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श्रीमद भागवद पुराण छब्बीसवाँ अध्याय [स्कंध ३] (साँख्य योग्य वर्णन)

 श्रीमद भागवद पुराण छब्बीसवाँ अध्याय [स्कंध ३](साँख्य योग्य वर्णन) दो०--प्रकृति कर्म वर्णन किया,जैसे कपिल सुनाय। छब्बीसवें अध्याय में, धर्म कही समझाय॥ अपनी माता देवहूति को समझाते हुये श्री कपिल भगवान कह चुके तब देवहूति ने कहा-हे प्रभु ! मुझ स्त्री को ऐसा ज्ञान प्राप्त होना बहुत कठिन है। अतः भक्ति पूजा का मार्ग दर्शन देकर प्रकृति के भेद का वर्णन कीजिये । देवहूति के ऐसे बचन सुन कर कपिल देव जी बोले-हे माता! अब मैं तुम्हारे सामने अलग-अलग तत्त्व लक्षणों का वर्णन करता हूँ । मनुष्य के कल्याण करने वाले ज्ञान को कहता हूँ-- यह आत्मा ही अंतर्यामी है, सो यह जीवात्मा विष्णु की अप्रगट रूप और त्रिगुणमयी माया की इच्छा से लीला करके प्राप्त हुआ है। और यही जीवात्मा ज्ञान को अच्छादित करने वाली माया को देख कर जगत में ज्ञान चेष्ठा से मोहित हो, अपने स्वरूप को भूल गया। यद्यपि यह पुरुष साक्षी मात्र को, इसके इसी कर्तृत्वाभिमान से कर्म बंधन होता है, यह सब जीवन मरण आदि कार्य प्रकृति के अविवेक का किया ही होता है। पुरुष को शरीर, इन्द्रिय, देवता, इनका रूप हो जाने प्रकृति ही कारण हैं। और प्रकृति से परे जो पुरुष

बृम्हा जी द्वारा भगवान विष्णु का हृदय मर्म स्तवन।।

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 श्रीमद भागवद पुराण अध्याय ९ [स्कंध३] (बृम्हा जी द्वारा भगवान का स्तवन) दो०-विष्नू की स्तुति करी, बृम्हा खूब बनाय । या नौवे अध्याय में कहते चरित्र सुनाय ॥ श्री शुकदेव जी कहने लगे-हे परीक्षत ! जब वृह्मा जी ने भगवान नारायण का तप किया और शया पर दर्शन किया तो स्तुति कर कहा-हे प्रभु बहुत काल तक आपका मैंने तप किया अाज अापको मैंने जाना है हे भगवान ! आपके इस मन भावन स्वरूप से पृथक और कुछ भी नहीं है। जो कुछ और है, वह भी शुद्ध नहीं है क्योंकि संपूर्ण संसार में आपको अपनी माया के विकार से युक्त होकर आप ही अनेकानेक रूप में भाषित होते हो हे प्रभु! जो यह आपका विकल्प रहित आनंद मात्र सदा तेजोमय जगत का उत्पन्न कर्ता विश्व से भिन्न अद्वितीय तथा महा भूत इंद्रियों का कारण आपका रूप है उस से परे और कुछ भी नहीं है अंतः मैं आपकी शरण हूँ। आपने मुझ जैसे उपाशकों की मंगल के अर्थ ध्यान में चौदह भुवन का मंगल दायक चिदा नंद स्वरूप का दर्शन दिया है हे मङ्गल रूप भुवन ! हे स्तुति योग्य ! हे सम्पूर्ण संसार के सुहद! आपने त्रिलोकी रचने वालों में मुझे अपनी कृपा से अपनी नाभि कमल से प्रकट किया, एक आत्म तत्व आप सत्वादि गुण रूप

मैत्रैय जी द्वारा विद्वान् विदुर जी को आत्मज्ञान देना।

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 श्री मद भागवद पुराण अध्याय ७ [स्कंध ३] (विदरजी द्वारा ज्ञानतत्व पूछना) दोहा-कहे वचन हितमय विदुर, मैत्रेय ऋषि सम्मान । सो सप्तम अध्याय में, वर्णी कथा व्खान। श्री शुकदेवजी बोले-हे परीक्षत ! मैत्रेयजी के प्रति विद्वान विदुरजी ने कहा-हे मुने ! चैतन्य स्वरूप को क्रियाओं का और निर्गुण के गुणों की लीला से किस प्रकार सम्बन्ध हो सकता है सो आप कहो। क्यों कि खेल में उपाय करना और खेल करने की इच्छा करना ये दोनों प्रतिक्रियायें किसी अन्य के होने पर ही होती हैं। परन्तु सदैव अन्य से निवृत और तृप्त हैं उस ईश्वर को खेल करने की इच्छा कैसे हुई सो कहो । क्यों कि ईश्वर ने अपनी त्रिगुणमयी माया से संसार का निर्माण किया और वे उसी से पालन करते हैं, और फिर उसी से संहार करते हैं जो देश, काल, अवस्था तथा अपने व पराये से नष्ट ज्ञान नहीं होता सो वह ईश्वर माया के साथ किस प्रकार से संयुक्त हो सकता है। जो जीव सर्व व्यापकत्व भाग से सम्पूर्ण देहों में स्थित है, उस जीव को कर्मो से दुर्भागीपन या क्लेश का होना किस प्रकार संभव हो सकता है। यह हमारे मन में अज्ञान संकट के कारण खेद है कृपा कर महान मोह रूप दुख को दूर करो। श

विराट अवतार की सृष्टि का वर्णन।।

 श्रीमद भागवद पुराण अध्याय ६ [स्कंध ३] दो० महातत्व सव लाय के, जिमि विराट की सृष्टि । सो छटवें अध्याय में कही कथा करि हष्ठि ।। श्री शुकदेव जी ने राजा परोक्षत को समझाते हुये कहा हे परीक्षत! तब मैत्रेय जी ने विदुर जी से इस प्रकार कहना आरम्भ किया कि इस प्रकार पृथक रूप से भूल रही अपनी शक्तियों को समूह में अन्तर्यामी रूप से एक साथ प्रवेश किया। तब ईश्वर ने जान कर ईश्वर ने काल संज्ञा देवी को धारण कर तेईस तत्वों के उस चेष्टा रूप तत्वात्मक गुण में प्रवेश कर गुप्त कर्म की बोधक कर भिन्न-भिन्न तत्वों का जो गुण था उसको भगवान ने मिला दिया। अर्थात जो तत्व पृथक पृथक थे उन सबको उस प्रादि शक्ति में अपनी शक्ति से एकत्र कर दिया। तो वह मांस पिन्ड के रूप में बदल गया। उसी माँस पिन्ड का नाम आदि पुरुष हुआ और इसी आदि पुरुष को विराट रूप भी कहा गया है। यह विराट शरीर सम्पूर्ण आत्मा का अंश है और परमात्मा का अंश यह ईश्वर का वह आदि अवतार है कि जिसमें प्राणियों का समूह भान होता है। यह विराट देह पुरुष अर्थात वह आदि पुरुष जो अध्यात्म, अधिदेव, अधिभूत, भेदो से तीन प्रकारका और प्राण भेद से दस प्रकार का तथा हृदय स्थिति जीव भ