श्रीमद भगवद पुराण ईक्कीसवाँ अध्याय [स्कंध ३]। विष्णुसार तीर्थ।

शतरुपा और स्वयंभुव मनु द्वारा सृष्टि उत्पत्ति

 कर्दम ऋषि का देवहूति के साथ विवाह

दो-ज्यों मुनि ने देवहूति का, ऋषि कर्दम के संग।
व्याह किया जिमि रुप से, सो इस माहि प्रसंग।


श्री शुकदेव जी ने परीक्षित राजा ने कहा-हे राजन् ! इस प्रकार सृष्टि उत्पत्ति का वर्णन करते हुये मैत्रेय जी ने कहा-हे विदुर जी ! हम कह चुके हैं कि जब पृथ्वी स्थिर हो चुकी तब श्री परब्रह्म प्रभु की माया से चौबीस तत्व प्रकट हुए और जब ब्रह्मा जी ने अपने शरीर को त्याग दिया था जिस के दाये अंग से स्वायम्भुव मनु और बाएं अंग से शतरूपा उत्पन्न हुये। तब ब्रह्मा जी ने उन्हें आज्ञा दी कि पहिले तुम श्री नारायण के तप और स्मरण करो तत्पश्चात परस्पर विवाह करके संसारी जीवों की उत्पत्ति करना । तब ब्रह्मा जी की आज्ञा पाकर स्वायंभुव मनु और शतरूपा दोनों ही वन को श्री नारायण जी की तपस्या करने चले गये। पश्चात, उनके बन जाने के ब्रह्मा जी ने श्री नारायण जी से सृष्टि उत्पन्न करने की सामर्थ प्राप्त करने के लिये अनेक प्रार्थना की तो नारायण जी ने उन्हें ध्यान में दर्शन देकर यह उपदेश किया था कि हे वृम्हा जी ! अब तुम्हारा शरीर शुद्ध हो गया, अब तुम सृष्टि की रचना करो, अब आपके उत्पन्न करने से धर्मात्मा तथा ज्ञानी मनुष्य उत्पन्न होंगे। तो भगवान द्वारा आज्ञा प्राप्त कर मरीच, कश्यप, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष तथा नारद आदि पुत्रों को जन्म दिया जिनके जन्म का वर्णन भली प्रकार हम पिछले अध्याय में भली प्रकार कर चुके हैं । मैत्रेय जी कहने लगे-हे विदुर जी ! स्वायम्भुव मुनि और शतरूपा ने वन में जाकर दस हजार वर्ष तक भगवान श्री नारायण जी का तप किया। जिस तप के प्रभाव से भगवान श्री नारायण जी ने प्रसन्न होकर उन दोंनों को दर्शन दिया, और वर मांगने के लिये कहा जिस पर उन दोनों ने हाथ जोड़ कर इस प्रकार बचन कहे-हे प्रभु ! हमने जगत की रचना करने और राज सिंहासन का आनंन्द पाने के लिये तप किया था। सो यह हमसे बड़ी भूल हुई क्यों कि इस कारण तप करने की अपेक्षा हमें मुक्ति पाने के लिये तप करना चाहिये था | तब भगवान ने कहा-हे मुनि ! तुमसे में अति प्रसन्न हूँ सो तुम जो इच्छा चाहो सो मुझसे वर माँगो तब मनुने हाथ जोड़कर कहा हे प्रभु ! हम लोगों की यह इच्छा है कि हमें आप जैसा पुत्र प्राप्त हो। यह बचन सुन भगवान ने कहा मेरे सामने तो इस समस्त विश्व में दूसरा कोई भी नहों हैं सो हे मुनि ! मैं स्वयं ही पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ अवतार गृहण करुगा इस प्रकार वर देकर श्री नारायण भगवान तो अंतर्ध्यान हो गये और वे मनु तथा शतरूपा बन से लौट कर पितामह ब्रह्मा जी के निकट आये, और करबद्ध हो कहा-हे पिता! हम तप कर लौट आये हैं सो अब आप जो आज्ञा दें हम वही कार्य करे । तब ब्रह्मा जी ने उन्हें सृष्टि रचने की आज्ञा प्रदान की । तब वे उनको आज्ञा से समस्त भूमंडल का राज्य करने लगे। तत्पश्चात स्वायंभुव मनु और शतरूपा के द्वारा उत्तानपाद एवं प्रियव्रत नामक दो पुत्र आकृती,देवहूति एवं प्रसूती नामक तीन कन्याओं का जन्म हुआ उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव हुआ।प्रियव्रत पहले तो नारद जी के ज्ञानोपदेश से विरक्त हो गये थे, परंतु पुनः वृम्हा जी द्वारा सम झाने पर इन्होंने सातोदीपों का राज्य किया। स्वंयभुव मनु ने अपनी कन्या आकूति, का विवाह रुचि नाम के ऋषि के साथ किया था। तत्पश्चात मैत्रेय जी कहने लगे हे विदुर जी ! जब ब्रह्मा जी ने कर्दम ॠषि से कहा कि श्रृष्टि रचो तब कर्दम जी ने सरस्वती नदी के तट पर दश हजार वर्ष पर्यन्त तप किया तदनन्तर समाधि युक्त क्रिया योग करके हरि भगवान की आराधना किया। हे विदुर जी ! तब भगवान श्री नारायण जी ने साक्षात स्वरूप धारण करके कर्दम जी को दर्शन दिया। जिसे देख कर्दम जी ने अत्यंत प्रसन्नता पूर्वक पृथ्वी में शिर नवाया और साष्टांग प्रणाम किया। तत्पश्चात प्रीति भरी वाणी से स्तुति कर ने लगे। कर्दम ऋषि बोले हे भक्तवत्सल ! आपके दर्शन करने से आज हमारे नेत्र सफल हुये, हे भगवान ! आपके चरण कमलों को जो लोग मात्र सुख के अर्थ उपासना करते हैं वे मनुष्य माया के बल से नष्ट बुद्धि गिने जाते हैं। हे ईश, वैसा ही मैं हूँ, विवाह की मुझको इच्छा है परन्तु स्त्री शीलवती, बुद्धिमान, ज्ञानवाणी होवे, क्यों कि स्त्री से धर्म, अर्थ काम की सिद्धि होती है। मैत्रेय जी बोले-हे विदुर जी जब इस प्रकार कपट रहित कर्दम जी ने भगवान की स्तुति की तो भगवान विष्णु बोले-हे ऋषि कर्दम! तुमने जिस कारण मन लगाकर भजन किया है सो हमने तुम्हारे मन की अभिलाषा को जानकर सम्पूर्ण प्रबंध पहिले ही उचित कर दिया। उपाध्यक्ष प्रजापति का पुत्र स्वयंभुव मनु को वृह्मवर्त में निवास करता है वह अपनी स्त्री शतरूपा सहित परसों आपको देखने आबेंगे, वह अपनी कन्या को आपके अनुरूप जानकर देंगे। वह कन्या तुम्हारे राज मनोरथ को शीघ्र ही पूर्ण करेगी।

कहाँ गिरे थे भगवान विष्णु के आंसू? विष्णुसार


  इस प्रकार कहने के पश्चात भगवान श्री नारायण जी के नेत्रों से यह विचार कर आँसू गिरे कि केवल विवाह के लिये ही इस ऋषि ने दस हजार वर्ष तक इतना कठिन तपस्या की हैं। जिस स्थान पर नारायण जी के आँसू गिरे थे उस स्थान पर विष्णु सार नामक तीर्थ बना यह तालाबरूपी तीर्थ आज तक कुरुक्षेत्र के निकट उपस्थित हैं । तब भगवान श्री नारायण ने कर्दम ऋषि से कहा था कि हे ऋषि ! जो प्राणी इस सरोवर में स्नान करगा। उसके सारे पाप नाश हो जाएगा। ऐसे कह कर कर्दम जी के आश्रम से भगवान बैकुंठ लोक को चले गए । इसके पश्चात वे कर्दम ऋषि बिन्दु सरोवर के निकट ही रह कर स्वयंभुव मनु के आने की प्रतीक्षा करने लगे। स्वयंभुव मनु सुवर्ण जटित रथ पर सवार हो अपनी पत्नी शतरूपा को साथ लिये और अपनी पुत्री देवहूति के रथ पर बैठाय पृथ्वी पर पर्यटन करने को निकले तब वे पृथ्वी पर विचरते-विचरते भगवान द्वारा कर्दम ऋषि को बताये समय पर ही कर्दम जी के आश्रम पर आये | वहाँ अपनी स्त्री शतरूपा और अपनी कन्या के साथ जाकर कर्दम ऋषि को होम करते हुये देखा । तब कर्दम जी के निकट जाकर मनु जी ने नमस्कार किया। तब कर्दम जी न उन्हें योग्य आशीर्बाद दिया और बड़ाई करके राजों के योग्य सत्कार किया तब कर्दम जी ने मनु की अनेक प्रकार बड़ाई करने के पश्चात कहा कि हे वीर! आपका पधारना यहाँ किस कारण से हुआ। हम प्रसन्नता पूर्वक आपका कथन स्वीकार करेंगे, आप अपने आने का प्रयोजन हम से कहिये।


श्रीमद भागवद पुराण [introduction]༺═──────────────═༻
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]༺═──────────────═༻
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]༺═──────────────═༻
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]༺═──────────────═༻
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]༺═──────────────═༻

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