बृम्हा जी द्वारा भगवान विष्णु का हृदय मर्म स्तवन।।
श्रीमद भागवद पुराण अध्याय ९ [स्कंध३]
(बृम्हा जी द्वारा भगवान का स्तवन)
दो०-विष्नू की स्तुति करी, बृम्हा खूब बनाय ।
या नौवे अध्याय में कहते चरित्र सुनाय ॥
श्री शुकदेव जी कहने लगे-हे परीक्षत ! जब वृह्मा जी ने भगवान नारायण का तप किया और शया पर दर्शन किया तो स्तुति कर कहा-हे प्रभु बहुत काल तक आपका मैंने तप किया अाज अापको मैंने जाना है हे भगवान ! आपके इस मन भावन स्वरूप से पृथक और कुछ भी नहीं है। जो कुछ और है, वह भी शुद्ध नहीं है क्योंकि संपूर्ण संसार में आपको अपनी माया केविकार से युक्त होकर आप ही अनेकानेक रूप में भाषित होते हो हे प्रभु! जो यह आपका विकल्प रहित आनंद मात्र सदा तेजोमय जगत का उत्पन्न कर्ता विश्व से भिन्न अद्वितीय तथा महा
भूत इंद्रियों का कारण आपका रूप है उस से परे और कुछ भी नहीं है अंतः मैं आपकी शरण हूँ। आपने मुझ जैसे उपाशकों की मंगल के अर्थ ध्यान में चौदह भुवन का मंगल दायक चिदा नंद
स्वरूप का दर्शन दिया है हे मङ्गल रूप भुवन ! हे स्तुति योग्य ! हे सम्पूर्ण संसार के सुहद! आपने त्रिलोकी रचने वालों में मुझे अपनी कृपा से अपनी नाभि कमल से प्रकट किया, एक आत्म
तत्व आप सत्वादि गुण रूप ऐश्वर्य के द्वारा सुख देते हो सो वही दिव्य दृष्टि मुझको दीजिये, जिससे पूर्व की भाँति पुन: इस जगत
की रचना कर सकू। अपने दासों के प्रिय परमेश्वर ! हे शरणागत वरदायक ! हे विश्व नायक ! आप संसार को सुख देने के अर्थ लक्ष्मीरूप निजी शक्ति सहित सगुण अवतार धारण कर अनेक प्रकार की लीला करते हो। हे स्वामिन मुझे इस विश्व के निर्माण करने में प्रवृत्ति कहो जिस से मैं किसी अज्ञान के फन्दे में न फसू।
विष्णु का ब्रह्मा जी को ज्ञान प्रदान एवं कार्य का ज्ञान देना।।
मैत्रेयजी बोले-जब इस प्रकार वृह्माजी ने भगवाननारायण की स्तुति कीनी तो भगवान वृह्माजी के अभिप्राय
को मानकर मोह को दूर करके ये वचन कहे-- हे वेद गर्भ वृह्मन !
आलस्य को त्याग कर जगत रचने का उद्योग करो, जिस की
कामना तुम करते हो वह मैं तुम्हें पहले ही प्रदान कर चुका हूँ।
अतः अब तुम फिर से तप करके मेरे आश्रित हुई विद्या को धारण करो। अब मेरी माया से फैले सभी लोकों को तुम अपने
हृदय में प्रत्यक्ष देखोगे। तुम्हारी आत्मा अधिक प्रजा को विस्तार से रचकर भी खेद को प्राप्त नहीं होगी। जब तुम्हें भ्रम हुआ
कि अवश्य कमल कहीं स्थिर है तो मुझे खोजने को जब तुमने
प्रयत्न किया और यह धारणा निश्चय बनालो कि उसके नीचे
अवश्य कुछ है, मैंने तभी अपना स्वरूप तुम्हारे हृदय में प्रगट
कर दिया था। हेवृह्यन ! मैं तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हूँ, अतः
तुम्हारा कल्याण हो ऐसा मेरा कथन हैं। इस प्रकार ब्रह्माजी
को नारायण भगवान अपना स्वरूप दिख कर अंतर्ध्यान हो गये।
Comments
Post a Comment
Thanks for your feedback.