॥ श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! अब मैं तुम्हारे सामने वह कथा वर्णन करता हूँ जो कि मैत्रेय ऋषि ने बिदुरजी से संसार में प्रजा की उत्पत्ति का वर्णन जिस प्रकार किया है। प्रियव्रत की जनम कथा।। जब प्रजा का विस्तार कहने के लिये मैत्रेयजी ने बिदुरजी से इस प्रकार कहा-हे बिदुरजी ! हे तात ! हम पहले यह वर्णन कर चुके हैं कि सर्व प्रथम निराकार ईश्वर ने तीनगुणों की ओर चौबीस तत्वों के मिश्रण से विराट स्वरूप धारण किया जो सहस्त्रों वर्ष पर्यन्त जल में पड़ा रहा तब उसमें से विराट स्वरूप अवतार नारायण जी उत्पन्न हुये फिर उसकी नाभि कमल में से वृह्माजो उत्पन्न हुये जिन्होंने ईश्वर का तप करके शक्ति प्राप्त की और अनेक प्रकार से सृष्टि की रचना की तब उसी काल में उन्

श्रीमद भागवद पुराण तैंतीसवा अध्याय * [स्कंध३]माता देवहूति का देह त्याग।।

 *श्रीमद भागवद पुराण तैंतीसवा अध्याय * [स्कंध३] (देवहूति को कपिल जी द्वारा ज्ञान धन लाभ होना) दो.-कपिल कियो उपदेश जो, लियो मुक्ति मग पाय।। तेतीसवें अध्याय में, वर्णन कियो सुनाये ।। श्री शुकदेव जी ने राजा परीक्षत से कहा हे राजा! इस प्रकार मैत्रेय जी ने विदुर जी को यह प्रसंग सुनाया जो कि कपिल देव भगवान ने अपनी माता देवहूति के लाभार्थ कहा था। तब समस्त प्रसंग एवं कथा रूपी ज्ञान को सुन कर देवहूति ने कपिल देव भगवान से कहा-हे प्रभो ! आपके ज्ञान रूप प्रकाश से मेरे मन का मोह रूपी अंधकार को दूर हो गया है, मैं आपको बारम्बार प्रणाम करती हूँ हे देव ! आपके जिस स्वरूप को वृम्हा जी ने भी केवल ध्यान में ही देखा है और जो स्वयं आपके नाभि कमल से उत्पन्न होकर संसार की रचना करते हैं वे भी आपके साक्षात दर्शन नहीं कर सकते हैं। हे प्रभो ! सत्य संकल्प और हजारों अद्भुत शक्ति वाले जिनके उदर में यह संपूर्ण सृष्टि प्रलय काल में समा जाती हैं, तब आप स्वयं अकेले रह कर एक बालक का स्वरूप धारण करके बट पत्र क्षीरसागर में विराज मान रहते हो सो प्रभु ! हे विभु ! पापियों को दंड देने के निमित्त तथा भक्तजनों के ऐश्वर्य को बढ़ा

कपिल भगवान द्वारा माता देवहूती को दिया पूर्ण ज्ञान।।

श्रीमद भागवद पुराण सत्ताईसवाँ अध्याय [स्कंध ३] (मोक्ष रीति का पुरुष और विवेक द्वारा वर्णन ) दो -कपिल देव वर्णन कियो, प्रकृति पुरु से ज्ञान। सो सवैया अध्याय में, उत्तम कियो बखान ।। श्री कपिलजी बोले-हे माता ! प्रकृति रूपी देह में स्थित हुआ परमात्मा प्रकृति रूपी देह के गुण सुख, दुखादि, से लिप्त नहीं होता है । क्यों कि वह निर्विकार, निर्गुण, तथा अकर्ता है । जैसे जल से भरे अनेक पात्रों में अलग-अलग सूर्य का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता हैं। परन्तु उसे तोड़ दिया जाय तो कुछ भी नहीं रहता है। इसी प्रकार आत्मा का ज्ञान सभी प्राणी में भरा हुआ है। जिन प्राणियों को यह ज्ञान प्राप्त हो जाता है उन्हें फिर किसी प्रकार का दुख सुख नहीं व्यापता है । और वह फिर संसारी माया मोह में नही फँसता है । जिस प्रकार तिलों में तेल रहता है परन्तु किसी को दिखाई नहीं देता उसी प्रकार से आत्मा भी सबके शरीर में विद्यमान होने पर भी किसी को दिखाई नहीं देता है। परन्तु जब पुरुष (आत्मा) प्रकृति (शरीर) के सत्वादि गुणों में सब ओर से आसक्त हो जाता है तब वह अपने स्वरूप को भूलकर अहंकार में आसक्त हो जाता है। उसी के परिणाम स्वरूप वह अभिमान क

श्रीमद भागवद पुराण छब्बीसवाँ अध्याय [स्कंध ३] (साँख्य योग्य वर्णन)

 श्रीमद भागवद पुराण छब्बीसवाँ अध्याय [स्कंध ३](साँख्य योग्य वर्णन) दो०--प्रकृति कर्म वर्णन किया,जैसे कपिल सुनाय। छब्बीसवें अध्याय में, धर्म कही समझाय॥ अपनी माता देवहूति को समझाते हुये श्री कपिल भगवान कह चुके तब देवहूति ने कहा-हे प्रभु ! मुझ स्त्री को ऐसा ज्ञान प्राप्त होना बहुत कठिन है। अतः भक्ति पूजा का मार्ग दर्शन देकर प्रकृति के भेद का वर्णन कीजिये । देवहूति के ऐसे बचन सुन कर कपिल देव जी बोले-हे माता! अब मैं तुम्हारे सामने अलग-अलग तत्त्व लक्षणों का वर्णन करता हूँ । मनुष्य के कल्याण करने वाले ज्ञान को कहता हूँ-- यह आत्मा ही अंतर्यामी है, सो यह जीवात्मा विष्णु की अप्रगट रूप और त्रिगुणमयी माया की इच्छा से लीला करके प्राप्त हुआ है। और यही जीवात्मा ज्ञान को अच्छादित करने वाली माया को देख कर जगत में ज्ञान चेष्ठा से मोहित हो, अपने स्वरूप को भूल गया। यद्यपि यह पुरुष साक्षी मात्र को, इसके इसी कर्तृत्वाभिमान से कर्म बंधन होता है, यह सब जीवन मरण आदि कार्य प्रकृति के अविवेक का किया ही होता है। पुरुष को शरीर, इन्द्रिय, देवता, इनका रूप हो जाने प्रकृति ही कारण हैं। और प्रकृति से परे जो पुरुष

देवहूति को कपिल देव जी का भक्ति लक्षणों का वर्णन करना

श्रीमद भगवद पुराण * पच्चीसवाँ अध्याय *[स्कंध३] दो०--मोक्ष मिले जा तरह से, कही कपिल समझाय। पचीसवें अध्याय में कहीं सकल समझाय ।। मैत्रेय जी बोले हे विदुर जी ! कर्दम ऋषि के बन जाने के पश्चात देवहूति को हृदय में अतिशोक हुआ। परन्तु ब्रह्मा जी के बचनों का स्मरण कर अपने मन में धैर्य धारण किया, और कपिल देव जी से हाथ जोड़ कर कहने लगी। हे प्रभू ! मैंने देवताओं के मुख से यह सुना था कि श्री प्रभु नारायण परमवृम्ह माया मोह रूपी फल फूलों से लदे वृक्ष को काटने के लिये अवतार धारण करेंगे। अतः अब आपके होते हुये मुझे किसी अन्य वस्तु को कोई इच्छा नहीं रही। अब आप मुझे अपनी शरणागत जान करा ज्ञान प्रदान किजिये, जिससे मेरा, अज्ञान रूपी अंधकार नष्ट हो जावे । और आप इस प्रकृति के वह भेद भी मुझे बताएं जिस से इस संसार की उत्पत्ति होती है । तथा जिस प्रकार आदिपुरुष भगवान का प्रकाश संपूर्ण जीवों में प्रकाशित होता है। इस प्रकार अपनी माता देवहूति की विनती सुन कर कपिल देव जी बोले-हे माता! इस भेद को पूछने के कारण मैं तुम पर अति प्रसन्न हुआ हूँ योगी और ऋषि मुनि ही ऐसी बातें सुनने की अभिलाषा रखते है । इस संसार के माया मोह से

कपिल मुनी का जनम [भाग १]

 श्रीमद भागवद पुराण तेईसवाँ अध्याय [सकंध ३] कर्दम की देवहूति के साथ विमान में रति लीला दो- कर्दम ने तप शक्ति से, दिव्य विमान बनाय। रति लीला जा विधि वही, कथा कही मन लाय ।। मैत्रेयजी बोले-हे विदुर ! अपने माता पिता के जाने के पश्चात् पतिब्रता देवहुति नित्यप्रति प्रीति पूर्वक अपने पति सेवा करने लगी। उसने अपनी सेवा से अपने पति कर्दम जी को प्रसन्न कर लिया था । इसी कारण से श्रेष्ठ कर्दम जी ने अपनी पत्नी की सेवा से प्रसन्न होकर एक समय कृपा पूर्वक कहा-हे प्रिये ! में तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ, जो तुम्हारा यह शरीर सुख भोगने के योग्य था सो वह तुमने मेरी सेवा में दुर्बल कर दिया। सो हे प्रिये ! यह मत सोचो कि मेरे पास तुम्हें देने को कुछ भी नहीं है तुम नहीं जानती हो कि मैंने अपने धर्म में रत होकर तप, समाधि और उपासना तथा आत्म योग के भगवत के दिव्य प्रसाद जोकि भय लोक से रहित हैं उन ऐश्वर्यो को प्राप्त किया है अतः तुम जो चाहो सो मुझसे मांग। तब देवहुति अपने पति की इन बातों को सुनकर अति प्रसन्न हुई और कुछ लज्जा वक्त हँसती हुई गद गद वाणी से बोली-हे पति ! आप अमोघ शक्तियों के स्वामी हो यह मैं भली भाँति जानती