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परीक्षित के श्राप की कथा ।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का अठारहवां आध्यय [स्कंध १] (परीक्षित का आखेट में तृषित होकर शमीक ऋषि के आश्रम में जाना, मरा सर्प ऋषि के गले में डालना, श्रंगी ऋषि का शाप देना) दो० दिये परीक्षित शाप जिमि मुनि सुत क्रोध बड़ाय । सो अठारहवं अध्याय में कथा भाषत प्रेम बढ़ाय।। सूतजी बोले यद्यपि कलियुग का प्रवेश होगया था परन्तु जब तक राजा परीक्षित का एक छत्र राज्य रहा तब कलि अपना किसी पर प्रभाव न कर सका। जिस दिन श्री कृष्ण इस पृथ्वी को त्याग गये उसी दिन से कलियुग ने पृथ्वी पर अपना डेरा जमा दिया। राजा परीक्षित भौरे की तरह सार वस्तु का ग्रहण करने वाला था, इसलिए इसने कलियुग से बैर बांधना उचित न समझा क्योंकि इस कलियुग में मनसा पुण्य तो होता है परन्तु पाप नहीं होता है किन्तु पाप करने से ही लगता है और पुण्य कर्म मनमें विचारने से हो जाता है । एक दिन ऐसा हुआ कि राजा परीक्षित धनुष बाण लेकर जङ्गल में आखेट को गये और मृगों के पीछे दौड़ते - दौड़ते भूख प्यास से बहुत ही व्याकुल हो गए। कहीं कोई ता लाब नदी कुआं आदि दृष्टि नहीं पड़ता था। ढूँढ़ते ढूँडते जगत प्रसिद्ध शमीक नाम ऋषि के आश्रम में पहुँचे और वहां शान्तस्वरू

विदुर, धृतराष्ट्र, गान्धारी का हिमालय गमन से मोक्ष प्राप्ति की कथा।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का तेरहवॉं आध्यय [स्कंध १] सूतजी कहने लगे-विदुर जी तीर्थ यात्रा में विचरते हुए मैत्रैय जी से मिल के श्री कृष्ण चन्द्र की गति को जान के हस्तिनापुर में आये । विदुर जी ने मंत्री जी के आगे जितने प्रश्न किये उनमें से केवल दो चार प्रश्न के ही उत्तर मिलने से उनका सन्देह मिट गया। एक गोविन्द भगवान में भक्ति पाकर तिन प्रश्नों के उपराम को प्राप्त हो गये यानी उनसे पीछे अन्य कुछ पूछना बाकी न रहा फिर हस्तिनापुर में उस बन्धु विदुर को आये हुये देखकर अर्जुन आदि सब छोटे भाईयों सहित धर्म पुत्र युधिष्ठिर धृतराष्ट्र, युयुत्सु, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती, गान्धारी द्रोपदी, सुभद्रा उत्तरा, कृपी, यह सब और अन्य भी पाण्डु जाति के लोगों की भार्या और अनेक पुत्र सहित स्त्रियां, यह सब जैसे मृतक ने प्राण पाये हों तेसे विदुरजी के सन्मुख गये यह सब यथा योग्य विधि से विदुर जी से मिले। उस समय इनके नेत्रों से प्रेम आंसू गिरने लगे,फिर राजा युधिष्ठिर ने उनको आसन देकर पूजन किया। पीछे यह भोजन कर चुके तथा विश्राम करके बैठे तथा युधिष्ठिर ने कहा कि, जैसे पक्षी अत्यंत स्नेह से अपने बच्चों को आप भी याद करत

परीक्षित के जन्म की कथा।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का बारहवॉं आध्यय [स्कंध १] दोहा: अब द्वादश अध्याय में जन्म परीक्षित हेतु ।। वर्णों जो जग सुख दिये न्याय नेतिबनी सेतु ॥१२॥ शौनकजी बोले-अश्वत्थामा के चलाये हुए अत्यन्त तेज वाले ब्रह्मास्त्र से उत्तरा का गर्भ खंडन हुआ, फिर परमेश्वर श्री कृष्ण भगवान ने उसकी रक्षा की। उस महान बुद्धिमान परीक्षित के जन्म और कर्मों को हमारे आगे कहो और उसकी मृत्यु जैसे हुई व जिस प्रकार देह को त्यागकर परलोक में गया और जिसके वास्ते सुकदेवजी ने ज्ञान दिया, सो यह सब हम सुनना चाहते हैं सो हमको सुनाओ। सूतजी कहने लगे-श्रीकृष्ण के चरणाविंदौ की सेवा करके सम्पूर्ण कामनाओं की इच्छा से रहित हुआ युधिष्ठिर राजा अपने पिता की तरह प्रजा को प्रसन्न रखकर पालन करने लगा। हे शौनकादिकों ! उस समय युधिष्ठिर राजा की सम्पत्ति और यश देवताओं के भी मनको ललचाने लायक थे, परन्तु हे शौनकादि द्विजो! भगवान में मन रखने वाले उस राजा युधिष्ठिर को श्रीकृष्ण के बिना यह सब कुछ अधिक प्रीति देने वाले नहीं हुए। हे भृगुनन्दन! जब अपनी माता के गर्भ में वह शूरवीर बालक अस्त्र के तेज से जलने लगा तब उसने किसी पुरुष को देखा। वह अंगूठे

युधिष्ठिर का भीष्म पितामह से सब धर्मों का सुनना।।

श्रीमद भागवद  पुराण महात्मय का नवम आध्यय [स्कंध १] दोहा-धर्म विनम जर धर्म कृम, भाष्यों भीष्म उचार।। सो नवमे अध्याय में वरण विविध प्रकार।। युधिष्ठिर को मोह-अज्ञान होना सूतजी कहते हैं-इस प्रकार प्रजा के द्रोह जनित पाप से भयभीत हुए सब धर्म को जानने की इच्छा करते हुए राजा युधिष्ठिर, भीष्म पितामह, जहां, बाणों की छैया में पड़े हुए थे, तहाँ कुरुक्षेत्र में गये। तब अर्जुन आदि सब भाई भी सुवण के आभूषणों से शोभित सुन्दर घोड़े जिनमें जुड़े ऐसे रथों पर चढ़कर तिनके पीछे-पीछे वेदव्यास व धौम्य आदि ब्राह्मण लोग भी रथों में सवार होकर उनके साथ साथ चले। हे शौनक! को साथ लेकर श्रीकृष्ण भगवान भी रथ में बैठकर चले। फिर उन तीनों सहित वह युधिष्ठिर राजा ऐसे शोभित होते भये कि जैसे यज्ञों सहित कुबेर शोभित होता है। फिर तहाँ कुरुक्षेत्र में मानों आकाश से छूटकर कोई देव पड़ा हो, ऐसे भूमि में पड़े हुए भीष्म पितामह जी को देखकर सब पाण्डव, श्रीकृष्ण चंद और मृत्यु लोगों ने भी प्रणाम किया । वहाँ सब देव ऋषि, बरह्मश्षि और राज ऋषि (उत्तम राजा लोग) भीष्म जी के दर्शन करने आये। पार्वत, नारद, धौम्य, वेदव्यास भगवान बृहदश्व, पयार द्

अश्वत्थामा का ब्रह्म अस्त्र छोड़ना।परीक्षित राजा के जन्म कर्म और मुक्ति की कथा।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का आठवाँ आध्यय [स्कंध १] दोहा-कहयो व्यास सों जन्म को नारद जी से हाल।। सोई षट् अध्याय में वर्णी कथा रासल।। सूतजी कहने लगे-इसके अनन्तर वे पांडव मरे हुए पुत्रों को तिलांजलि देने के वास्ते, द्रोपदी आदि स्त्रियों को आगे करके गङ्गाजीके तट पर गये तथा बारम्बार नहाये। फिर वहाँ छोटे भीमादिकों के सहित बैठे हुये राजा युधिष्ठिर, धृतराष्ट्र और पुत्रों के शोक से दुखी हुई गान्धारी, कुन्ती, द्रोपदी, इन सबों को मुनि जनों सहित श्रीकृष्ण सान्त्वना देने लगे, और जिन धूर्त दुर्योधन अदिकों ने युधिष्ठिर का राज्य हर लिया था, जो दुर्योधन आदि दुष्ट द्रोपदी के केश पकड़ने से नष्ट आयु वाले हो रहे थे, उन सबों को मरवा कर और जिसके कोई शत्रु न रहा ऐसे युधिष्ठिर का राज्य स्थापित करके फिर बहुत विस्तार वाले तीन अश्वमेध यज्ञों को करवा के श्रीकृष्ण भगवान ने उस युधिष्ठिर के पवित्र यश को इन्द्र के यश की तरह सब दिशाओं में फैलाया । फिर पाण्डवों से विदा माँग कर सात्यकी और उद्धव सहित श्रीकृष्ण रथ में बैठकर द्वारका को जाने की तैयारी करने लगे। हे ब्रह्मन्? अश्वत्थामा का बृह्माआस्तृ छोड़ना और श्रीकृष्ण द्वार

बृह्मा द्वारा कर्मों के अनुसार भगवान नारायण के २४ अवतारों का वर्णन।।

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श्रीमद्भागवद्पूराण [स्कन्ध २] सातवां अध्याय* (भगवान का लीला अवतार वर्णन) दो-धारण होय अवतार जो जिन कर्म रूप आधार । सो सप्तम अध्याय में वरणू भेद विचार ।। वृह्मा जी बोले-हे नारद ! अब प्रथम हम तुम्हारे सामने बाराह अवतार का सारांश में वर्णन करते हैं। भगवान की आज्ञानुसार जब मैंने पृथ्वी का निर्माण किया तो वह कमल के पत्ते पर किया था जिसे हिरणाक्ष्य नाम का राक्षस उसे पाताल में उठा कर ले गया। तब मैंने नारायण जी से प्रार्थना की कि पृथ्वी को हिरणाक्ष्य ले गया है अब मनुष्य आदि प्राणी कहाँ रहेंगे।। तो भगवान श्री नारायण ने पृथ्वी का उद्धार करने के लिये बाराह अवतार धारण कर अपनी दाड़ों से हिरणाक्ष्य का पेट फाड़ कर मार डाला और अपनी दाड़ों पर पृथ्वी को रख कर लाये तब यथा स्थान पर रखा था । अब यज्ञावतार कहते है कि रुचिनाम प्रजापति की अकुती नाम स्त्री से सुरज्ञ नाम पुत्र हुआ जिसने इन्द्र होकर त्रिलोकी का संकट दूर किया तब स्वायम्भुव मनु ने स्वयज्ञ का नाम हरि रखा वही यज्ञ भगवान नाम से अवतार हुये। अब कपिल अवतार कहते हैं-कदम नाम ऋषि को स्त्री देवहूती से नौ कन्या तथा एक पुत्र हुआ पुत्र का नाम कपिल हुआ जिसने अपनी

परीक्षित राजा के जन्म कर्म और मुक्ति की कथा।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का सप्तम आध्यय [स्कंध १] (परीक्षित जन्म कथा) दो:अवस्थामा जिमि हने सोवत द्रोपदी लाल। सो सप्तम अध्याय में वर्णों चरित्र रसाल ।७। शौनक जी पूछने लगे कि हे सूतजी! इस प्रकार नारद मुनि के अभिप्राय को सुनने वाले वेदव्यास ने नारद मुनि के गये पीछे क्या किया? सूतजी बोले-हे ऋषीश्वरो! सरस्वती नदी के पश्चिमतटपर आश्रम था उसको शम्याप्रास कहते हैं वह ऋषि लोगों के यज्ञ को बढ़ाने वाला है। उस आश्रम में तपोमूर्ति वेद व्यास अपने मन को स्थिर करके नारदजी के उपदेश का ज्ञान करने लगे। भक्ति योग करके अच्छे निर्मल हुए निश्चय मन में पहले तो परमेश्वर को देखा फिर तिन्हों के अधीन रहने वाली माया को देखा। श्रीपरमेश्वर की भक्ति करना यही साक्षात अनर्थ शान्त होने का उपाय है। इसके नहीं जानने वाले मनुष्यों के कल्याण करने वाले विद्वान् वेदव्यास जी ने भागवत संहिता सुनना आरंभ किया। जिस भागवत संहिता के सुनने से सन्सरि जिवों के शोक, वृद्धावस्था दूर होते हैं। उसे वेद व्यास जी ने आत्मज्ञानी शुकदेवजी को पढ़ाया।सूतजी कहने लगे, हे! ऋषिवरों जो कि आत्माराम मुनि हैं, वे किसी ग्रन्थ को पढ़ने की इष्छा

नारद द्वारा हरि कीर्तन को श्रेस्ठ बतलाकार वेद व्यास के शोक को दूर करना।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का पंचम आध्यय [स्कंध १] दोहा-जेहि विधि बखो व्यसो नारद कथा उचार। सो पंचम अध्याय में वर्णी कथा अपार ।। नारद द्वारा वेद व्यास जी को ज्ञानोप्देश सूतजी कहने लगे कि हे शौनक! श्रीवेदव्यासजी को खिन्न मन देखकर नारदमुनि बोले-हे महाभाग! तुम आज कोई सोच करते हुए मालूम होते हो सो ये बात क्या है, हमसे कहो।व्यासजी बोले-महाराज ? मैने चारों वेद तथा पुराण बनाये, मेरे मन में सन्तोष नहीं हुआ है। आप ब्रह्माजी के पुत्र और गम्भीरबोध बाले हो इसलिये मेरा सन्देह दूर कीजिये। नारदजी बोले-हे वेदव्यासजी! तुमने जैसे विस्तार पूर्वक धर्म आदिकों का वर्णनकिया तैसे मुख्य भाव करके विष्णु भगवान की महिमा नहीं गायी, भक्ति बिना सब शास्त्र वचन की चतुराई मात्र ही हैं।वहीं कर्मों की रचना मनुष्यों के पापों को नष्ट करनेवाली होती है कि जिसमें श्लोक-श्लोक में चाहे सुन्दर पद भी न होवे परन्तु अनन्तभगवान के यज्ञ से चिन्हित हुए नाम हो ! उन्हीं काव्यों को साधुजन बक्ता मिलने से सुनते हैं, श्रोता मिलने से गाते हैं, नहीं तो आपही उच्चारण करते हैं। हे महाभाग ! आप परमेश्वर केगुणानुवाद व लीलाओं को अखिल जगत के बन्ध

व्यास मुनि का नारद में सन्तोष होना और भागवत बनाना आरम्भ करना

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का चतुर्थ आध्यय [स्कंध १] दोहा: जिमि भागवद पुराण को रच्यो व्यास मुनि राब।  सो चौथे अध्याय में कही कथा समझाया। शौनक जी कहने लगे-हे उत्तम वक्ता ! हे महाभागी जोकि शुकदेव भगवान जी ने कहा है उस पुष्प पवित्र शुभ भागवत की कथा को आप हमारे आगे कहिये। भागवद कथा किस युग में फिर शुकदेव तो ब्रह्म योगीश्वर, समदृष्टि वाले, निर्विकल्पएकान्त में रहने वाले हस्तिनापुर कैसे चले गये और राजऋषि परीक्षित का इस मुनि के साथ ऐसा सम्वाद कैसे हो गया कि जहाँ यह भागवत पुराण सुनाया गया ? क्योंकि वह शुकदेव मुनितो गृहस्थीजनों के घर में केवल गौ दोहन मात्र तक यानी जितनी देरी में गौ का दूध निकल जावे इतनी ही देर तक उसगृहस्थाश्रम को पवित्र करने को ठहरते थे। हे सूतजी? अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित राजा को उत्तम भक्त कहते हैं । इसलिये परीक्षित जन्म कर्म हमको सुनाइये । पांडवों के मान को बढ़ाने वाला वहचक्रवर्ती परीक्षित राजा अपने सम्पूर्ण राज्य के ऐश्वर्य को त्याग,मरना ठान कर गङ्गाजी के तट पर किस कारण से बैठा? सूतजी कहने लगे-हे ऋषीश्वरों! भागवद कथा किस युग में द्वापर युग के तीसरे परिवर्तनके अन्त में पा

वेद व्यास जी द्वारा भगवद गुण वर्णन।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का दूसरा आध्यय [स्कंध १] (भगवत गुण वर्णन ) श्री व्यासजी कहते हैं कि शौनकादि ऋषीश्वरों के इनप्रश्नों को सुन कर सूतजी बड़े प्रसन्न भये और उन महर्षि लोगों के वचनों की बहुत सराहना की, फिर कहना प्रारम्भ किया।वहां पहले सूतजी विनय पूर्वक श्री शुकदेवजी को प्रणाम करते हैं कि जन्मते ही जो शुकदेवजी, सब काम को छोड़कर यज्ञोपवीत के बिना ही सब मोह जाल को त्यागकर अकेले चले उस समयवेद व्यासजी मोह से उसके पीछे-पीछे दौड़े और कहा कि हेपुत्र! हे पुत्र ! खड़ा रह, ऐसे सुनकर शुकदेवजी अपने योगबलसे सबके हृदय में प्रवेश होने वाले बन के वृक्षों में प्रविष्ट होकर बोले, यानी उस समय वे वृक्ष ही शुकदेवजी के रूप से ये जबाव देते भये कि पिताजी ! न कोई पिता है न पुत्र है, क्यों झूठामोह करते हो ? ऐसे शुकदेवजी मुनि को हम नमस्कार करते हैं, और सब वेदों के सारभूत आत्म तत्व को विख्यात करनेवाले व अध्यात्म विद्या को दीपक की तरह प्रकाश करने वाले ऐसे गुह्य श्रीमद्भागवत पुराण को जो शुकदेवजी इस अन्धकार से छूटने की इच्छा करने वाले संसारी जीवों केअनुग्रह के वास्ते करते भये और जो सब मुनियों को ज्ञान देने वाले

आठारह पुराणों के नाम।। नामावली।।

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शौनकादि ऋषियों ने पूछा-'हे सूतजी! आप हमें अठारह पुराणों के नाम सुनाईये।,, सूतजी बोले"हे ऋषियो! उन अठारहों पुराणों के नाम इस प्रकार हैं - ब्रहम पुराण, पद्म-पुराण, विष्णु पुराण, शिव पुरण, लिग पुराण, गरुड़ पुराण, नारदपुराण, अग्नि पुराण, स्कंद पुराण, भविष्य पुराण, ब्रहमवत्त पुराण, मार्कण्डेय पुराण, मत्स्य पुराण, कूर्म पुराण, बाराह पुराण, नृसिह पुराण, ब्रहमाण्ड पुराण और श्रीमदभागवत पुराण ।  इन सब पुराणों में श्रीनारायणजी के गुण एव लीला-चरित्रों का वर्णन हैं। ༺═──────────────═༻

शौनकादि ऋषियों का सूत जी से भागवत के विषय में सम्वाद।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का प्रथम आध्यय [स्कंध १] प्रारम्भदोहा: मंगलमय श्री भगवान का, मङ्गल मय है,नाम। मंगलमय श्री कृष्ण है, जिनको मथुरा धाम ॥ शौनकादि ऋषियों का सूत जी से भागवत के विषय में सम्बाद ।  भागवत शास्त्र की रचना के समय जो प्रतिपद्य परब्रह्म हैं, श्री वेद व्यस जी महाराज उसका स्मरण करते हैं, जिस परब्रह्म परमात्मा से इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति संहार होता है और जो सब कार्यों में समान रूप से विराजमान है,तथा उन सबों से अलग हैं जो मृतिका घर और स्वर्ण आभूषणों पुराण, महाभारत इतिहास आदि धर्म शास्त्र वगैरह पढें हैं और जिन्होंने अच्छी तरह से शिष्यों को सुनाये भी ही हैं। अलग नहीं है, और जिसने ब्रह्माजी के वास्ते अपने मन करके वह वेद प्रकाशित किया है कि जिस वेद में अच्छे-अच्छे पण्डित लोग भो मोहित हो जाते हैं अर्थात वह वेद पढ़ने से भी ठीक समझ में आना मुश्किल है और जैसे कभी चमकते हुए कालर में जल और जल में स्थल अच्छा सा दिखाई पड़ता है, इसी प्रकार जिस परमात्मा में सत्वादि तीन गुणों को रचाये सब कार्य मात्र झूठा भी है तथापि जिस ब्रह्म की अधिष्ठान सत्ता से अच्छा सा मालुम होता है और जो आप स्वयं

सप्ताह यज्ञ विधि वर्णन।। सप्ताह यज्ञ के नियम।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का छटवाँ आध्यय [मंगला चरण] सनत्कुमार बोले कि अब हम सप्ताह श्रवण करने की विधि तुम्हारे सामने वर्णन करते हैं यह सप्ताह विधि प्रायः सहायता और धन से साध्य कही है। प्रथम पण्डित को बुलाय मुहूर्त पूछकर मंडप रचना करे। भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशिर्ष आषाढ़ श्रावण के छः महीने कथा आरम्भ करने में सर्वश्रेष्ठ हैं, क्योकिंये छ: महीने श्रोताओं को मोक्ष के प्रतीक हैं। जो महीनों के विग्रह है, अर्थात भद्रा, दग्धयोग, व्यतिपात, वैधृति उत्पातावियोग इन निन्दित दिनों को परित्याग कर दे। देश देश में खबर भेजकर यह बात प्रकट कर देखें कि यहाँ कथा होगी आप सब लोग कुटुम्ब सहित आकर यज्ञ को सुशोभित करें। जो कोई हरि कथा से दूर हैं ऐसे पुरुष स्त्री शूद्र आदिकों को भी जिस प्रकार बोध हो जाय सो काम करना चाहिए। कथा श्रवण करने का स्थान तीर्थ पर हो अथवा बन में हो, किंवा घर में वाला स्थान हो, जहाँ सैकड़ों मनुष्य सुख पूर्वक बैठकर कथा सुन सकें । उस स्थान को जल से मार्जन करें। बुहारी से बुहार, गोबर से लीप देवै, फिर गेरू आदि से चित्रित करें। फिर पाँच दिन पहले से बड़े-बड़े आसन लायके रक्खे, और कदली के