शौनकादि ऋषियों का सूत जी से भागवत के विषय में सम्वाद।

श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का प्रथम आध्यय [स्कंध १]

प्रारम्भदोहा:

मंगलमय श्री भगवान का, मङ्गल मय है,नाम। मंगलमय श्री कृष्ण है, जिनको मथुरा धाम ॥

प्रथम स्कन्ध प्रारम्भ  दोहा:  मंगलमय श्री भगवान का, मङ्गल मय है, नाम । मंगलमय श्री कृष्ण है, जिनको मथुरा धाम ॥      प्रथम अध्याय  (शौनकादि ऋषियों का सूत जी से भागवत के विषय में सम्बाद । )   भागवत शास्त्र की रचना के समय जो प्रतिपद्य परब्रह्म हैं, श्री वेद व्यस  जी महाराज उसका स्मरण करते हैं, जिस परब्रह्म परमात्मा से इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति संहार होता है और जो सब कार्यों में समान रूप से विराजमान है,तथा उन सबों से अलग हैं जो मृतिका घर और स्वर्ण आभूषणों पुराण, महाभारत इतिहास आदि धर्म शास्त्र वगैरह पढें हैं और जिन्होंने अच्छी तरह से शिष्यों को सुनाये भी ही हैं। अलग नहीं है, और जिसने ब्रह्माजी के वास्ते अपने मन करके वह वेद प्रका शित किया है कि जिस वेद में अच्छे-अच्छे पण्डित लोग भो मोहित होजाते हैं अर्थात वह वेद पढ़ने से भी ठीक समझ में आना मुश्किल है और जैसे कभी चमकते हुए कालर में जल और जल में स्थल अच्छा सा दिखाई पड़ता है इसी प्रकार जिस परमात्मा में सत्वादि तीन गुणों को रचा ये सब कार्य मात्र झूठा भी है तथापि जिस ब्रह्म की अधिष्ठान सत्ता से अच्छा सा मालुम होता है और जो आप स्वयं प्रकाश रूप है, तथा जिसने केवल अपने तेजमात्र से ही सब माया कपट को अलग किया है, ऐसे सत्य  स्वरूप पर परमात्मा को हम नमस्कार करते हैं । इस परम सांभर श्रीमद भागवत में ईर्ष्या और मत्सरता से रहित जो परम हंसजन है उसका परम धर्म वर्णन किया है। तथा कल्याणवायी  और तीन प्रकार के पापों को हरने वालो जो वस्तु यानी, परमार्थ तत्व है सो इसमें प्रतिपद वर्णन किया है, अन्य शास्त्रों के पठन पाठन से भी ईश्वर अन्तकरण में आते हैं परन्तु विलम्ब से आत है परन्तु कृती श्रवणेच्ठ्जनों के हृदय में श्री वेदव्यास जी कृत इस शास्त्र के पढ़ने व विचारने से तत्काल परमेश्वर हृदय में विराज मान होते हैं। क्योंकि ये श्रीमद्भागवत रूप फल वेद रूपी कल्पवृक्ष अच्छा पका हुआ, रस का भरा शुकदेवजी के मुखसे निकल कर पृथ्वी पर गिरा है जैसे कि ससार में भी शुक (तोते ) के मुख से उच्छिष्ट हआ फल अत्यन्त मीठा होता है इसी तरह वहा शुकदेव मुनि के मुख से प्रवृत्त ( कहा) है परमानन्द रस रूप यह फल है और अन्य फलों की तरह इसमें कुछ छिलका या गुठजी वगैरह शराब वस्तु नहीं है, इसलिये जो रस को जानने बाले चतुर जन हैं उनसे यह प्रार्थना है, हे रसिक जन ! मुक्ति पर्यन्त इस भगवत रूप फल को कानों से पीकर हृदय में पहु चाओ। श्री नैमिषारण्य क्षेत्र में शौनक आदि अट ठासी हजार ऋषीश्वर भगवान की प्राप्ति के लिये हजार वर्ष में पूरा होवे सो कार्य प्रारम्भ करके बैठे हुए थे। फिर एक दिन अपना नित्य नियम अग्निहोत्र आदि कर्म करके सब विराजमान थे इस समय सूतजी पधारे तब उन शौनक आदि ऋषीश्वरों ने सूतजी महाराज का सत्कार करके उत्तम सिंहासन पर विठाकर यह पूछा। कि हे सूतजी से उन ग्रंथों में आपने सब पुरुषों का निरन्तर सर्वोत्कृष्ट जो सुख करने वाला कोई साधन निश्चय किया हो वह आप कृपा करके हमें सुनाओ। हे सूत जी! हमलोग आपको आशीर्वाद देते हैं कि आपका कल्याण हो और आप यह भी जानते हो कि वसुदेव जी के घर देवकी के गर्भ से भक्तों कोपलक स्याम सुन्दर भगवान में किन लीलाओं के करने को अथ- अवतार को अच्छी तरह से सुनने की इच्छा रखने वाले हम लोग हैं इसलिये आप हमको सुनावे। है सूतजी! धीगळाजी भी परमेश्वर के चरण कमल से उत्पन्न होती है इसलिये निरन्तर गड़ाजल का सेवन करने से मनुष्य पवित्र होते हैं परन्तु जो जितेन्द्रिय शान्त ऋषीश्वर भगवान के चरणों का आश्रय रखते हैं ऐसे मुनि लोग केवल मेल मिलाप होते ही तत्काल पवित्र कर देते हैं। क्योंकि बड़ी श्रद्धा से सुनते हैं और तुम ऐसा विचार नहीं करना कि यज्ञ करते हुए इन्हें कहा फुरसत है? कारण हम लोग परमेश्वर की लीला सुनते हुए कभी भी तृप्त नहीं होते हैं क्योंकि रसज्ञ पुरुषों को भगवत चरित्र के सुनने में क्षण-क्षण में नवीन-नवीन स्वाद प्राप्त होता है।   मनुष्य  रूप धारण करने वाले साक्षात् परमेश्वर श्यामसुन्दरजी बलदेव जी सहित प्रगट होकर ऐसे-ऐसे पराक्रम करते भये कि जो मनुष्य से कभी नहीं हो सकते वे सब मनोहर चरित्र भी सुनाइये। क्यों कि हम कलियुग को आया हुआ जानकर इस कृष्ण भगवान के नैमिषारण्य क्षेत्र में बहुत बड़े सत्र यज्ञ का निमित्त करके कथा सुनने के वास्ते बहुत अच्छा अवसर पाकर यहाँ बैठे हैं अर्थात् सहस्त्र वर्ष पर्यन्त केवल भगवत कथा सुनने का ही हमारा संकल्प है। हम जानते हैं कि विधाता ने हमारे वास्ते समुद्र के तरने के निमित्त मानो नौका हवाला खेवइया मिल गया हो ऐसे आपके वर्शन कराये हैं। सो हमारा यह सन्देह दूर करो कि ब्राह्मण व धर्म की रक्षा करने वाले भगवान श्याम सुंदर जब अपने पर धाम को चले गये तब ये कर्म किसका आश्रय रहा सो आप कहो।


शौनकादि ऋषियों का सूत जी से भागवत के विषय में सम्बाद । 



भागवत शास्त्र की रचना के समय जो प्रतिपद्य परब्रह्म हैं, श्री वेद व्यस जी महाराज उसका स्मरण करते हैं, जिस परब्रह्म परमात्मा से इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति संहार होता है और जो सब कार्यों में समान रूप से विराजमान है,तथा उन सबों से अलग हैं जो मृतिका घर और स्वर्ण आभूषणों पुराण, महाभारत इतिहास आदि धर्म शास्त्र वगैरह पढें हैं और जिन्होंने अच्छी तरह से शिष्यों को सुनाये भी ही हैं। अलग नहीं है, और जिसने ब्रह्माजी के वास्ते अपने मन करके वह वेद प्रकाशित किया है कि जिस वेद में अच्छे-अच्छे पण्डित लोग भो मोहित हो जाते हैं अर्थात वह वेद पढ़ने से भी ठीक समझ में आना मुश्किल है और जैसे कभी चमकते हुए कालर में जल और जल में स्थल अच्छा सा दिखाई पड़ता है, इसी प्रकार जिस परमात्मा में सत्वादि तीन गुणों को रचाये सब कार्य मात्र झूठा भी है तथापि जिस ब्रह्म की अधिष्ठान सत्ता से अच्छा सा मालुम होता है और जो आप स्वयं प्रकाश रूप है, तथा जिसने केवल अपने तेजमात्र से ही सब माया कपट को अलग किया है, ऐसे सत्य स्वरूप पर परमात्मा को हम नमस्कार करते हैं । इस परम सांभर श्रीमद भागवत में ईर्ष्या और मत्सरता से रहित जो परम हंसजन है उसका परम धर्म वर्णन किया है। तथा कल्याणमयी और तीन प्रकार के पापों को हरने वालो जो वस्तु यानी, परमार्थ तत्व है सो इसमें प्रतिपद वर्णन किया है, अन्य शास्त्रों के पठन पाठन से भी ईश्वर अन्तकरण में आते हैं परन्तु विलम्ब से आत है परन्तु कृती श्रवणेच्ठ्जनों के हृदय में श्री वेदव्यास जी कृत इस शास्त्र के पढ़ने व विचारने से तत्काल परमेश्वर हृदय में विराज मान होते हैं। क्योंकि ये श्रीमद्भागवत रूप फल वेद रूपी कल्पवृक्ष अच्छा पका हुआ, रस का भरा शुकदेवजी के मुखसे निकल कर पृथ्वी पर गिरा है जैसे कि ससार में भी शुक (तोते ) के मुख से उच्छिष्ट हआ फल अत्यन्त मीठा होता है इसी तरह वहा शुकदेव मुनि के मुख से प्रवृत्त ( कहा) है परमानन्द रस रूप यह फल है और अन्य फलों की तरह इसमें कुछ छिलका या गुठजी वगैरह शराब वस्तु नहीं है, इसलिये जो रस को जानने बाले चतुर जन हैं उनसे यह प्रार्थना है, हे रसिक जन ! मुक्ति पर्यन्त इस भगवत रूप फल को कानों से पीकर हृदय में पहु चाओ। श्री नैमिषारण्य क्षेत्र में शौनक आदि अटठासी हजार ऋषीश्वर भगवान की प्राप्ति के लिये हजार वर्ष में पूरा होवे सो कार्य प्रारम्भ करके बैठे हुए थे। फिर एक दिन अपना नित्य नियम अग्निहोत्र आदि कर्म करके सब विराजमान थे इस समय सूतजी पधारे तब उन शौनक आदि ऋषीश्वरों ने सूतजी महाराज का सत्कार करके उत्तम सिंहासन पर विठाकर यह पूछा। कि हे सूतजी से उन ग्रंथों में आपने सब पुरुषों का निरन्तर सर्वोत्कृष्ट जो सुख करने वाला कोई साधन निश्चय किया हो वह आप कृपा करके हमें सुनाओ। हे सूत जी! हमलोग आपको आशीर्वाद देते हैं कि आपका कल्याण हो और आप यह भी जानते हो कि वसुदेव जी के घर देवकी के गर्भ से भक्तों के पालक स्याम सुन्दर भगवान में किन लीलाओं के करने को अथ- अवतारे, को अच्छी तरह से सुनने की इच्छा रखने वाले हम लोग हैं इसलिये आप हमको सुनावे। है सूतजी! श्री गंगा जी भी परमेश्वर के चरण कमल से उत्पन्न होती है इसलिये निरन्तर गड़ाजल का सेवन करने से मनुष्य पवित्र होते हैं परन्तु जो जितेन्द्रिय शान्त ऋषीश्वर भगवान के चरणों का आश्रय रखते हैं ऐसे मुनि लोग केवल मेल मिलाप होते ही तत्काल पवित्र कर देते हैं। क्योंकि बड़ी श्रद्धा से सुनते हैं और तुम ऐसा विचार नहीं करना कि यज्ञ करते हुए इन्हें कहा फुरसत है? कारण हम लोग परमेश्वर की लीला सुनते हुए कभी भी तृप्त नहीं होते हैं क्योंकि रसज्ञ पुरुषों को भगवत चरित्र के सुनने में क्षण-क्षण में नवीन-नवीन स्वाद प्राप्त होता है। मनुष्य रूप धारण करने वाले साक्षात् परमेश्वर श्यामसुन्दरजी बलदेव जी सहित प्रगट होकर ऐसे-ऐसे पराक्रम करते भये कि जो मनुष्य से कभी नहीं हो सकते वे सब मनोहर चरित्र भी सुनाइये। क्यों कि हम कलियुग को आया हुआ जानकर इस कृष्ण भगवान के नैमिषारण्य क्षेत्र में बहुत बड़े सत्र यज्ञ का निमित्त करके कथा सुनने के वास्ते बहुत अच्छा अवसर पाकर यहाँ बैठे हैं अर्थात् सहस्त्र वर्ष पर्यन्त केवल भगवत कथा सुनने का ही हमारा संकल्प है। हम जानते हैं कि विधाता ने हमारे वास्ते समुद्र के तरने के निमित्त मानो नौका हवाला खेवइया मिल गया हो ऐसे आपके वर्शन कराये हैं। सो हमारा यह सन्देह दूर करो कि ब्राह्मण व धर्म की रक्षा करने वाले भगवान श्याम सुंदर जब अपने पर धाम को चले गये तब ये कर्म किसका आश्रय रहा सो आप कहो।



।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अष्टम अध्याय समाप्तम🥀।।༺═──────────────═༻

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