युधिष्ठिर का भीष्म पितामह से सब धर्मों का सुनना।।
श्रीमद भागवद पुराण महात्मय का नवम आध्यय [स्कंध १]
दोहा-धर्म विनम जर धर्म कृम, भाष्यों भीष्म उचार।।
सो नवमे अध्याय में वरण विविध प्रकार।।
युधिष्ठिर को मोह-अज्ञान होना
वाले भीष्म पितामह के अवसर के अनुकूल सादर मीठी वाणी सबका आदर किया और कहने लगे-
भीष्म पितामह से श्रीकृष्ण की स्तुति
है धर्म-नंदन ! बड़े ही शोक की बात है कि तुम वृथा ही कष्ट मानकर जीते हो, सो तुम कष्ट पाने के योग्य नहीं हो और यह बड़ा अन्याय है, कि जिनको ब्राह्मण, धर्म,श्री कृष्ण भगवान इन्हीं का आश्रय है, ऐसे तुम दुःख मानते हो। अत्यन्त शूरवीर पांडु मर गये तब पीछे जिसके बालक अनाथ रह गये ऐसे बिचारी कुन्ती वधू ने जो तुम्हारे निमित्त बारम्बार अनेक दुख भोगे है इन सम्पूर्ण बातों को मैं काल के आधीन ही मानता हूँ। इसी काल ने तुमको दुःख दिया है, क्योंकि इस काल के वश में लोकपाल सहित सब लोक हैं कि जैसे कि वायु के आधीन बादलों की घटा रहती है। हे राजन! यह कृष्ण भगवान क्या चाहते हैं इस बातको कोई पुरुष नहीं जान सकता है। इसके कर्तव्य को जानने को इच्छा करने वाले बड़े बड़े पंडित लोग भी मोहित हो जाते है। यह श्रीकृष्ण के आद्य पुरुष साक्षात् नारायण है सो अपनी माया करके लोक को मोहित करते हुए यादवों में गुप्त हुए विचरते है! हे नृप! इस श्रीकृष्ण केअति गुह्य अनुभव प्रभाव को भगवान महा देवजी तथा देवऋषि नारद और साक्षात कपिल भगवान जानते हैं। इन्हें मामा का बेटा, भाई प्रिय मित्र सुहृद ही जानते हो और अपना मंत्री सारथी बनाते रहे हो । श्रीकृष्ण की एकांत भक्तों पर दया दृष्टि को देखो कि जो प्राण त्यागते हुए मुझको दर्शन देने के वास्ते साक्षात यहाँ आये हैं। सो श्रीकृष्ण भगवान जब तक मैं इस शरीर को त्यागू तब तक यहाँ मेरी दृष्टि के आगे इस ही जगह विराजमान हैं। सूतजी कहने लगे-हे विप्रो, उस समय राजा युधिष्ठिर ऐसे अनुग्रह युक्त वचनोंको सुनकर शरशैया पर सोते हुए भीष्म पितामह से सब ऋषियों के सुनते हुए अनेक धर्मों को पूछने लगे। क्या क्या धर्म पूछे हैं सो कहते हैं । मनुष्य जाति से विदित साधारण धर्म, तथा वर्णों के और आश्रमों के जुदे जुदे धर्म, सकाम धर्म, दान, धर्म, राजाओं के धर्म, शम, दम आदि मोक्ष धर्म, स्त्रियों के धर्म, अर्थ काम, हरिताषण आदि भगवद्ध में और उपाय सहित धर्म, अर्थ काम, मोक्ष सम्पूर्ण धर्मों की कही, कहीं संक्षेप से, और कहीं विस्तार पूर्वक अनेक कथा, व अनेक इतिहासों के तत्ववेता भीष्म जी महाराज कहने लगे। इस प्रकार धर्म का वर्णन करते हुए भीष्म जी का वह समय आगया कि जो स्वेच्छा पूर्वक मृत्यु हान वाले योगीजनों को उत्तरायण काल वांछित कहा है तब रण में हजार शूरवीरों की रक्षा करने वाले भीष्म जी ने अपनी जबान को बन्दकर मनको एकान कर नेत्रोंको खोले हुए ही, सुशोभित पीताम्बर धारी, चतुर्भुज स्वरूप सम्मुख बैठे हुए आदि पुरुष श्रीकृष्ण भगवान को अपने मन में धारण करके जिसका शीघ्र ही सम्पूर्ण शास्त्र लगने का खेद दूर होगया है ऐसे श्री भीष्म पितामह जी ने अपने शरीर को छोड़ते हुए जनार्द भगवान की स्तुति की। अब श्री भीष्म स्तुति करते हैं--- हे!यादवों में श्रेष्ठ, लीला करने के वास्ते जन्म मरण को अंगीकार करने वाले ऐसे जो श्रीकृष्ण भगवान हैं तिनमें तृष्णा रहित बुद्धि मन समर्पण करता हूँ। त्रिलोकी में अत्यन्त सुन्दर तमाल पत्र के समान श्याम स्वरूप, सूर्य की किरणोंके समान उत्तम तेज युक्त, पीताम्बर धारण करने वाले, अकलावली से शोभित मुख कमल करके विराजमान शरीर वाले, अर्जुन के सखा, ऐसे श्रीकृष्ण भगवान जी से मेरी अखण्ड प्रीत रहे । युद्ध में घोड़ों के खुरों से उड़ी हुई धूल से घूसर बाल और मुख पर पसीने के बिन्दु शोभित होरहे हैं, तथा मेरे बाणों से जिनका कक्षा खंडित होकर त्वचा खण्डित होगई है, ऐसे श्री कृष्ण भगवान विषे मेरा मन रमण करे। जो भगवान शीघ्र ही अपने सखा अर्जुन के वचन को सुनकर दोनों सेनाओंके बीच में विशाल रथको खड़ा करके शत्रुओं की आयुको अपनी दृष्टि से हरते हुए, और व्यूह रचना से दूर स्थिर हुई सेनाके आगे मोचो पर खड़े हुए बन्धु बान्धवों के मोह से जब अर्जुन युद्ध करनेसे विमुख होगया उस समयमें जिन्होंने अर्जुन की कुमति ब्रह्म विद्या करके दूर की, उन परमेश्वर श्रीकृष्ण के चरणों में मेरी प्रीति रहे।जो भगवान, अपनी प्रतिज्ञा को, अर्थात् मैं शस्त्र धारण नहीं करूंगा, इस बात को त्यागकर मेरी प्रतिज्ञा जो मैंने की थी कि श्रीकृष्णको मैं शस्त्र धारण करा दूंगा, इसको बड़ी (सच्ची) करने के वास्ते रथ से नीचे ऐसे चले उतर रथ के पहिये को हाथ में धारण कर मेरे सन्मुख कि जैसे हस्ति को मारने को सिंह आया हो, उस समय कोप से शरीर का अनुसन्धान न रहने से पीताम्बर गिर गया था और धनुषधारी जो मैं उस मेरे पैने बाणों के लगने से जिनका कवच टूट गया व रुधिर शरीरसे बहता था, ऐसे जो श्री कृष्ण भगवान उनमें मेरी प्रीत रहे।
अर्जुन का कुटुम्ब रूपी रथ अर्थात् कुटुम्बकी सी रक्षा करते हुए रथ के घोड़े हाँकने वाले चाबुक में हाथ ले रखा है, और घोड़े की बागें पकड़ रहे हैं, ऐसे स्वरूप को देखकर भगवान में मुझे मरने की इच्छा वाले की रुचि बढ़े। जिसकी ललित गति, रास आदि बिलास, मनोहर हास्य आदि से मन्दान्ध हुई गोपियां जिस श्रीकृष्ण के ही स्वरूपको प्राप्त होगई, तिसमें मेरी गति हो। जिस समय युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में अनेक मुनिवर और राजा लोग प्राप्त भये उस राजसूययज्ञ में सबोंके मध्य जिसने अग्रपूजा पाई,ऐसे श्रीकृष्ण भगवान मेरे नेत्रों के आगे विराजमान हैं, इसलिये मेरा बड़ा भाग्य है। सूतजी कहने लगे-फिर भीष्म ने श्रीकृष्ण भगवान में इस प्रकार अपनी मन-वाणी दृष्टि उनकी वृत्ति लगाकर परमात्मा में मन को प्रवेश कर, अपने भीतर ही श्वास को रोककर, उपरामको प्राप्त होगये यानी शरीर को छोड़कर परब्रह्म में लीन हो गये भीष्म जी को उपाधि रहित ब्रह्म में लोन हुआ जानकर वे सब जन सन्ध्या समय में पक्षी चुपचाप हो जाते हैं ऐसे चुप हो गये। उस समय वहाँ आकाश और भूमि में देवता और मनुष्यों से बजाये हुए नगाड़ेबजने लगे, और जो राजाओं में श्रेष्ठ राजा थे वे प्रशंसा करने लगे । आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। हे शौनक! भीष्म जी का दाह संस्कार आदि क्रिया कराकर राजा युधिष्ठिर एक मुहूर्त दुखी हो गये और प्रसन्न हुए मुनिजन श्रीकृष्ण महाराज की स्तुति उनके गुप्त नामों से करने लगे। फिर महाराज युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण सहित हस्तिनापुर में जाय कर पिता धृतराष्ट्र और तपस्विनी गांधारी को घोर सांत्वना दी। फिर वह राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा पाकर, श्री कृष्ण भगवान की सहमति से अपने पिता आदिकों का राज्य करने लगे।
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