Posts

Showing posts with the label bhagwadshlok

श्रीमद भागवद पुराण अध्याय १३ स्कंध[४]। राजा पृथू का जनम।।

Image
विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण] श्रीमद भागवद पुराण [introduction] •  श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण] श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १] •  श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २] •  श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३] श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४] श्रीमद भागवद पुराण * तेरहवां अध्याय * स्कंध[४] (राज अंग का वृतांत) दो: ध्रुव नृप के वंशज भये,अंग नाम भूपाल। तेरहवें अध्याय में,कहें उन्ही का हाल। श्री शुकदेव जी बोले-हे भारत ! इस प्रकार ध्रुव का देव लोक आदि में होते हुए ध्रुव पद को प्राप्त होने के बाद मैत्रेयजी कहने लगे-हे विदुर! अपने पिता ध्रुव से राज्य पाने के पश्चात उत्कल की धारणा बदल गई थी जिसमें वह पिता के दिये राज्य तथा चक्रवर्तीपन तथा राज्य लक्ष्मी और सिंहासन की इच्छा नहीं करता था। क्योंकि वह आत्मज्ञानी होने के कारण भगवान को अर्थात् परमात्मा को सभी आत्माओं में विद्यमान देखता था अतः राज्य के मंत्रियों आदि ने उसे पागल (उन्मत्त) जान कर राज्य सिंहासन से हटाकर उसके स्थान पर उसके छोटे भाई राम के पुत्र वत्सर को राजा बना दिया। उस वत्सर ने अपनी भार्या स्वर्वीथि में छः पुत्र उत्पन्न किये, जिनके, १-पुष्परण, २ तिग्मकेतु, ३

श्रीमद भागवद पुराण सातवां अध्याय[स्कंध ४]।।प्रजापति दक्ष की कथा।।

Image
  श्रीमद भागवद पुराण सातवां अध्याय[स्कंध ४] (दक्ष का यज्ञ विष्णु द्वारा सम्पादन) दोा-जैसे दिया विष्णु ने दक्ष यज्ञ करवाई। सो सप्तम अध्याय में वर्णी कथा बनाय।। श्री शुकदेव जी कहने लगे-हे परीक्षित ! विदुर जी से मेत्रैय ऋषि बोले कि, हे विदुर! जब शिवजी से ब्रह्मा जी ने इस प्रकार कहा तो भगवान शंकर जी ने कहा- हे ब्रह्माजी! सुनिये ! मैं उन बाल बुद्धियों के अपराध को न तो कुछ कहता हूँ और न कुछ चिन्ता करता हूँ। क्योंकि वे अज्ञानी पुरुष ईश्वर की माया से मोहित रहते हैं। अतः इसी कारण मैंने इन लोगों को उचित दण्ड दिया है। आप चाहें कि दक्ष का यही शिर फिर से हो जावे तो वह किसी प्रकार नहीं हो सकेगा । क्योंकि दक्ष का वह शिर तो यज्ञ की अग्नि में जल गया हैं। अतः ऐसा हो सकता है कि दक्ष का मुख बकरे का लगा दिया जाय । तथा भगदेवता के नेत्रों की कहते हो कि वह फिर होवें सो वह भी नहीं होगा, अतः इसके लिये यह है कि भगदेवता अपने भाग को मित्र देवता के नेत्रों से देखा करे। अब रही पूषा देवता के दाँतों की सो वह यजमान के दाँतों से पिसा हुआ अन्न भोजन किया फरें। अब उस यज्ञ में पत्थरों अथवा अस्त्र-शस्त्रों से जिन लोगों के

राजा परीक्षित का कलयुग को अभय देना।। कलयुग के निवास स्थान।।

Image
  परीक्षित का भूमि और धर्म को आश्वासन और कलियुग के वास-स्थान का निरूपण।। श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का सत्रहवां आध्यय [स्कंध १] दो० क्यो परीक्षित नृपति जस निग्रह कलियुग राज ।  सोइ सत्रहवे अध्याय में कथा वर्णी सुख लाज ।। १७।।                  Kalyug and raja parikshit conversation  सूतजी कहने लगे कि, वहाँ उस सरस्वती के तट पर राजा परीक्षित ने गौ और बैल को अनाथ की तरह पिटते हुये देखा और उसके पास खड़े हुए हाथ में लठ लिये एक शूद्र को देखा जो राजाओं का सा वेष किरीट मुकुट आदि धारण किये था। वह बैल कमलनाथ के समान श्वेत वर्ण था और डर के मारे बार-बार गोबर और मूत्र करता था और शूद्र को ताड़ना के भय से कांपता हुआ एक पाँव से चलने को घिसटता था। सम्पूर्ण धर्म कार्यों के संपादन करने वाली गौ को, शूद्र के पाँवों की ताड़ना से बड़ी व्यथित देखी। बछड़े से हीन उस गौ के मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी और वह घास चरने की इच्छा करती थी। यह दशा देखकर राजा ने बाण चढा कर मेघ की सी गम्भीर वाणी से ललकार कर कहा-हे अधर्मी तू कौन है जो मेरे होते हुए, अन्याय से इन निर्बलों को मारता है, तूने बहरूपियों की तरह राजाओं का सा स्

श्रीमद भागवद पुराण ग्यारहवां अध्याय [स्कंध १] (निजजनों से स्तुति किये हुये श्रीकृष्ण भगवान द्वारका पहुंचे और अत्यन्त प्रसन्न भये)

श्रीमद भागवद पुराण ग्यारहवां अध्याय [स्कंध १] (निजजनों से स्तुति किये हुये श्रीकृष्ण भगवान द्वारका पहुंचे और अत्यन्त प्रसन्न भये) दोहा-द्वारावतिजसायकर, सुखी भये यदुराय। सो ग्यारहवें अध्याय में, कथा कही हर्षाय ।॥१९॥ सूतजी कहने लगे-हे ऋषिश्वरो ! वे श्री कृष्ण भगवान ने अच्छी तरह समृद्धि से बढ़े हुए अपने द्वारका के देशों को प्राप्त होकर अपने पाँच जन्य शंख को बजाया माना इन्ही से सब की पीड़ा को हरते हैं। फिर जगत के भयको दूर करने वाले उस शंख के शब्द को सुनकर अपने स्वामी के दर्शन की लालसा वाली सम्पूर्ण प्रजा सन्मुख आई । प्रसन्न मुख वाली होकर हर्ष से गद्-गद् वाणी सहित ऐसे बोलने लगी कि जैसे बालक अपने पिता से बोलते हैं। प्रजा के लोग स्तुति करने लगे कि-हे नाथ ! ब्रह्म और सनकादि ऋषियों से वंदिते के चरणार विन्दों को हम सदा प्रणाम करते हैं । हे विश्व के पालक ! तुम हमारा पालन करो तुमही माता सुहृद तथा तुमही पिता हो, तुमही परम गुरु और परम देव हो, हम बड़े सनाथ हो गये । हे कमल नयन ! जिस समय आप हम को त्याग हस्तिनापुर व मथुरा को पधारते हो तब हमको एक क्षण तुम्हारे बिना करोड़ों वर्ष समान व्यतीत होते है

राजा मनु का पूर्ण चरित्र व वंश वर्णन। मनु पुत्री का कदर्म ऋषि संग विवाह।।

 श्रीमद भागवद पुराण बाईसवां अध्याय [स्कंध३] देवहूति का कदमजी के साथ विवाह होना दोहा-ज्यों कदम को देवहूति ने मनु को दी सौंपाय। बाईसवे अध्याय में कथा कही दर्शाय ॥ श्री शुकदेव जी बोले-हे परीक्षित ! इस प्रकार विदुर जी को कथा प्रसंग सुनाते हुए मेत्रेय जी बोले हे विदुर जी ! जब कर्दम जी के सम्पूर्ण गुणों को प्रसंसा करते हुये आने का प्रयोजन जानने को कहा तो मनु जी बोले हे मुनि आपके दर्शन को हमारे संपूर्ण सन्देह दूर हो गये, मैं इस अपनी कन्या के प्रेम विवश अति किलष्ट चित्त और दीन हूँ, सो आप मुझ दीन की प्रार्थना कृपा करके ध्यान पूर्वक सुनिये। यह हमारी देवहूति नामक कन्या जो कि हमारे पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपाद की बहन है, सो अवस्था, शील, आदि गुणों से युक्त है। सो यह आपके ही समान गुण वाले पति की अभिलाषा करती है। इस कन्या ने जब से नारदमुनि के मुख से आपके गुण, रूप, शील तथा अवस्था की प्रसंसा सुनी है तब से इसने अपने मन से आपको अपना पति बनाने का निश्चय कर लिया है । सो हे प्रियवर ! मैं अपनी इस 1. कन्या को आपकोश्रद्धा पूर्वक समर्पण करता हूँ । हे विद्वान मैंने यह सुना था कि आप अपने विवाह का उद्योग कर रहे ह

सनकादिक मुनियों द्वारा जय विजय के श्राप की कथा एवं उधार।

 श्रीमद भागवद पुराण पंद्रहवाँ अध्याय [स्कंध ३] (भगवान विष्णु के दो पार्षदों को ब्राम्हण द्वारा श्राप देना) दोहा-विष्णु पार्षदो को दिया, ज्यो विप्रो ने श्राप । तिहि पन्द्रह अध्याय में बरण असुर प्रताप ।। श्री शुकदेवजी कहने लगे हे परीक्षत ! महामुनि मैत्रेयजी ने विदुरजी से कहा हे विदुरजी ! देवताओं को पीड़ा पहुँचाने की शंका से दिति ने कश्यपजी के वीर्य से धारण किये अपने कर्म को सौ वर्ष तक धारण किया। तब उस गर्भ के तेज से सब लोक निस्तेज हुए जिसे देखकर सब लोकपालों ने व्रम्हाजी से उस अन्धकार से लोकों को मुक्त करने के लिये निवेदन किया। वे इस प्रकार प्रार्थना कर बोले हे प्रभो ! आप इस अन्धकार के ज्ञाता हैं इसी के कारण हम सब अत्यन्त भयभीत हैं। हे सर्वज्ञ हम लोगों को सुखी करने की दृष्टि से आप इस अन्धकार का निवारण कीजिये। तत्पश्चात देवताओं द्वारा अनेक भाँति अपनी स्तुति सुनकर हंस के सदृश्य वाणी से वृम्हाजी ने कहा हे देवताओ! एक बार हमारे मनसे उत्पन्न हमारे श्रेष्ठ पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन, सनतकुमार, यह चारौ सर्वदा निष्काम विचरण करते हुये आकाश मार्ग से भगवान विष्णु के बैकुण्ठ लोक में पहुंचे। मैत्रे यजी व

वाराह अवतार।श्रीमद भागवदपुराण* तेरहवाँ अध्याय * [स्कंध३]

 श्रीमद भागवदपुराण* तेरहवाँ अध्याय * [स्कंध३] (भगवान का बाराह अवतार वर्णन) दो० वृम्हा जी की नासिका, भये वारह अवतार । तेरहवें अध्याय में वरणो कथा उचार ।। श्री शुकदेवजी बोले हे परीक्षत ! मैत्रेयजी ने विदुरजी से इस प्रकार कहा जब स्वयंभुव मनु उत्पन्न हुये और साथ ही शत रूपा नाम पत्नी भी हुई तो वृम्हाजी ने प्रजा उत्पन्न करने की आज्ञा दी। तिस पर स्वयंभुव मनु ने वृम्हाजी से हाथ जोड़कर कहा हे पिता! मैं आपकी आज्ञा को शिरोधार्य करके नमस्कार करता हूँ। मैं आपकी आज्ञानुसार प्रजा उत्पन्न करुगा परन्तु आप उस उत्पन्न होने वाली प्रजा के लिये स्थान बताइये कि बह कहाँ पर निवास करेगी। हे पिता! जो पृथ्वी सब जीवों के निवास मात्र थी सो वह महासागर के जल में डूब गई है सो आप उस डूबी हुई पृथ्वी के उद्धार का उपाय करो। स्वयं भुव मनु द्वारा कहने पर वृह्मा जी को पृथ्वी के उद्धार को चिन्ता हुई कि वह किस प्रकार पथ्वी का उद्धार कर पावेंगे। इसी चिन्ता में वृह्मा जी को बहुत काल व्यतीत हो गया परन्तु ऐसी कोई युक्ती न दिखाई दी कि जिससे पृथ्वी का जल से उद्वार किया जा सके। जब वह इस चिन्ता में निमग्न थे तब ब्रह्मा जी की नासिका से

युग, काल एवं घड़ी, मुहूर्त, आदि की व्याख्या।।

Image
 श्रीमद भागवद पुराण अध्याय ११ [स्कंध ३] (मनवन्तर आदि के समय का परमाण वर्णन) दोहा-काल प्रमाण परणाम लहि, जा विधि कहयो सुनाय । ग्यारहवें अध्याय में सकल कहयो समझाय।। परिमाणु,अणु, त्रिसरेणु, त्रुटि, वेध, लव, निमेष, क्षण,काष्ठा, लघुता, घड़ी, दण्ड, मुहूर्त,याम, पहर, दिन, पक्ष,अयन, वर्ष, सतयुग, द्वापर, त्रेता, कलयुग, की अवधि एवं व्याख्या। श्री शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा हे परीक्षित! विदुरजी को समझाते हुये श्री मैत्रेयजी ने इस प्रकार कहा हे बिदुरजी जिससे सूक्ष्म अन्य कोई वस्तु नहीं है वह परिमाणु कहा जाता है। इसी प्रकार सूक्ष स्थूल रूप से काल का अनुमान किया है। दो परिमाणओं को मिलाकर एक अणु होता हैं । तीन अणुओं के संगृह को एक त्रिसरेणु कहते है। यह त्रिसरेणु वह होता है, जो झरोखे में से आती हुई सूर्य की किरणों के साथ महीन-महीन कण जैसे उड़ते हुये दिखाई पड़ते हैं। इन तीन त्रिसरेणु को एक त्रुटी होती हैं अर्थात् एक चुटकी बजाने के बराबर जानना चाहिये। और त्रुटी का एक वेध होता है, और तीन वेधों के बराबर एक लव होता है, तथा तीन लव का एक निमेष जानना चाहिये,तीन निमेष का एक क्षण कहा जाता है तथा पाँच क्षण

सर्ग-विसर्ग द्वारा सृष्टि निर्माण एवं व्याख्या।।

Image
श्रीमद भागवद पुराण अध्याय १० [स्कंध३] सर्ग की व्याख्या हिन्दू धर्म में सर्ग, उन कोशिकाओं (cell) को कहा गया है, जिन जोड़कर  विश्वा का, प्रजा का, मनुष्यआदि जीवों की उत्त्पत्ति हुई। विभिन्न प्रकार के कोशिकाओं से विभिन्न जीव उत्त्पन हुए। इसी तरह, विभिन्न प्रकृति, विभिन्न बुद्धि, विभीन्न आकृति, और विभिन्न लोकों का भी निर्माण हुआ। आम भाषा में cell को सर्ग कहा गया है। _人人人人人人_अध्याय  आरम्भ_人人人人人人_ सृष्टि की वन्स विधि वर्णन दोहा-सृष्टि रचना जिस तरह, बृह्मा करी बनाय । सो दसवें अध्याय में वर्णी सहित उपाय || श्री  शुकदेवजी बोले हे परीक्षत बिष्णु और वृह्मा का यह प्रसंग कहने के पश्चात मैत्रेय जी ने विदुर जी से इस प्रकार कहा - हे विदुर जी! वृह्मा जी ने फिर दिव्य सौ वर्ष तक मन लगा कर घोर तप किया। भगवत इच्छा से कर्म प्रेरित किये वृम्हा ने उस कमल परस्थित कमल नाल का त्रिलोकी रूप तथा चौदह भुवन रूप और अन्य प्रकार से विभाग किया। प्रथम वृम्हा जी ने काल की रचना की फिर उसी काल को निमित्त कर के परमात्मा को आत्मा को ही लीलामय करके विश्व रूप की रचना की । यह विश्व का नौ प्रकार का सर्ग है, जिसके दो प्रकार हैं प्राक

बृम्हा जी द्वारा भगवान विष्णु का हृदय मर्म स्तवन।।

Image
 श्रीमद भागवद पुराण अध्याय ९ [स्कंध३] (बृम्हा जी द्वारा भगवान का स्तवन) दो०-विष्नू की स्तुति करी, बृम्हा खूब बनाय । या नौवे अध्याय में कहते चरित्र सुनाय ॥ श्री शुकदेव जी कहने लगे-हे परीक्षत ! जब वृह्मा जी ने भगवान नारायण का तप किया और शया पर दर्शन किया तो स्तुति कर कहा-हे प्रभु बहुत काल तक आपका मैंने तप किया अाज अापको मैंने जाना है हे भगवान ! आपके इस मन भावन स्वरूप से पृथक और कुछ भी नहीं है। जो कुछ और है, वह भी शुद्ध नहीं है क्योंकि संपूर्ण संसार में आपको अपनी माया के विकार से युक्त होकर आप ही अनेकानेक रूप में भाषित होते हो हे प्रभु! जो यह आपका विकल्प रहित आनंद मात्र सदा तेजोमय जगत का उत्पन्न कर्ता विश्व से भिन्न अद्वितीय तथा महा भूत इंद्रियों का कारण आपका रूप है उस से परे और कुछ भी नहीं है अंतः मैं आपकी शरण हूँ। आपने मुझ जैसे उपाशकों की मंगल के अर्थ ध्यान में चौदह भुवन का मंगल दायक चिदा नंद स्वरूप का दर्शन दिया है हे मङ्गल रूप भुवन ! हे स्तुति योग्य ! हे सम्पूर्ण संसार के सुहद! आपने त्रिलोकी रचने वालों में मुझे अपनी कृपा से अपनी नाभि कमल से प्रकट किया, एक आत्म तत्व आप सत्वादि गुण रूप

विधुर निति क्या है? कब कही ग्यी थी विदुर नीति?

Image
  ।। श्री गणेशाय नमः ।। सुख सागर * तृतीय स्कंध प्रारम्भ * मंगला चरण दोहा-ब्रह्मा अनादि अखण्ड प्रभू, निर्गुण प्रभु जग ईश। विघ्न विनासक सुख सदन, तुम पद नाऊँ शीश ॥ असरण सरण कृपाल हरि, सङ्कट हरण भुवाल । ज्ञान मुक्ति दे भक्त को, क्षण में करत निहाल ।। हरि चरित्र महिमा अमित, सागर सुक्ख पुनीत । सदा सदा हरि चरण में, बढ़े दास की प्रीति ।। यह तैंतीस अध्याय का, है तृतीय स्कध । नृपति परीक्षत से कहो, शुक्राचार्य निबन्ध गुरु प्रताप सामर्थ भई, ले लखनी हाथ । भाषा भागवत की करत अत्रि कवी रघुनाथ ।। * प्रथम अध्याय* ( उद्धवजी और विदुरजी का सम्बाद) दो०-उद्धवजी ने विदुर सो कृष्णा चरित कुह्यो गाय । सो पहले अध्याय में भाषा रचू बनाय ।। विदुर जी का जीवन सार  उध्यव जी और विदुर जी का संवाद किसने किसे और कब सुनाया राजा परीक्षत ने कहा-हे मुने! अब आप मुझे वह कथा सुनाइए जो की उध्यव जी और बिदुरजी का सत्सङ्ग कहाँ और कब हुआ जिसकी सराहना महात्मा जन किया करते हैं। सो आप विस्तार सहित हमसे कहिये। श्री शुकदेवजी बोले-हे राजा परीक्षत ! यह प्रश्न आपने अति उत्तम किया, जो तुमने किया उसी का उत्तर नारायणजी ने लक्ष्मीजी को दिया वही प्

ब्रह्मा की उत्पत्ति। श्री हरि विष्णु द्वारा दर्शन देना।।

Image
श्रीमद भगवद पुराण अध्याय ८ [स्कंध ३] विष्णु का ब्रम्हा जी को दर्शन होना दो०-नाभि कमल से प्रगट है, बृम्हा तपे अध्याय । सो अष्टम अध्याय में कथा कही दर्शाय ॥ मैत्रेय जी मुस्करा कर विदुर जी से बोले-हे विदुर जी !आपने लोक हित आकांक्षा से जो प्रश्न किया है वह बहुत हितकर है सो अब मैं मानव दुख नष्ट करने के हित आपके समक्ष भागवत पुराण को कहता हूँ जिसे शेष जी ने सन्त कुमारादिक के सन्मुख कहा था। फिर सन्त कुमार ने ब्रत धारण कर्ता सांख्यायन मुनि से कहा और उन से हमार गुरू पाराशर मुनि तथा वृहस्पति जी ने सुना, तब इसे पुलत्स्य ऋषि के कहने से पाराशर जी ने दयालु भाव से इस भागवत पुराण को मुझे सुनाया, सो हे वत्स इस भागवत पुराण को तुम्हारे सामने वर्णन करता हूँ ।। कैसे हुई ब्रह्मा की उत्पत्ति एवं ब्रह्मा के आसन, कमल का अद्भुत स्वरूप जिस समय जगत महाप्रलय के जल में विलीन हो गया उस समय चैतन्य शक्ति ही रही थी जो निद्रा दर्शाती हुई नेत्र बंद किये शेष शैया पर नारायण रूप भगवान आदि पुरुष ही थे। जो हजारों वर्ष तक जल में शेष शैया पर शयन करते रहे। जब हजारों वर्ष पश्चात नारायण ने अपनी प्रेरणा करी हुई काल रूप शक्ति से कर्

विराट अवतार की सृष्टि का वर्णन।।

 श्रीमद भागवद पुराण अध्याय ६ [स्कंध ३] दो० महातत्व सव लाय के, जिमि विराट की सृष्टि । सो छटवें अध्याय में कही कथा करि हष्ठि ।। श्री शुकदेव जी ने राजा परोक्षत को समझाते हुये कहा हे परीक्षत! तब मैत्रेय जी ने विदुर जी से इस प्रकार कहना आरम्भ किया कि इस प्रकार पृथक रूप से भूल रही अपनी शक्तियों को समूह में अन्तर्यामी रूप से एक साथ प्रवेश किया। तब ईश्वर ने जान कर ईश्वर ने काल संज्ञा देवी को धारण कर तेईस तत्वों के उस चेष्टा रूप तत्वात्मक गुण में प्रवेश कर गुप्त कर्म की बोधक कर भिन्न-भिन्न तत्वों का जो गुण था उसको भगवान ने मिला दिया। अर्थात जो तत्व पृथक पृथक थे उन सबको उस प्रादि शक्ति में अपनी शक्ति से एकत्र कर दिया। तो वह मांस पिन्ड के रूप में बदल गया। उसी माँस पिन्ड का नाम आदि पुरुष हुआ और इसी आदि पुरुष को विराट रूप भी कहा गया है। यह विराट शरीर सम्पूर्ण आत्मा का अंश है और परमात्मा का अंश यह ईश्वर का वह आदि अवतार है कि जिसमें प्राणियों का समूह भान होता है। यह विराट देह पुरुष अर्थात वह आदि पुरुष जो अध्यात्म, अधिदेव, अधिभूत, भेदो से तीन प्रकारका और प्राण भेद से दस प्रकार का तथा हृदय स्थिति जीव भ

श्रीकृष्ण जी का उध्यव जी को आत्मज्ञान।।

Image
*श्रीमद भागवद पुराण*चौथा अध्याय*स्कंध ३ विदुरजी का मैत्रेयजी के पास आना दोहा-उद्धव उत्तराखड गये,विदुर चले दुख पाय। मैंत्रेय ढिग आये चले, वह चौथे अध्याय ॥ उद्धवजी ने कहा-हे विदुर! भगवान श्रीकृष्ण से ज्ञान के पाने के कारण मेरा अन्त करण ससांरिक मोह-माया से विरक्त हो गया है किन्तु भगवान श्रीकृष्ण के वियोग का जो कष्ट मैं सहन कर रहा हूँ उसे किसी प्रकार भी जिभ्या बखान नहीं कर सकती है। यदि आप सुनना चाहते हैं तो ये सब मैत्रेय ऋषि से पूछ लेना । वे उस समय भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष उपस्थित थे और वे कुछ ही दिनों में यहाँ पर ही आयेगे। श्रीकृष्ण का वेकुँठ गमन जिस समय भगवान श्रीकृष्णजी अन्तर्ध्यान होना चाहते थे, भगवान श्रीकृष्ण अपनी उस योगमाया की गति को देख कर सरस्वती नदी में आचमन करके एक पीपल के वृक्ष की जड़ में विराजमान हुये उन्होंने ही हमसे कहा कि तुम बद्रिकाश्रम को जाओ। जिन्होंने सम्पूर्ण विषय सुख को त्याग दिया ऐसे पुष्ट शरीर वाले कृष्ण भगवान अपनी पीठ के सहारे से पीपल के वृक्ष के नीचे विराजमान थे। उस समय श्री वेदव्यासजी के परम मित्र सिद्धि दशा को प्राप्त हुये श्रीमैत्रेयजी लोक में विचरते-बिचरते वह