सनकादिक मुनियों द्वारा जय विजय के श्राप की कथा एवं उधार।

 श्रीमद भागवद पुराण पंद्रहवाँ अध्याय [स्कंध ३]

(भगवान विष्णु के दो पार्षदों को ब्राम्हण द्वारा श्राप देना)

दोहा-विष्णु पार्षदो को दिया, ज्यो विप्रो ने श्राप ।

तिहि पन्द्रह अध्याय में बरण असुर प्रताप ।।

श्री शुकदेवजी कहने लगे हे परीक्षत ! महामुनि मैत्रेयजी
ने विदुरजी से कहा हे विदुरजी ! देवताओं को पीड़ा पहुँचाने की
शंका से दिति ने कश्यपजी के वीर्य से धारण किये अपने कर्म को
सौ वर्ष तक धारण किया। तब उस गर्भ के तेज से सब लोक
निस्तेज हुए जिसे देखकर सब लोकपालों ने व्रम्हाजी से उस
अन्धकार से लोकों को मुक्त करने के लिये निवेदन किया। वे
इस प्रकार प्रार्थना कर बोले हे प्रभो ! आप इस अन्धकार के
ज्ञाता हैं इसी के कारण हम सब अत्यन्त भयभीत हैं। हे सर्वज्ञ
हम लोगों को सुखी करने की दृष्टि से आप इस अन्धकार का
निवारण कीजिये। तत्पश्चात देवताओं द्वारा अनेक भाँति अपनी
स्तुति सुनकर हंस के सदृश्य वाणी से वृम्हाजी ने कहा हे देवताओ!
एक बार हमारे मनसे उत्पन्न हमारे श्रेष्ठ पुत्र सनक, सनन्दन,
सनातन, सनतकुमार, यह चारौ सर्वदा निष्काम विचरण करते
हुये आकाश मार्ग से भगवान विष्णु के बैकुण्ठ लोक में पहुंचे।
मैत्रे यजी वोले हेविदुरजी! वृम्हाजी से देवताओं ने जब यह
जानने के लिये प्रश्न पूछा कि जिन दो जीवों के गर्भ में आने से
सम्पूर्ण लोकों में इतनाअन्धकार भय व्याप्त हुआ है सो वे कौन
जीव हैं कि जिनका इतना प्रभाव है जिस पर वृम्हाजी ने इस
प्रकार कहा है देवताओ! एक समय भगवान वैकुण्ठनाथ नारायण विष्णु वैकुण्ठ में विराजमान थे, तब अनेक दासियों के
होते हुये लक्ष्मीजी अपने हाथों से भगवान के शरीर तथा भु
जाओं में चन्दन लगा रही थी। उस समय चन्दन लगाए हुये
लक्ष्मीजी अपने मन में विचार करने लगीं। कि त्रिभुवन पति
भगवान नारयण की भुजायें तो इतनी सुन्दर तथा कमल के समान
कोमल हैं, किन्तु पता नहीं कि इनमें कुछ बल भी है या नहीं
है। जब लक्ष्मीजी अपने मन में यह विचार कर रही थीं तब भगवान नारायण अन्तर्यामी ने उनके मनकी इस बात को जान
लिया। तब नारायण ने अपने मन में यह बिचारा कि केवल मेरे
द्वारपाल जय, विजय, के अतिरिक्त अन्य किसी में भी इतनी
सामर्थ्य नहीं है कि जो मेरी भुजाओं के वल को क्षण भर भी
सहन कर सके। अतः इन दोनों को दत्य योनि में जन्म देकर
अवतार धारण कर इनसे युद्ध कर लक्ष्मीजी को अपनी भुजाओं
का पराक्रम दिखाना चाहिये । सो हे देवताओ ! वही जय, विजय
नाम पार्षद दिति के गर्भ में स्थित होने के कारण यह लोकों में
अन्धकार होने के कारण तुम सब अत्यन्त भयभीत हो रहे हो।

सनकादिक मुनियों का स्वरूप एवं बुद्धि का विवरण।

एक दिन सनक, सन्दन, सनातन, सनत्कुमार, यह चारों
पुत्र जब वैकुन्ठ लोक में पहुँचे तो, छै द्वारों तक निरद्वद विना
रोक टोक के अंदर चले गये। परन्तु जब ये सातवें द्वार पर पहुंचे
तो वहाँ दो पार्षद खड़े मिले जो स्वर्ण मुकट तथा कुन्डल कवच
धारण किये हाथों में गदा लिये हुये थे। वे चारों महात्मा वायु
सेवन करने वाले जरा रहित सदैव पाँच वर्ष के दीखने वाले जब
नग्नावस्था में द्वार के भीतर जाने लगे तब उन जय विजय नामक
पार्षदों ने इन्हें बेतों से रोका। तिस पर क्रुध्द होकर उन चारों
ने अपनी इच्छा भंग होते देख करा यह वैकुन्ठलोक है समदर्शी
भगवान स्थित है और तुम द्धारपाल हो अत: यह किस प्रकार
तुम्हारी विषम बुद्धि उत्पन्न हुई कि किसे अंदर न जाने दें और किसे
अंदर न जाने दें। अतः हम तुम्हें श्राप देते हैं कि तुम उसी लोक
में जाकर निवास करो कि जहाँ पर इस प्रकार की विषम बुद्धिवाले रहते हैं।
जो काम क्रोध लोभ से युक्त भेद भाव की द्रष्टि से
देखने वाले रहते हैं । तब तो जय विजय उन मुनियों द्वारा श्राप
बचन सुनकर अति भयभीत हो उनके चरणों में गिर कर इस
प्रकार कहने लगे हे मुनियो! हमारे अपराध के अनुसार ही
आपने हमें दंड दिया सो तो उचित है, परन्तु आपकी कृपा से
भगवान का स्मरण करने वाला मोह हमें न व्यापे।
हे प्रभो ! हमें अनुभव हो गयो कि अब हमारे बुर दिन
आये है तभी तो हमने आपका अपराध किया। हे मुने! आप
हमारा अपराध क्षमा कर कृपाकर यह बतायें कि इस श्राप से
हमारा उद्धार कब और किस प्रकार होगा। तब उन पाँच वर्ष
वाले मुनियों ने कहा-हे जय, विजय! न जाने किस कारण आज
हमारे मन में क्रोध का प्रवेश हुआ हैं यह हमें स्वयं भी ज्ञात नहीं
हुआ है किन्तु तुम इतना स्मरण रखना कि हमारा श्राप कभी
मिथ्या नहीं होवेगा। अतः तुम दोनों भाई तीनवार जन्म धारण कर दत्ययोनि को प्राप्त होकर भगवान द्वारा अवतार धारण
उद्धार करने पर अपने पद को फिरसे प्राप्त करोगे। 

श्रीहरि विष्णु का स्वरूप विवरण

जब वे चारों मुनि जय विजय को श्राप देने के पश्चात् उद्धार होने का प्रयत्न कर रहे थे तभी लक्ष्मीजी सहित भगवान भी वहाँ आ पहुँचे, तब उन दोनों मुनियोंने-श्याम वर्ण, विशाल वक्षस्थल, सुन्दर नितंब
पीताम्बरधारी, वन माल से सुशोभित, हाथों में दिव्य कंकड़
धारण किये, मकराकृत कुण्डलों से शु शोभित कपोल, उच्च
नासिका, मनोहर मुखारविन्द, मणियुक्त मुकट धारण किये,
अमूल्य हार पहिने, कौस्तुभमणि धारण किये, हाथों में चक्र गदा
पदम, आदि को धारण किये स्वरूप का दर्शन कर भगवान के
चरणारविन्दों में सिर झुका कर प्रणाम किया,
और कहा हे प्रभो
आपसे उत्पन्न होने वाले हमारे पिता वृहाजी ने हमारे सम्मुख
आपका जो रहस्यमय स्वरूप वर्णन किया था उसी समय हमारे
कानों के छिन्द्रों द्वारा हमारी बुद्धि रूप गुफा में प्रविष्ट हो गया
था। सो वही रूप आज हमारे नेत्रों के सम्मुख साक्षात आकर
प्राप्त हुये हो। हे नाथ ! अब तक हमसे कोई अपराध नहीं हुआ
अब आपके पार्षदों को श्राप देकर हमसे भारी अपराध बन पड़ा
है। अब आपके दर्शन करने के पश्चात अगर हम नर्क भी प्राप्त
करें तो भी हमें कोई आपत्ति न होगी हमारा मन, वाणी, तथा
बुद्धि आपके चरणों में लगी रहे यही हमारे लिये सब कुछ होगा
हम चाहते हैं कि फिर कभी हमारे द्वारा कष्ट न हो।
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