विदुर, धृतराष्ट्र, गान्धारी का हिमालय गमन से मोक्ष प्राप्ति की कथा।।

श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का तेरहवॉं आध्यय [स्कंध १]



सूतजी कहने लगे-विदुर जी तीर्थ यात्रा में विचरते हुए मैत्रैय जी से मिल के श्री कृष्ण चन्द्र की गति को जान के हस्तिनापुर में आये । विदुर जी ने मंत्री जी के आगे जितने प्रश्न किये उनमें से केवल दो चार प्रश्न के ही उत्तर मिलने से उनका सन्देह मिट गया। एक गोविन्द भगवान में भक्ति पाकर तिन प्रश्नों के उपराम को प्राप्त हो गये यानी उनसे पीछे अन्य कुछ पूछना बाकी न रहा

फिर हस्तिनापुर में उस बन्धु विदुर को आये हुये देखकर अर्जुन आदि सब छोटे भाईयों सहित धर्म पुत्र युधिष्ठिर धृतराष्ट्र, युयुत्सु, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती, गान्धारी द्रोपदी, सुभद्रा उत्तरा, कृपी,
यह सब और अन्य भी पाण्डु जाति के लोगों की भार्या और अनेक पुत्र सहित स्त्रियां, यह सब जैसे मृतक ने प्राण पाये हों तेसे विदुरजी के सन्मुख गये यह सब यथा योग्य विधि से विदुर जी से मिले। उस समय इनके नेत्रों से प्रेम आंसू गिरने लगे,फिर राजा युधिष्ठिर ने उनको आसन देकर पूजन किया। पीछे यह भोजन कर चुके तथा विश्राम करके बैठे तथा युधिष्ठिर ने कहा कि, जैसे पक्षी अत्यंत स्नेह से अपने बच्चों को आप भी याद करते थे कि नहीं?
क्योंकि विष अग्नि आदि अनेक विपत्तियों से आपने माता सहित हमको छुड़ाये हैं और कैसे निर्वाह किया, आपने पृथ्वी पर विचरते हुए किसी प्रकार तथा कौन-कौन तीर्थ किये। हे तात! श्रीकृष्ण देवता हैं, उनके ऐसे हमारे बान्धव यादवों की क्या खबर हैं? सो कहो! इस प्रकार युधिष्ठिर ने विदुर जी से पूछा तब विदुरजी सब समाचारों को यथायोग्य सुना के क्रम से कहने लगे, परन्तु यदुकुल का नाश नहीं कहा । क्योंकि मनुष्यों को अप्रिय समाचार सहना बड़ा मुश्किल होता हैं और प्रिय समाचार तो आप ही प्राप्त हो जाते है । वह दयालु विदुर जी उनको दुःखित हुए न देख सकते थे इसलिए नहीं कहा। विदुर जी ने बड़े भाई धृतराष्ट्र, का कल्याण करने निमित्त सब ही के साथ कुछ दिनों तक वहाँ ही निवास किया।

यह विदुर जी धर्मराज का अवतार थे। १०० वर्ष तक शूद्र योनि में जन्म बिताने का शाप एक ऋषि ने धर्मराज को दिया था। 



पोता होने के बहुत समय पीछे राजकार्य में लगे हुए पाण्डवों का अचानक परम दुस्तर काल आ पहुँचा । उसको विदुर जी,जान के धृतराष्ट्र बोले कि - हे राजन् शीघ्र ही घर से निकल जाओ देखो यह भय आया अर्थात् सब का काल आया है।



तुम्हारे पिता, भाई, पुत्र सब मर गये, तुम्हारी आयु क्षीणहो गई है, यह देह बुढ़ापे ने ग्रस लिया, तो भी तुम पराये घर की सेवा करते हो । अहो, इस प्राणी को जीने की बड़ी भारी आशा लगी रहती हैं, उसी से तुम भीमसेन के दिये हुये भोजन को कुत्तों की तरह खाने को अंगीकार करते हो। देखो जिन पांडवों को तुमने अग्नि में जलाया, विष दिया, चीर हरण से अपने को कलंक लगाया, रहने का घर और धन लिया, उन्हीं के दिये हुए अन्नादिक से अब तुमको अपने प्राणों के रखने से क्या प्रयोजन है? जो मनुष्य वैराग्य धारण कर अभिमान को छोड़, किसी को खबर नहीं पड़े, ऐसे तिर्थादिक पर जाकर अपने जीर्ण शरीर को त्याग देवे वह धीर कहलाता है । जो अपने से अथवा दूसरे के उपदेश से वैराग्य को प्राप्त हो, आत्मा में निष्ठा को अपने हृदय में हरिको धारण कर घर से बाहर निकल जावे वह उत्तम नर कहलाता है। अब तुम अपने घर के जनों को खबर किये बिना ही उत्तर दिशा को चले जाओ क्योंकि अब से आगे मनुष्य के धैर्यादिक गुणों को छीनने वाला कलिकाल आवेगा । इस प्रकार छोटे भाई विदुर ने प्रजाचक्षु अन्धे अपने भाई धृतराष्ट्र को बोध कराया तब अपने भाई के दिखाये मोक्ष मार्गको देखकर चित्त को दृढ़ता से अपने बन्धुओं की अत्यन्त दृढ़ स्नेह फाँस को दूर कर आधी रात के समय विदुर के साथ धृतराष्ट्र घर से बाहर चल पड़े फिर इनकी स्त्री सुवला राजा की बेटी जो पतिवृता स्ती थी वह भी अपने पति के संग पीछे-पीछे चली। ये दोनों सन्यास धारण करने वालों को जहाँ आनन्द होता है ऐसे हिमालय पर्वत में इस प्रकार प्रसन्न होकर चले कि जैसे शूरवीर युद्ध में श्रेष्ठ प्रहार को अच्छा मान के जाते हैं। नित्य दर्शन करने के नियमानुसार जब युधिष्ठिर घर में गये तब गान्धारी और धृतराष्ट्र के दर्शन न हुए। तहां बैठे हुए केवल संजय को उदास मन से देखकर युधिष्ठिर पूछने लगे-हे सञ्जय! वृद्ध और नेत्रों से हीन ऐसे हमारे ताऊ कहाँ हैं ? और जो पुत्रों के मरने से दुःखित थी सो गांधारी माता, सुहृद विदुर कहां गये। यह आपको विदित कृपा करके हम से कहो । क्या धनराष्ट जी दुखित होकर गंगा जी में नहीं हो गये। पिता पाण्डु के मरे पीछे जो हम सब बालकों को दुख से बचाया करते थे वे चाचा और चाची इस जग में कहाँ गये? सूतजी कहते हैं-है ऋषिश्वर! विकलता से पीड़ित हुआ सञ्जय अपने स्वामी धृतराष्ट्र को नहीं देख कर दुखित हुआ, युधिष्ठिर से ये वचन बोला-हे कुरुनन्दन! आपके ताऊ और चाचा के निश्चित किये हुए विचार को मैं नहीं जानता हूँ तथा मैं गान्धारी के अभिप्राय को नहीं जानता हूँ । अहो, उन महात्माओं ने मेरे को ठग लिया। इतने ही में तुम्बक गन्धर्व सहित नारद मुनि वहां आ गए । तब छोटे भाई सहित युधिष्ठिर जी खड़े हो नारदजी को आसन पर बिठाकर, पूजा कर उनसे कहने लगे-हे भगवान मेरे ताऊ धतराष्ट्र और चाचा विदुरजी यहाँ से कहाँ गये? और वह तपस्विनी जो कि मरे हुए पुत्रों के दुःख से पीड़ित है ऐसी गान्धारी माता कहाँ है? तब सर्वन्तर्यमी मुनि-उत्तम नारदजी बोले, हे राजन् ! कुछ सोच मत करो। अज्ञान से दी हुई अपने मन को विकलता को त्याग दो कि-->

अनाथ गरीब वन में गये हुए वे कैसे जीवन यापन करेंगे ऐसा विचार करना तुम्हारा बिलकुल अज्ञान है। यह सम्पूर्ण जगत एक भगवान ही है यानी भगवान से पृथक नहीं हैं, स्वयं दृष्टा है, और भोगों को भोगने वालों का आत्म रूप एक ही है सो भोगने वाले, भोग्य पदार्थ, इन सबों के स्वरूप करके अपनी माया से आप ही अनेक रूप में भान होता है ऐसे उसी परमेश्वर के तुम अनेक रूप देख। 

धृतराष्ट्र जी अपने भाई विदुर तथा गान्धारी भार्या सहित हिमालय पर्वत की दक्षिण दिशा में ऋषि के आश्रम में गये हुए उसी स्थान पर हैं जहाँ मीठे सोतों के विभागवाली गंगा जी है।

उसी से वहां सप्त ऋषियों की प्रीति के वास्ते सप्तसत्रे नाम तीर्थ कहाता है, 



तहां उसी तीर्थ में त्रिकाल समय स्नान कर और यथार्थ विधि अग्निहोत्र कर केवल जल का ही भोजन करके वे शान्त चित वाले हो रहे है। सम्पूर्ण इच्छा को त्यागकर वहां बैठे हैं। आसन को जीत कर यथा श्वांस को जीत कर छः इन्द्रीयों के वश में हरिकी धारणा करके रजोगुण, सत्वगुण, तमोगुण, के मल को त्यागकर, अहंकार से युक्त मन की स्थूल देह से एकता कर फिर उसको विज्ञानत्म में संयुक्त कर जैसे घटाकाश महाकाश में लीन किया जाता है तैसे ही उसी जीव को परब्रह्म में लीन कर इन्द्रियों की वृत्तियों को रोक कर, मायारूपी वासना को नष्ट कर सब प्रकार के भोजन को यानी विषयों को त्याकर, लकड़ी के तरह निश्चल होके बैठे हैं । उन्होंने सब वस्तुओं का त्याग कर दिया है, इसलिये तुम उनका विध्न मत करो और है राजन ! वे आज से पांचवे दिन अपने शरीर को त्यागेंगे। यदि तुम कहो कि मैं उनके शरीर को ही ले आऊँगा सो वह शरीर भी भस्म हो जावेगा, विदुरजी के दिये हुए ज्ञान से ध्रितराष्ट्र मोक्ष को प्राप्त होगा । यदि कहो कि मैं गान्धारी को ले आऊँगा सो जिस वक्त योग अग्नि से से कुटिया सहित उनके पति का शरीर दग्ध होने लगेगा तब बाहर खड़ी हुई सती पतिव्रता गान्धारी भी उसी अग्नि में प्रवेश कर जायगी। यदि कहो कि मैं विदुर को ही ले आऊंगा सो हे कुरुनन्दन ! तिस हाल को देख कर विदुर जी भाई को सुगति से हर्ष और वियोग के शोक से युक्त हो तहाँ से चलकर गंगा तट आदि तीर्थो के सेवन को चले जायेंगे। इस प्रकार कह के तुम्बर गन्धर्व सहित नारद मुनि तो स्वर्गलोक चलेगये फिर युधिष्ठिर जी ने मुनि के बचन को हृदय में रखकर शोक का त्याग कर दिया।

🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम तेरहवॉं अध्याय समाप्तम🥀।।


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