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श्रीमद भागवद पुराण सातवां अध्याय[स्कंध ४]।।प्रजापति दक्ष की कथा।।

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  श्रीमद भागवद पुराण सातवां अध्याय[स्कंध ४] (दक्ष का यज्ञ विष्णु द्वारा सम्पादन) दोा-जैसे दिया विष्णु ने दक्ष यज्ञ करवाई। सो सप्तम अध्याय में वर्णी कथा बनाय।। श्री शुकदेव जी कहने लगे-हे परीक्षित ! विदुर जी से मेत्रैय ऋषि बोले कि, हे विदुर! जब शिवजी से ब्रह्मा जी ने इस प्रकार कहा तो भगवान शंकर जी ने कहा- हे ब्रह्माजी! सुनिये ! मैं उन बाल बुद्धियों के अपराध को न तो कुछ कहता हूँ और न कुछ चिन्ता करता हूँ। क्योंकि वे अज्ञानी पुरुष ईश्वर की माया से मोहित रहते हैं। अतः इसी कारण मैंने इन लोगों को उचित दण्ड दिया है। आप चाहें कि दक्ष का यही शिर फिर से हो जावे तो वह किसी प्रकार नहीं हो सकेगा । क्योंकि दक्ष का वह शिर तो यज्ञ की अग्नि में जल गया हैं। अतः ऐसा हो सकता है कि दक्ष का मुख बकरे का लगा दिया जाय । तथा भगदेवता के नेत्रों की कहते हो कि वह फिर होवें सो वह भी नहीं होगा, अतः इसके लिये यह है कि भगदेवता अपने भाग को मित्र देवता के नेत्रों से देखा करे। अब रही पूषा देवता के दाँतों की सो वह यजमान के दाँतों से पिसा हुआ अन्न भोजन किया फरें। अब उस यज्ञ में पत्थरों अथवा अस्त्र-शस्त्रों से जिन लोगों के

श्रीमद भागवद पुराण* छटवां अध्याय [स्कंध४]।।शंकर जी से प्रजापति दक्ष को पुनः जीवित।।

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श्रीमद भागवद पुराण* छटवां अध्याय [स्कंध४] ब्रह्मा सहित सब देवताओं को शंकर जी से प्रजापति दक्ष को पुनः जीवित करने की प्रार्थना करना दोहा-देवन किन्ही प्रार्थना, ज्यों शिव जी सों आय। सों छट्वे अध्याय में, कही कथा दर्शाया॥  श्री शुकदेव जी कहने लगे-हे परीक्षित! इस प्रकार विदुर जी से मेत्रैय जी कहने लगे-कि हे विदुर जी ! वीरभद्र ने जब दक्ष को मार डाला और भगदेवता की आँखों को निकाल लिया, तथा पुषादेव के दांत उखाड़ लिये, और भृगु जी की दाड़ी मूछों को उखाड़ लिया, तब सारी यज्ञशाला हवन सामग्री को विध्वंस कर दिया, और जब वह कैलाश पर्वत पर लौट गया तो, वहाँ उपस्थित देवता और ऋषि-मुनि ऋत्विज आदि सब ब्राह्मणों एवं सांसदों सहित अत्यन्त भयमीत हो वृह्म जी के निकट आये और जिस प्रकार वहाँ जो घटना व्यतीत हुई थी वह सब ज्योंकी त्यों कह सुनाई। क्यू ब्रह्मा जी एवं नारायण जी दक्ष के यज्ञ में नही गये थे? हे विदुर जी! यदि कोई यह शंका उत्पन्न करे कि क्या ब्रह्माजी दक्ष के यज्ञ में नहीं गये थे। सो जानना चाहिये कि इस होनहार को ब्रह्मा जी और श्री नारायण जी पहले से ही जानते थे, यही कारण था कि वह पहले से ही दक्ष के यज्ञ में नह

श्रीमद भागवद पुराण दूसरा अध्याय[स्कंध४] (शिव तथा दक्ष का वैर होने का कारण)

 श्रीमद भागवद पुराण दूसरा अध्याय[स्कंध४] (शिव तथा दक्ष का वैर होने का कारण) दोहा-जैसे शिव से दक्ष की, भयो भयानक द्वेष। सो द्वितीय अध्याय में वर्णन करें विशेष ।। श्री शुकदेव जी कहने लगे-हे परीक्षित ! जब मैत्रेय जी ने सती के विषय में यह कहा तो विदुर जी ने पूछा - है वृह्यान् ! यह कथा सविस्तार कहिये कि दक्ष प्रजापति और शिवजी में क्यों और किस प्रकार वैर-भाव उत्पन्न हुआ। तब मैत्रेय जी बोले हे विदुर जी ! एक समय सभी देवता आदि और ऋषी इत्यादि एक शुभ यज्ञ कार्य में जाकर एकत्रित हुए थे । उसमें ब्रह्मा जी तथा शिवजी भी आये हुये थे। तब उस महा सभा में वृह्माजी के पुत्र प्रजापति दक्ष भी पहुँचे । जिन्हें आया देखकर सभी देव ता तथा ऋषि-मुनि उनका आदर अभिवादन करने को अपने अपने आसनों से उठखड़े हुये और उन्हें प्रणाम आदि कर सम्मानित किया। परन्तु भगवान शिव और ब्रह्मा जी अपने आसन से नहीं उठे थे। अर्थात् इन्हीं दोनों ने दक्ष प्रजापति का अन्य सबों की तरह से आदर-सत्कार नहीं किया था। तब वह प्रजा पति दक्ष जगत गुरु ब्रह्मा जी को प्रणाम करके अपने आसन पर बैठ गये। तब दक्ष ने अपने मन में विचार किया कि वृह्माजी तो मेरे पि

श्रीमद भागवद पुराण * छठवां अध्याय * [स्कंध२] (पुरुष की विभूति वर्णन)

 श्रीमद भागवद पुराण * छठवां अध्याय * [स्कंध२] (पुरुष की विभूति वर्णन) दोहा-जिमि विराट हरि रूप का, अगम रूप कहलाय। सो छठवें अध्याय में दीये भेद बताय।। ब्रह्माजी बोले-हे पुत्र! भगवान के मुख से बाणी और अग्नि की उत्पत्ति है। विराट भगवान के सातों धातु के गायत्रीादि छन्दों का उत्पत्ति स्थान है। देवताओं का अन्न, हव्य और पितरों का अन्न, कव्य क्यों हैं और इनका उत्पत्ति स्थान मनुष्यों का अन्न भगवान की जिभ्या है यही सम्पूर्ण रसों का कारण है। समस्त पवन और प्राण का स्थान ईश्वर की नासिका है, तथा अश्वनी कुमार, औषधि वह मोह प्रमोद भी यही उत्पत्ति का स्थान भगवान का नासिक ही है। नेत्र रूप और तेज के उत्पत्ति स्थान हैं वर्ग और सूर्य का स्थान परमेश्वर के नेत्र गोलक हैं। भगवान के कान तीर्थ और दिशा का स्थान है, कर्ण। गोलक को आकाश और शब्द का उत्पत्ति स्थान जानना चाहिए । विराट भगवान का शरीर वस्तु के सारांशो का उत्पत्ति स्थान है । रोम वृक्ष है जिनसे यज्ञ सिद्ध होता है। केश- मेघ, दाड़ी 'बिजली, हाथ, पांव, नख क्रमशः- पत्थर व लोहे के विराट भगवान के उत्पत्ति स्थान हैं। भगवान को भुजा लोकपालों का उत्पत्तिस्

श्रीमद भगवद पुराण ईक्कीसवाँ अध्याय [स्कंध ३]। विष्णुसार तीर्थ।

शतरुपा और स्वयंभुव मनु द्वारा सृष्टि उत्पत्ति   कर्दम  ऋषि का देवहूति के साथ विवाह दो-ज्यों मुनि ने देवहूति का, ऋषि कर्दम के संग। व्याह किया जिमि रुप से, सो इस माहि प्रसंग। श्री शुकदेव जी ने परीक्षित राजा ने कहा-हे राजन् ! इस प्रकार सृष्टि उत्पत्ति का वर्णन करते हुये मैत्रेय जी ने कहा-हे विदुर जी ! हम कह चुके हैं कि जब पृथ्वी स्थिर हो चुकी तब श्री परब्रह्म प्रभु की माया से चौबीस तत्व प्रकट हुए और जब ब्रह्मा जी ने अपने शरीर को त्याग दिया था जिस के दाये अंग से स्वायम्भुव मनु और बाएं अंग से शतरूपा उत्पन्न हुये। तब ब्रह्मा जी ने उन्हें आज्ञा दी कि पहिले तुम श्री नारायण के तप और स्मरण करो तत्पश्चात परस्पर विवाह करके संसारी जीवों की उत्पत्ति करना । तब ब्रह्मा जी की आज्ञा पाकर स्वायंभुव मनु और शतरूपा दोनों ही वन को श्री नारायण जी की तपस्या करने चले गये। पश्चात, उनके बन जाने के ब्रह्मा जी ने श्री नारायण जी से सृष्टि उत्पन्न करने की सामर्थ प्राप्त करने के लिये अनेक प्रार्थना की तो नारायण जी ने उन्हें ध्यान में दर्शन देकर यह उपदेश किया था कि हे वृम्हा जी ! अब तुम्हारा शरीर शुद्ध हो गया, अब तुम

गंगा जी का विस्तार वर्णन।। भगवाद्पदी- श्री गंगा जी।

श्रीमद भगवद पुराण *सत्रहवां अध्याय*[स्कंध ५] दोहा: कहयो गंग विस्तार सब, विधि पूर्वक दर्शाय। संकर्षण का स्तबन कियो रुद्र हर्षाय।। गंगा जी का जनम। शुकदेव जी बोले-परीक्षित! भगवान विष्णु ने राजा बलि को छलने के लिये जब वामन अवतार धारण कर यज्ञ में जाय साढ़ेतीन पग भूमि दान में ली थी, तब अपने स्वरूप को बढ़ाय कर तीनों लोकों को मापने के समय दाहिने चरण से पृथ्वी को बचाया और बाएँ चरण को ऊपर को उठाया तो उस चरण के अंगूठे से ब्रह्मांड का ऊपर का भाग फूट गया। उस छिन्द में से श्री गंगा की धारा ब्रह्माण्ड मार्ग से स्वर्ग पर आकर उतरी। यह श्री गंगा जी का जन्म भगवान विष्णु चरण कमलों के इसलिये इसका भगवत्पदी नाम हुआ। यद्यपि यह उस समय पृथ्वी पर नहीं उतरी थी हजार चौकड़ी युग के उपरान्त स्वर्ण के मस्तक पर आन कर पहुँची। पश्चात वह धारा देवलोक में आती है जहाँ ध्रुव जी अपने मस्तक पर धारण कर रहे हैं। पश्चात वह गंगा जी की धारा ध्रुवलोक से नीचे गिरती है जो उसे सप्त ऋषि धारण करते हैं तदनंतर यह सप्त ऋषियों के स्थान से नीचे गिर कर चंद्र मडल को आसेचन करती हुई, सुमेरु पर्वत पर बनी ब्रह्मा जी की नगरी में बहती हुई च

सृष्टि विस्तर अर्थ ब्रह्मा जी द्वारा किये गये कर्म एवं देह त्याग।

श्रीमद भागवद पुराण बीसवां अध्याय[स्कंध ३] दोहा-स्वयंभुव मनु के वश से भयौ जगत विस्तार। सो सब या अध्याय में बनू कथा उचार ।। ( सृष्टि विस्तार ) हिरण्यक्ष वध श्री मैत्रेय जी बोले-हे विदुर जी ! हिरण्याक्ष के मरने पर देवता गण अत्यन्त प्रसन्न हुये और भगवान बाराहजी पर पुष्पो की वर्षा करते हुये, अपना मनोरथ पूर्ण हुआ जानकर आनन्द के बाजे बजाने लगे। सब देवताओं सहित वृह्माजी ने श्री बाराह भगवान के समीप जाकर इस प्रकार से स्तुति की, हे अनादि पुरुष वाराह जी ! आपने देवता, सत्पुरुष, ब्राह्मण एवं यज्ञादि की रक्षा करने के निमित्त इस दुष्ट पापाचारी हिरण्याक्ष राक्षस का संहार किया है। आपने ही पृथ्वी को पाताल से निकाल कर जल पर स्थित किया हैं। हे प्रभु ! अब आपकी ही कृपा से सब जीव इस पृथ्वी पर रह कर आनन्द सहित यज्ञ, जप, तप, पूजा एवं दान आदि कर्म किया करेंगे। हे दीनबन्धु! उस दैत्य हिरण्याक्ष के समय में यज्ञ में देवता तथा पितरों को भाग नहीं मिलता था। अब वे सभी देवता तथा पितर अपना-अपना भाग प्राप्त करके आनन्द सहित आपका स्मरण किया करेंगे। जब वृह्माजी सभी देवता और ऋषियों सहित स्तुति कर चुके तो पश्चात पृथ्वी स्त्री

हिरण्याक्ष को युध्द दान देना।

 श्रीमद भागवद पुराण * सत्रहवाँ अध्याय * [स्कंध३] हिरण्यकश्यप असुर द्वारा दिग्विजय करना। दो-दिति उदर में आपके असुर जन्म लिया आय । सत्रहवें अध्याय में कही कथा सुनाय ।। ऋषि मैत्रेय जी बोले-हे विदुर जी ! इस प्रकार ब्रह्मा जी ने जब देवताओं को उनके भय का कारण सुनाया तो सब की संका दूर हो गई और सभी देवता अपने-अपने स्थानों को चले गये। इधर जब दिति ने गर्भधारण कर लिया तो वह पुत्रों के प्रति शंका रखने के कारण निरंतर सौ वर्ष तक गर्भ को धारण किये रही। पश्चात सौ वर्ष के उसने दोनों पुत्रों को एक साथ जन्म दिया। जिस समय इन दोनों का जन्म हुआ उस समय आकाश, अतंरिक्ष तथा सभी लोकों में अनेक प्रकार अत्यंत दुख देने वाले उत्पात हुए । पर्वतों सहित भूकंप तथा वज्रपात होने लगे, दुख समय जान पुच्छल तारे उदय होने लगे, पवन इतने वेग से भयंकर रूप धारण कर चलने लगी कि जिसके कारण वृक्ष उखड़ कर धराशाई होने लगे। दिन में अंधकार छागया तथा बादल घोर गर्जन करने लगे और भयानक रूप से बिजली कड़क कर चमकने लगी। समुद्र में भयानक ज्वार आने लगे। नवी, तालाब, बावड़ी, कूप आदि के जल सूख गये। बिना योग के ही ग्रहण होने लगा तथा गीदड़ अमंगलकारी बोल