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श्रीमद भागवद पुराण तीसवां अध्याय [स्कंध ३] (मनुष्य की तामसी गति का वर्णन)

 श्रीमद भागवद पुराण तीसवां अध्याय [स्कंध ३]  मनुष्य की तामसी गति का वर्णन।। दो-पाप कर्म में जो मनुष्य, पावत यमपुर धाम। सो तीसवें अध्याय में, कीनी कथा प्रकाश।। श्री कपिलदेव जी बोले-हे माता! इस जगत में कामी पुरुष शरीर और स्त्री के मोह जाल में फंस कर नरक को गति को प्राप्त होता है। क्योंकि वह इस काल के प्रवल पराक्रम को नहीं जानता है । वह मन में दुख उठाकर भी सुख के लिये जिन-जिन कामों को करता है उन कर्मों को वह काल रूप प्रभू क्षण में नष्ट कर देता है। तब मनुष्य अनेक प्रकार से सोच में पड़ जाता है । कारण कि वह अपने आपको मोह जाल में फंसा कर ज्ञान को गवाकर अज्ञानी बन कर ससार में धन, खेत, कुटुम्ब अादि को स्थिर मान लेता है, और जिस जिस योनि में जाता है उसी में उसे वे अपने मान कर स्थिर मान बैठता है। यही कारण है कि मोह के वशीभूत हो वह इस क्षणिक झूठे वैभव को स्थिर और अपना मान कर अपने आप को बहुत बड़ा मान बैठता है । पश्चात ऐसा समझने पर ही वह अपने बंधुओं तथा कुटम्वीजनों के हित को आकांक्षा के कारण ही अनेक प्रकार के हिंसा आदि पाप कर्म करने लगता है । स्त्रियों के द्वारा उत्पन्न माया अर्थात् बालकों के प्रेम

श्रीमद भागवद पुराण ग्यारहवां अध्याय [स्कंध १] (निजजनों से स्तुति किये हुये श्रीकृष्ण भगवान द्वारका पहुंचे और अत्यन्त प्रसन्न भये)

श्रीमद भागवद पुराण ग्यारहवां अध्याय [स्कंध १] (निजजनों से स्तुति किये हुये श्रीकृष्ण भगवान द्वारका पहुंचे और अत्यन्त प्रसन्न भये) दोहा-द्वारावतिजसायकर, सुखी भये यदुराय। सो ग्यारहवें अध्याय में, कथा कही हर्षाय ।॥१९॥ सूतजी कहने लगे-हे ऋषिश्वरो ! वे श्री कृष्ण भगवान ने अच्छी तरह समृद्धि से बढ़े हुए अपने द्वारका के देशों को प्राप्त होकर अपने पाँच जन्य शंख को बजाया माना इन्ही से सब की पीड़ा को हरते हैं। फिर जगत के भयको दूर करने वाले उस शंख के शब्द को सुनकर अपने स्वामी के दर्शन की लालसा वाली सम्पूर्ण प्रजा सन्मुख आई । प्रसन्न मुख वाली होकर हर्ष से गद्-गद् वाणी सहित ऐसे बोलने लगी कि जैसे बालक अपने पिता से बोलते हैं। प्रजा के लोग स्तुति करने लगे कि-हे नाथ ! ब्रह्म और सनकादि ऋषियों से वंदिते के चरणार विन्दों को हम सदा प्रणाम करते हैं । हे विश्व के पालक ! तुम हमारा पालन करो तुमही माता सुहृद तथा तुमही पिता हो, तुमही परम गुरु और परम देव हो, हम बड़े सनाथ हो गये । हे कमल नयन ! जिस समय आप हम को त्याग हस्तिनापुर व मथुरा को पधारते हो तब हमको एक क्षण तुम्हारे बिना करोड़ों वर्ष समान व्यतीत होते है

शुकदेव जी का राजा परीक्षित को आत्मज्ञान देना।।

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श्रीमद भागवद पुराण महात्मय का उन्नीसवॉं आध्यय [स्कंध १] (परीक्षित का श्राप का समाचार सुन सब त्याग, गंगातट पर जाना और शुकादि मुनियों का आना) दो० सुरसरि तट अभिमन्यु सुत सुनो कथा जिमि जाय। सोइ चरित पुनीत यह उन्नीसवें अध्याय ॥ शुकदेव जी का राजा परीक्षित को आत्मज्ञान देना।।श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का उन्नीसवॉं आध्यय [स्कंध १] तदन्तर सूत जी कहने लगे कि-राजा परीक्षित को घर पहुंचकर, चेत हुआ कि हाय हाय ! मैंने कैसा नीच कर्म किया। वह ऋषि तो निष्पाप और गूढ़तेज है । हाय ! यह मैंने किया ही क्या ? उसके गले में सांप लपेटा । इस नीच कर्म से मुझको प्रतीत होता है कि कोई बड़ी विपत्ति मुझ पर आने वाली है सो मैं चाहता हूं, कि वह विपत्ति मुझ पर शीघ्र आजाय तो अच्छा है जिससे मुझको योग्य शिक्षा मिल जाय, और मैं फिर कोई ऐसा अपराध न करू । राजा इस तरह शोक सागर में निमग्न था, उधर शमीक ऋषि ने अपना गौरमुख नाम शिष्य राजा के पास भेजा कि मेरे पुत्र ने तुमको शाप दिया है, कि आजके सातवें दिन तुमको तक्षक डसेगा उसे, उसीसे तुम्हारी मृत्यु होगी। राजा इस वाक्य को सुनकर तक्षक की विषाग्नि को बहुत उत्तम समझने लगा, क्योंकि यह अग्नि

परीक्षित के श्राप की कथा ।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का अठारहवां आध्यय [स्कंध १] (परीक्षित का आखेट में तृषित होकर शमीक ऋषि के आश्रम में जाना, मरा सर्प ऋषि के गले में डालना, श्रंगी ऋषि का शाप देना) दो० दिये परीक्षित शाप जिमि मुनि सुत क्रोध बड़ाय । सो अठारहवं अध्याय में कथा भाषत प्रेम बढ़ाय।। सूतजी बोले यद्यपि कलियुग का प्रवेश होगया था परन्तु जब तक राजा परीक्षित का एक छत्र राज्य रहा तब कलि अपना किसी पर प्रभाव न कर सका। जिस दिन श्री कृष्ण इस पृथ्वी को त्याग गये उसी दिन से कलियुग ने पृथ्वी पर अपना डेरा जमा दिया। राजा परीक्षित भौरे की तरह सार वस्तु का ग्रहण करने वाला था, इसलिए इसने कलियुग से बैर बांधना उचित न समझा क्योंकि इस कलियुग में मनसा पुण्य तो होता है परन्तु पाप नहीं होता है किन्तु पाप करने से ही लगता है और पुण्य कर्म मनमें विचारने से हो जाता है । एक दिन ऐसा हुआ कि राजा परीक्षित धनुष बाण लेकर जङ्गल में आखेट को गये और मृगों के पीछे दौड़ते - दौड़ते भूख प्यास से बहुत ही व्याकुल हो गए। कहीं कोई ता लाब नदी कुआं आदि दृष्टि नहीं पड़ता था। ढूँढ़ते ढूँडते जगत प्रसिद्ध शमीक नाम ऋषि के आश्रम में पहुँचे और वहां शान्तस्वरू

राजा परीक्षित का वंश वर्णन।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का सोलहवॉं आध्यय [स्कंध १] (परीक्षित की दिग्विजय कथा) दोहा: विपिन परीक्षित जस लखे धर्म भूमि कलिकाल।। सो सोलहे अध्याय में वर्णों कथा विसाल ॥ ४॥ सूतजी कहने लगे-हे शौनक ! इसके पश्चात महाभक्त परीक्षित राज्य पाकर द्विजवरों की शिक्षा के अनुसार पृथ्वी का कार्य करने लगा, गद्दी पर बैठने के पीछे राजा परीक्षित ने उत्तर की बेटी इरावती से विवाह किया और इनके जन्मजय आदि चार पुत्र उत्पन्न हुए। फिर गङ्गा तट पर कृपाचार्य को गुरु बनाकर तीन बड़े अश्वमेध यज्ञ किये जिनमें ब्राह्मणों को गहरी दक्षिणा दी गयी थीं और मूर्ति में देवता आकर अपने भाग ले गये। एक समय राजा परीक्षित दिग्विजय के लिये बाहर निकला था।  राजा परीक्षित का कलयुग से सामना।। थोड़ी दूर जाकर क्या देखता है कि एक शूद्र राजा का वेश धारण किये हुए एक गौ और बैल को पांव की ऐड़ी से मारता चला आता है, इस चरित्र को देखकर राजा ने उसे पकड़ लिया। यह सुनकर शौनक पूछने लगे कि, राजा का वेश धारण किये हुए यह शूद्र कौन था जो गो और बैल को पाँवों से मारता था। हे महाभाग ! यदि यह बात श्री कृष्ण कथा के आश्रित हो तो हमसे कहना नहीं तो और व्यर्थ चर्च

अर्जुन कृष्णा प्रेम।। श्रीकृष्ण स्तुति।।

श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का पन्द्रहवां आध्यय [स्कंध १] अर्जुन से श्रीकृष्ण का गोलोक गमन सुन, कलियुग का प्रवेश हुआ जान परिक्षत को राज्य भार दे राजा युधिष्ठिर स्वर्ग को प्राप्त हुए दो:कलि आवन सुन जभ गये धर्मराज सुरधाम । पंचदशमी अध्याय सो भाखो कथ ललाम ||१५|| कैसे की श्रीकृष्ण भगवान ने पाण्डवों की रक्षा? सूजी कहते है - कि श्रीकृष्ण हैं सखा जिसके, ऐसा जो अर्जुन है वह कृष्ण बिरह से व्याकुल गदगद वाणी से बड़े भाई राजा युधिष्ठिर से ये बचन बोला। हे महाराज ! बन्धु रूप हरि से मैं ठगा जिसके ठगने से देवताओं को भी आश्चर्य दिखाने वाला मेरा महान तेज चला गया। जिसके क्षणमात्र के वियोग से यह सब लोक अप्रिय दीख पड़ते हैं कि जैसे प्राण के बिना यह शरीर मृतक कहलाता हैं। जिस कृष्ण के आश्रय से द्रौपदी के घर में स्वयंवर में आये हुए सब राजाओं का तेज को मैंने हर लिया, फिर धनुष को बढ़ाकर मत्स्य बींध दिया, द्रौपदी विवाही। और जिन श्रीकृष्ण के समीप रहने से मैंने अपने बल से देवगणों सहित इन्द्र को जीत कर अग्नि को भोजन करने के वास्ते खांडव वन दे दिया जिसकी कृपा से अद्भुत शिल्प- विद्या से रची हुई, मयकी बनाई हुई सभा मिली

युधिष्ठिर को कलयुग के लक्षण का आभास होना।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का चौदहवॉं आध्यय [स्कंध १] (युधिष्ठिर को अपशकुन होना अर्जुन का द्वारका से लौटकर आया) दो-सुन्यो युधिष्ठिर कृष्ण को श्री गोलोक निवास । चौदहवें अध्याय सोइ कौन्हों कथा प्रकाश ॥ १४ । सूतजी कहते हैं कि बन्धुजनों को देखने की इच्छा से और कुशल लाने के वास्ते अर्जुन द्वारका में गया हुआ था। तब सात महीने हो गये परन्तु अर्जुन नहीं आया और युधिष्ठिर को बड़े घोर भयंकर उत्पात दीखने लगे। काल की गति घोर देखी, ऋतुओं के धर्म विपरीत बन गये, मनुष्य को अत्यंत पाप की अजीवि का देखी। बहुत कपट का व्योहार , ठगपने से मिली हुई मित्रता और पिता, माता, सुहृद, भाई, स्त्री पुरुष, इन्हों की आपस में कलह इत्यादि अत्यन्त अशुभ कारण और मनुष्यों को लोभदिक अधर्म की प्रवृत्ति को देखकर, राजा युधिष्ठिर छोटे भाई भीमसेन, से ये बोले हे भाई द्वारका को गये अर्जुन अब तक नहीं आया इस बात को मैं कुछ भी नहीं समझता हूँ। हे भीमसेन ! मेरी बाई जाँघ, बाई आँख, बाई भुजा फड़कती है और बारम्बार मेरा हृदय काँपता है, इससे शीघ्र अशुभ फल होवेगा। यह गीदड़ी उदय होते हुए सूर्य के सम्मुख अपना मुख कर रोती है और मुख से अग्नि उगलती है

विदुर, धृतराष्ट्र, गान्धारी का हिमालय गमन से मोक्ष प्राप्ति की कथा।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का तेरहवॉं आध्यय [स्कंध १] सूतजी कहने लगे-विदुर जी तीर्थ यात्रा में विचरते हुए मैत्रैय जी से मिल के श्री कृष्ण चन्द्र की गति को जान के हस्तिनापुर में आये । विदुर जी ने मंत्री जी के आगे जितने प्रश्न किये उनमें से केवल दो चार प्रश्न के ही उत्तर मिलने से उनका सन्देह मिट गया। एक गोविन्द भगवान में भक्ति पाकर तिन प्रश्नों के उपराम को प्राप्त हो गये यानी उनसे पीछे अन्य कुछ पूछना बाकी न रहा फिर हस्तिनापुर में उस बन्धु विदुर को आये हुये देखकर अर्जुन आदि सब छोटे भाईयों सहित धर्म पुत्र युधिष्ठिर धृतराष्ट्र, युयुत्सु, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती, गान्धारी द्रोपदी, सुभद्रा उत्तरा, कृपी, यह सब और अन्य भी पाण्डु जाति के लोगों की भार्या और अनेक पुत्र सहित स्त्रियां, यह सब जैसे मृतक ने प्राण पाये हों तेसे विदुरजी के सन्मुख गये यह सब यथा योग्य विधि से विदुर जी से मिले। उस समय इनके नेत्रों से प्रेम आंसू गिरने लगे,फिर राजा युधिष्ठिर ने उनको आसन देकर पूजन किया। पीछे यह भोजन कर चुके तथा विश्राम करके बैठे तथा युधिष्ठिर ने कहा कि, जैसे पक्षी अत्यंत स्नेह से अपने बच्चों को आप भी याद करत

परीक्षित के जन्म की कथा।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का बारहवॉं आध्यय [स्कंध १] दोहा: अब द्वादश अध्याय में जन्म परीक्षित हेतु ।। वर्णों जो जग सुख दिये न्याय नेतिबनी सेतु ॥१२॥ शौनकजी बोले-अश्वत्थामा के चलाये हुए अत्यन्त तेज वाले ब्रह्मास्त्र से उत्तरा का गर्भ खंडन हुआ, फिर परमेश्वर श्री कृष्ण भगवान ने उसकी रक्षा की। उस महान बुद्धिमान परीक्षित के जन्म और कर्मों को हमारे आगे कहो और उसकी मृत्यु जैसे हुई व जिस प्रकार देह को त्यागकर परलोक में गया और जिसके वास्ते सुकदेवजी ने ज्ञान दिया, सो यह सब हम सुनना चाहते हैं सो हमको सुनाओ। सूतजी कहने लगे-श्रीकृष्ण के चरणाविंदौ की सेवा करके सम्पूर्ण कामनाओं की इच्छा से रहित हुआ युधिष्ठिर राजा अपने पिता की तरह प्रजा को प्रसन्न रखकर पालन करने लगा। हे शौनकादिकों ! उस समय युधिष्ठिर राजा की सम्पत्ति और यश देवताओं के भी मनको ललचाने लायक थे, परन्तु हे शौनकादि द्विजो! भगवान में मन रखने वाले उस राजा युधिष्ठिर को श्रीकृष्ण के बिना यह सब कुछ अधिक प्रीति देने वाले नहीं हुए। हे भृगुनन्दन! जब अपनी माता के गर्भ में वह शूरवीर बालक अस्त्र के तेज से जलने लगा तब उसने किसी पुरुष को देखा। वह अंगूठे

महाभारत समाप्ति के उपरान्त श्रीकृष्ण का द्वारिका गमन।।

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श्रीमदभागवदपुराण महात्मय अध्याय ११ [सकन्ध २] निजजनों से स्तुति किये हुये श्रीकृष्ण भगवान द्वारका पहुचे और अत्यन्त प्रसन्न भये दोहा-द्वारावति जस आयकर, सुखी भये यदुराय।। सो ग्यारह वें अध्यायमें कथा कही हर्षाय॥११॥ सूतजी कहने लगे-हे ऋषिश्वर! वे श्रीकृष्ण भगवान ने अच्छी तरह समृद्धि से बढ़े हुए अपने द्वारका के देशों को प्राप्त होकर अपने पाँच जन्य शंख को बजाया माना इन्हें की सब पीड़ा को हरते हैं। प्रजा का श्रीकृष्ण के प्रती समर्पण  श्रीकृष्ण स्तुति फिर जगत के भयको दूर करने वाले उस शंख के शब्द को सुनकर अपने स्वामी के दर्शन की लालसा वाली सम्पूर्ण प्रजा सन्मुख आई। प्रसन्न मुख वाली होकर हर्ष से गद्ग गद वाणी सहित ऐसे बोलने लगी कि जैसे बालक अपने पिता से बोलते हैं। प्रजा के लोग स्तुति करने लगे कि- हे नाथ ! ब्रह्म और सनकादि ऋषियों से वंदित आपके चरणार विन्दों को हम सदा प्रणाम करते हैं। हे विश्वके पालक! तुम हमारा पालन करो तुम्ही माता सुहृद तथा तुम ही पिता हो, तुमही परम गुरु और परम देव हो, हम बड़े सनाथ होगये। हे कमल नयन! जिस समय आप हम को त्याग हस्तिनापुर व मथुरा को पधारते हो तब हमको एक क्षण तुम्हारे बिन

श्री कृष्ण भगवान का सब कार्य करके हस्तिनापुर से चलना।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का दसवाँ आध्यय [स्कंध १] दोहा-गये कृष्ण निज धाम जस हस्तिनापुर में आय। सो दसवें अध्याप में कथा कही समझाय ।। १०॥ Yudhishthir ka mohaandh hona युधिष्ठिर का मोहांध होना।। Yudhishthir ka mohaandh hona युधिष्ठिर का राज्य शौनक जी बोले शस्त्र धारी दुर्योधन आदि सब राजाओं को मार कर धर्म धारियों में श्रेष्ठ बन्धुओं के बध के दुःख से संकुचित मन, और त्याग कर दिया भोगों का भोगना जिसने, वह छोटे भाई यों सहित राजा युधिष्ठिर राज्य करने में कैसे प्रवृत्त हुआ। और क्या करता भया, सो कहो। सूतजी कहने लगे जगत का पालन करने वाले ईश्वर श्री कृष्ण, कुरु वंश के क्रोध रूपी अग्नि से पांडवों के वंश का फिर, परीक्षित द्वारा अंकुर पैदा कर, युधिष्ठिर को राज्य पर बैठा के अति प्रसन्न हुए। फिर भीष्म जी के और श्री कृष्ण भगवान के कहे हुए वचनों को मानकर युधिष्ठर राजा ने छोटे भाईयों से सेवित हो समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का पालन ऐसे किया कि जैसे इन्द्र स्वर्ग का राज्य करता हैं। उस समय मेघ मन चाही वर्षा करता था, और पृथ्वी सबकी कामनापूर्ण करती थी, और बड़ी थन वाली गायें मोद से गौशालाओं को दूध से सीचने लगीं। नदी

युधिष्ठिर का भीष्म पितामह से सब धर्मों का सुनना।।

श्रीमद भागवद  पुराण महात्मय का नवम आध्यय [स्कंध १] दोहा-धर्म विनम जर धर्म कृम, भाष्यों भीष्म उचार।। सो नवमे अध्याय में वरण विविध प्रकार।। युधिष्ठिर को मोह-अज्ञान होना सूतजी कहते हैं-इस प्रकार प्रजा के द्रोह जनित पाप से भयभीत हुए सब धर्म को जानने की इच्छा करते हुए राजा युधिष्ठिर, भीष्म पितामह, जहां, बाणों की छैया में पड़े हुए थे, तहाँ कुरुक्षेत्र में गये। तब अर्जुन आदि सब भाई भी सुवण के आभूषणों से शोभित सुन्दर घोड़े जिनमें जुड़े ऐसे रथों पर चढ़कर तिनके पीछे-पीछे वेदव्यास व धौम्य आदि ब्राह्मण लोग भी रथों में सवार होकर उनके साथ साथ चले। हे शौनक! को साथ लेकर श्रीकृष्ण भगवान भी रथ में बैठकर चले। फिर उन तीनों सहित वह युधिष्ठिर राजा ऐसे शोभित होते भये कि जैसे यज्ञों सहित कुबेर शोभित होता है। फिर तहाँ कुरुक्षेत्र में मानों आकाश से छूटकर कोई देव पड़ा हो, ऐसे भूमि में पड़े हुए भीष्म पितामह जी को देखकर सब पाण्डव, श्रीकृष्ण चंद और मृत्यु लोगों ने भी प्रणाम किया । वहाँ सब देव ऋषि, बरह्मश्षि और राज ऋषि (उत्तम राजा लोग) भीष्म जी के दर्शन करने आये। पार्वत, नारद, धौम्य, वेदव्यास भगवान बृहदश्व, पयार द्

अश्वत्थामा का ब्रह्म अस्त्र छोड़ना।परीक्षित राजा के जन्म कर्म और मुक्ति की कथा।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का आठवाँ आध्यय [स्कंध १] दोहा-कहयो व्यास सों जन्म को नारद जी से हाल।। सोई षट् अध्याय में वर्णी कथा रासल।। सूतजी कहने लगे-इसके अनन्तर वे पांडव मरे हुए पुत्रों को तिलांजलि देने के वास्ते, द्रोपदी आदि स्त्रियों को आगे करके गङ्गाजीके तट पर गये तथा बारम्बार नहाये। फिर वहाँ छोटे भीमादिकों के सहित बैठे हुये राजा युधिष्ठिर, धृतराष्ट्र और पुत्रों के शोक से दुखी हुई गान्धारी, कुन्ती, द्रोपदी, इन सबों को मुनि जनों सहित श्रीकृष्ण सान्त्वना देने लगे, और जिन धूर्त दुर्योधन अदिकों ने युधिष्ठिर का राज्य हर लिया था, जो दुर्योधन आदि दुष्ट द्रोपदी के केश पकड़ने से नष्ट आयु वाले हो रहे थे, उन सबों को मरवा कर और जिसके कोई शत्रु न रहा ऐसे युधिष्ठिर का राज्य स्थापित करके फिर बहुत विस्तार वाले तीन अश्वमेध यज्ञों को करवा के श्रीकृष्ण भगवान ने उस युधिष्ठिर के पवित्र यश को इन्द्र के यश की तरह सब दिशाओं में फैलाया । फिर पाण्डवों से विदा माँग कर सात्यकी और उद्धव सहित श्रीकृष्ण रथ में बैठकर द्वारका को जाने की तैयारी करने लगे। हे ब्रह्मन्? अश्वत्थामा का बृह्माआस्तृ छोड़ना और श्रीकृष्ण द्वार

परीक्षित राजा के जन्म कर्म और मुक्ति की कथा।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का सप्तम आध्यय [स्कंध १] (परीक्षित जन्म कथा) दो:अवस्थामा जिमि हने सोवत द्रोपदी लाल। सो सप्तम अध्याय में वर्णों चरित्र रसाल ।७। शौनक जी पूछने लगे कि हे सूतजी! इस प्रकार नारद मुनि के अभिप्राय को सुनने वाले वेदव्यास ने नारद मुनि के गये पीछे क्या किया? सूतजी बोले-हे ऋषीश्वरो! सरस्वती नदी के पश्चिमतटपर आश्रम था उसको शम्याप्रास कहते हैं वह ऋषि लोगों के यज्ञ को बढ़ाने वाला है। उस आश्रम में तपोमूर्ति वेद व्यास अपने मन को स्थिर करके नारदजी के उपदेश का ज्ञान करने लगे। भक्ति योग करके अच्छे निर्मल हुए निश्चय मन में पहले तो परमेश्वर को देखा फिर तिन्हों के अधीन रहने वाली माया को देखा। श्रीपरमेश्वर की भक्ति करना यही साक्षात अनर्थ शान्त होने का उपाय है। इसके नहीं जानने वाले मनुष्यों के कल्याण करने वाले विद्वान् वेदव्यास जी ने भागवत संहिता सुनना आरंभ किया। जिस भागवत संहिता के सुनने से सन्सरि जिवों के शोक, वृद्धावस्था दूर होते हैं। उसे वेद व्यास जी ने आत्मज्ञानी शुकदेवजी को पढ़ाया।सूतजी कहने लगे, हे! ऋषिवरों जो कि आत्माराम मुनि हैं, वे किसी ग्रन्थ को पढ़ने की इष्छा

नारद द्वारा हरि कीर्तन को श्रेस्ठ बतलाकार वेद व्यास के शोक को दूर करना।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का पंचम आध्यय [स्कंध १] दोहा-जेहि विधि बखो व्यसो नारद कथा उचार। सो पंचम अध्याय में वर्णी कथा अपार ।। नारद द्वारा वेद व्यास जी को ज्ञानोप्देश सूतजी कहने लगे कि हे शौनक! श्रीवेदव्यासजी को खिन्न मन देखकर नारदमुनि बोले-हे महाभाग! तुम आज कोई सोच करते हुए मालूम होते हो सो ये बात क्या है, हमसे कहो।व्यासजी बोले-महाराज ? मैने चारों वेद तथा पुराण बनाये, मेरे मन में सन्तोष नहीं हुआ है। आप ब्रह्माजी के पुत्र और गम्भीरबोध बाले हो इसलिये मेरा सन्देह दूर कीजिये। नारदजी बोले-हे वेदव्यासजी! तुमने जैसे विस्तार पूर्वक धर्म आदिकों का वर्णनकिया तैसे मुख्य भाव करके विष्णु भगवान की महिमा नहीं गायी, भक्ति बिना सब शास्त्र वचन की चतुराई मात्र ही हैं।वहीं कर्मों की रचना मनुष्यों के पापों को नष्ट करनेवाली होती है कि जिसमें श्लोक-श्लोक में चाहे सुन्दर पद भी न होवे परन्तु अनन्तभगवान के यज्ञ से चिन्हित हुए नाम हो ! उन्हीं काव्यों को साधुजन बक्ता मिलने से सुनते हैं, श्रोता मिलने से गाते हैं, नहीं तो आपही उच्चारण करते हैं। हे महाभाग ! आप परमेश्वर केगुणानुवाद व लीलाओं को अखिल जगत के बन्ध