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राजा परीक्षित का कलयुग को अभय देना।। कलयुग के निवास स्थान।।

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  परीक्षित का भूमि और धर्म को आश्वासन और कलियुग के वास-स्थान का निरूपण।। श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का सत्रहवां आध्यय [स्कंध १] दो० क्यो परीक्षित नृपति जस निग्रह कलियुग राज ।  सोइ सत्रहवे अध्याय में कथा वर्णी सुख लाज ।। १७।।                  Kalyug and raja parikshit conversation  सूतजी कहने लगे कि, वहाँ उस सरस्वती के तट पर राजा परीक्षित ने गौ और बैल को अनाथ की तरह पिटते हुये देखा और उसके पास खड़े हुए हाथ में लठ लिये एक शूद्र को देखा जो राजाओं का सा वेष किरीट मुकुट आदि धारण किये था। वह बैल कमलनाथ के समान श्वेत वर्ण था और डर के मारे बार-बार गोबर और मूत्र करता था और शूद्र को ताड़ना के भय से कांपता हुआ एक पाँव से चलने को घिसटता था। सम्पूर्ण धर्म कार्यों के संपादन करने वाली गौ को, शूद्र के पाँवों की ताड़ना से बड़ी व्यथित देखी। बछड़े से हीन उस गौ के मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी और वह घास चरने की इच्छा करती थी। यह दशा देखकर राजा ने बाण चढा कर मेघ की सी गम्भीर वाणी से ललकार कर कहा-हे अधर्मी तू कौन है जो मेरे होते हुए, अन्याय से इन निर्बलों को मारता है, तूने बहरूपियों की तरह राजाओं का सा स्

किस कारण हुआ भक्त प्रह्लाद का असुर कुल में जनम?

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 श्रीमद भागवद पुराण चौदहवाँ अध्याय [स्कंध ३] (दिति के गर्भ की उत्पत्ति का वर्णन) दो०-जैसे अदित के गर्भ से भयौ हिरणाक्ष्यजु आय । सो चौदह अध्याय विस कही कथा दर्शाय ।। प्रह्लाद की कथा।। श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परिक्षत ! अब आप वह कथा सुनिये कि जिम प्रकार विदुर जी ने मुनि रूत्तम से हिरणाक्ष राक्षस की उत्पत्ति की कथा सुनी थी। तथा किस प्रकार भगवान ने बाराह अवतार धारण कर पृथ्वी का उद्धार करने के लिये जल में प्रवेश किया और हिरणाक्ष्य का बध कर पृथ्वी का उद्धार किया। तब विदुर जी से मैत्रेय जी बोले- हे विदुर जी! एक बार संध्या समय पर दक्ष प्रजापति की कन्या दिति ने मरीच के पुत्र कश्यप ऋषि से संतान के निमित्त भोग के अर्थ याचना की। उस समय ऋषि यज्ञशाला में स्थित थे तब दिति ने कहा हे स्वामिन् कामदेव मुझे अति दुख देता है आपको अन्य सभी पत्नियों के संतान है और मेरी कोई संतान नहीं है इस कारण मैं बड़े आश्चर्य में हूँ। जब हमारे पिता दक्ष ने हमसे पति गृहण के विषय में पूछा था तब हम तेरह बहिनों ने अपको स्वीकार किया था। हे विद्वान ! तब हमारे पिता ने आपको समर्पण किया था सो हम सब आपके शील स्वभाव के अनुसार ही चल

परीक्षित के श्राप की कथा ।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का अठारहवां आध्यय [स्कंध १] (परीक्षित का आखेट में तृषित होकर शमीक ऋषि के आश्रम में जाना, मरा सर्प ऋषि के गले में डालना, श्रंगी ऋषि का शाप देना) दो० दिये परीक्षित शाप जिमि मुनि सुत क्रोध बड़ाय । सो अठारहवं अध्याय में कथा भाषत प्रेम बढ़ाय।। सूतजी बोले यद्यपि कलियुग का प्रवेश होगया था परन्तु जब तक राजा परीक्षित का एक छत्र राज्य रहा तब कलि अपना किसी पर प्रभाव न कर सका। जिस दिन श्री कृष्ण इस पृथ्वी को त्याग गये उसी दिन से कलियुग ने पृथ्वी पर अपना डेरा जमा दिया। राजा परीक्षित भौरे की तरह सार वस्तु का ग्रहण करने वाला था, इसलिए इसने कलियुग से बैर बांधना उचित न समझा क्योंकि इस कलियुग में मनसा पुण्य तो होता है परन्तु पाप नहीं होता है किन्तु पाप करने से ही लगता है और पुण्य कर्म मनमें विचारने से हो जाता है । एक दिन ऐसा हुआ कि राजा परीक्षित धनुष बाण लेकर जङ्गल में आखेट को गये और मृगों के पीछे दौड़ते - दौड़ते भूख प्यास से बहुत ही व्याकुल हो गए। कहीं कोई ता लाब नदी कुआं आदि दृष्टि नहीं पड़ता था। ढूँढ़ते ढूँडते जगत प्रसिद्ध शमीक नाम ऋषि के आश्रम में पहुँचे और वहां शान्तस्वरू

अर्जुन कृष्णा प्रेम।। श्रीकृष्ण स्तुति।।

श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का पन्द्रहवां आध्यय [स्कंध १] अर्जुन से श्रीकृष्ण का गोलोक गमन सुन, कलियुग का प्रवेश हुआ जान परिक्षत को राज्य भार दे राजा युधिष्ठिर स्वर्ग को प्राप्त हुए दो:कलि आवन सुन जभ गये धर्मराज सुरधाम । पंचदशमी अध्याय सो भाखो कथ ललाम ||१५|| कैसे की श्रीकृष्ण भगवान ने पाण्डवों की रक्षा? सूजी कहते है - कि श्रीकृष्ण हैं सखा जिसके, ऐसा जो अर्जुन है वह कृष्ण बिरह से व्याकुल गदगद वाणी से बड़े भाई राजा युधिष्ठिर से ये बचन बोला। हे महाराज ! बन्धु रूप हरि से मैं ठगा जिसके ठगने से देवताओं को भी आश्चर्य दिखाने वाला मेरा महान तेज चला गया। जिसके क्षणमात्र के वियोग से यह सब लोक अप्रिय दीख पड़ते हैं कि जैसे प्राण के बिना यह शरीर मृतक कहलाता हैं। जिस कृष्ण के आश्रय से द्रौपदी के घर में स्वयंवर में आये हुए सब राजाओं का तेज को मैंने हर लिया, फिर धनुष को बढ़ाकर मत्स्य बींध दिया, द्रौपदी विवाही। और जिन श्रीकृष्ण के समीप रहने से मैंने अपने बल से देवगणों सहित इन्द्र को जीत कर अग्नि को भोजन करने के वास्ते खांडव वन दे दिया जिसकी कृपा से अद्भुत शिल्प- विद्या से रची हुई, मयकी बनाई हुई सभा मिली

युधिष्ठिर को कलयुग के लक्षण का आभास होना।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का चौदहवॉं आध्यय [स्कंध १] (युधिष्ठिर को अपशकुन होना अर्जुन का द्वारका से लौटकर आया) दो-सुन्यो युधिष्ठिर कृष्ण को श्री गोलोक निवास । चौदहवें अध्याय सोइ कौन्हों कथा प्रकाश ॥ १४ । सूतजी कहते हैं कि बन्धुजनों को देखने की इच्छा से और कुशल लाने के वास्ते अर्जुन द्वारका में गया हुआ था। तब सात महीने हो गये परन्तु अर्जुन नहीं आया और युधिष्ठिर को बड़े घोर भयंकर उत्पात दीखने लगे। काल की गति घोर देखी, ऋतुओं के धर्म विपरीत बन गये, मनुष्य को अत्यंत पाप की अजीवि का देखी। बहुत कपट का व्योहार , ठगपने से मिली हुई मित्रता और पिता, माता, सुहृद, भाई, स्त्री पुरुष, इन्हों की आपस में कलह इत्यादि अत्यन्त अशुभ कारण और मनुष्यों को लोभदिक अधर्म की प्रवृत्ति को देखकर, राजा युधिष्ठिर छोटे भाई भीमसेन, से ये बोले हे भाई द्वारका को गये अर्जुन अब तक नहीं आया इस बात को मैं कुछ भी नहीं समझता हूँ। हे भीमसेन ! मेरी बाई जाँघ, बाई आँख, बाई भुजा फड़कती है और बारम्बार मेरा हृदय काँपता है, इससे शीघ्र अशुभ फल होवेगा। यह गीदड़ी उदय होते हुए सूर्य के सम्मुख अपना मुख कर रोती है और मुख से अग्नि उगलती है

बृह्मा द्वारा कर्मों के अनुसार भगवान नारायण के २४ अवतारों का वर्णन।।

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श्रीमद्भागवद्पूराण [स्कन्ध २] सातवां अध्याय* (भगवान का लीला अवतार वर्णन) दो-धारण होय अवतार जो जिन कर्म रूप आधार । सो सप्तम अध्याय में वरणू भेद विचार ।। वृह्मा जी बोले-हे नारद ! अब प्रथम हम तुम्हारे सामने बाराह अवतार का सारांश में वर्णन करते हैं। भगवान की आज्ञानुसार जब मैंने पृथ्वी का निर्माण किया तो वह कमल के पत्ते पर किया था जिसे हिरणाक्ष्य नाम का राक्षस उसे पाताल में उठा कर ले गया। तब मैंने नारायण जी से प्रार्थना की कि पृथ्वी को हिरणाक्ष्य ले गया है अब मनुष्य आदि प्राणी कहाँ रहेंगे।। तो भगवान श्री नारायण ने पृथ्वी का उद्धार करने के लिये बाराह अवतार धारण कर अपनी दाड़ों से हिरणाक्ष्य का पेट फाड़ कर मार डाला और अपनी दाड़ों पर पृथ्वी को रख कर लाये तब यथा स्थान पर रखा था । अब यज्ञावतार कहते है कि रुचिनाम प्रजापति की अकुती नाम स्त्री से सुरज्ञ नाम पुत्र हुआ जिसने इन्द्र होकर त्रिलोकी का संकट दूर किया तब स्वायम्भुव मनु ने स्वयज्ञ का नाम हरि रखा वही यज्ञ भगवान नाम से अवतार हुये। अब कपिल अवतार कहते हैं-कदम नाम ऋषि को स्त्री देवहूती से नौ कन्या तथा एक पुत्र हुआ पुत्र का नाम कपिल हुआ जिसने अपनी

शुकदेव जी द्वारा विभिन्न कामनाओं अर्थ देवो का पूजन का ज्ञान।। श्रीमद्भागवद्पूराण महात्मय अध्याय ३ [स्कंध २]

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* तीसरा अध्याय *स्कंध २ (देव पूजन के अभीष्ट फल लाभ का उपाय वर्णन) दो० पूजन कर जिन देवकौ, जैसौ ले फल पाय । सो द्वतीय अध्याय में, वर्णत है सब गाय ।। श्री शुकदेव जी परीक्षत राजा से बोले -हे नृपेन्द्र ! जैसा आपने हमसे पूछा वैसा हमने यथावत वर्णन किया है। मृत्यु को प्राप्त होने वाले बुद्धिमान मनुष्य को हरि भगवान की कीर्ति का श्रवण कीर्तन करना ही अत्यन्त श्रेष्ठ हैं। परन्तु अन्य अनेक कामों के फल प्राप्त करने के लिये अन्य देवताओं का पूजन भी करे, बृह्मा का पूजन करने से बृह्मतेज की वृद्धि होती है, इन्द्र का पूजन करने से इन्द्रियों को तृष्टता होती है। दक्ष आदि प्रजापतियों का पूजन करने से संतान को बृद्धि होती है । लक्ष्मी की कामना से देवी दुर्गा का पूजन करना चाहिये, और अग्नि देव का पूजन कर ने से तेज बढ़ता है, यदि धन की कामना हो तो वस्तुओं का पूजन करे। बलबान मनुष्य वीर्यवृद्धि की इच्छा करतो वह ग्यारह रुद्रों का पूजन करे। अदिति का पूजन करनाअन्न आदि भक्ष्य पदार्थों को कल्पना वाले मनुष्य को करना चाहिये। यदि स्वर्ग प्राप्ती की इच्छा होतो बारह आदित्यों की पूजा करे। विश्वदेवों के पूजन करने से राज्य की का