वेद व्यास जी द्वारा भगवद गुण वर्णन।।
श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का दूसरा आध्यय [स्कंध १]
(भगवत गुण वर्णन )
श्री व्यासजी कहते हैं कि शौनकादि ऋषीश्वरों के इनप्रश्नों को सुन कर सूतजी बड़े प्रसन्न भये और उन महर्षि लोगों के वचनों की बहुत सराहना की, फिर कहना प्रारम्भ किया।वहां पहले सूतजी विनय पूर्वक श्री शुकदेवजी को प्रणाम करते हैं कि जन्मते ही जो शुकदेवजी, सब काम को छोड़कर यज्ञोपवीत के बिना ही सब मोह जाल को त्यागकर अकेले चले उस समयवेद व्यासजी मोह से उसके पीछे-पीछे दौड़े और कहा कि हेपुत्र! हे पुत्र ! खड़ा रह, ऐसे सुनकर शुकदेवजी अपने योगबलसे सबके हृदय में प्रवेश होने वाले बन के वृक्षों में प्रविष्ट होकर बोले, यानी उस समय वे वृक्ष ही शुकदेवजी के रूप से ये जबाव देते भये कि पिताजी ! न कोई पिता है न पुत्र है, क्यों झूठामोह करते हो ? ऐसे शुकदेवजी मुनि को हम नमस्कार करते हैं, और सब वेदों के सारभूत आत्म तत्व को विख्यात करनेवाले व अध्यात्म विद्या को दीपक की तरह प्रकाश करने वाले ऐसे गुह्य श्रीमद्भागवत पुराण को जो शुकदेवजी इस अन्धकार से छूटने की इच्छा करने वाले संसारी जीवों केअनुग्रह के वास्ते करते भये और जो सब मुनियों को ज्ञान देने वाले गुरु हैं, ऐसे शुकदेव मुनि की हम शरण को प्राप्त होते हैं। नारायण को, नरों में उत्तम नर को तथा देवजी व सरस्वती को नमस्कारकरके जयरूपी इस ग्रन्थ को बक्ता कहै।
सूतजी कहते हैं कि हे मुनीश्वरो ! आपने बहुत अच्छा पूछा, यह सब लोगों का मङ्गलरूप है कि जो आनन्दकन्द श्रीकृष्ण महाराज की कथाओं का प्रश्न किया, क्योंकि जिस श्रीकृष्णचन्द्र भगवान की कथा सुनने से मन प्रसन्न होता है और मनुष्यों का यही परम कल्याण है कि जिसधर्म के करने से परमेश्वर में जो ज्ञान को उत्पन्न करता है। जिन मनुष्यों के अधिष्ठान किये धर्म से यदि विष्णु भगवान की कथाओं में प्रीति नहीं उपजे तो वह धर्म निष्फल है। वहाँ ऐसाविचार करना चाहिये कि जिस धर्म से भगद्भक्ति द्वारा मोक्ष हो सकती है उस धर्म से धनादि द्वारा प्राप्त होना फल नहीं है, और जिस द्रव्य से निरन्तर धर्म हो सकता है उसधन से केवल इन्द्रियों की प्रीति मात्र अनेक विषय सुख प्राप्त होना फल नहीं है क्योंकि वे विषय जब तक प्राणी जीता है तभी तक फिर नहीं, और जीवन का यही फल है कि निष्काम कर्म करके भक्ति द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति हो जाये, और अनेक कर्मो के करने को प्राणी ने अपने जीने का फल मान रक्खा है सो जीने का फल नहीं है । तत्व को जानने वाले विद्वान लोग तो यही कहते हैं कि जो अद्वुत साक्षात् परमात्मा का ज्ञान हो जाय और उसी तत्व को उपनिषद जानने वाले ब्रह्म और हिरण्यगर्भोपासक परमात्माऔर सात्वत् भगवान कहते हैं । सो इस परमात्मा तत्व को श्रद्धावाले मुनीश्वर ज्ञान वैराग्य से मिली हुई वेदान्त आदि शास्त्र के सुनने से प्राप्त हुई निष्काम भक्ति से अपने में ही आत्मा को पहिचान लेते हैं । हे ऋषिश्वरो! इसलिये सब मनुष्यों ने जो अपना वर्णाश्रममें कहा हुआ जप, तप, पूजा पाठ आदि धर्म किया है उसकी सिद्धि यह जाननी चाहिए कि जिससे परमेश्वर प्रसन्न होवे ।इसलिये एकानमन करके भक्तों के स्वामी भगवान श्यामसुन्दर ही सुनने कीर्तन और सदा ध्यान करने के योग्य हैं । जिस परमेश्वरके ध्यान तलवार से विवेकी जन कर्म रूपी गाँठ को काट देते हैं, तिस परमेश्वर की कथा में कौन मनुष्य रुचि नहीं रक्खे याने सभी सज्जन पुरुष हरि को भक्ति करते हैं। परन्तु हे ऋषिश्वरो!एक यह बात है कि सुनने की इच्छा करने वाले श्रद्धावान पुरुषों को वासुदेव भगवान को कथा में रुचि बहुत से तीर्थों की तथा बड़े-बड़े महात्माओं की सेवा करने से होती है। श्रेष्ठ पुरुष के हितकारी भगवान श्रीकृष्ण अपनी कथा को सुनने वाले भक्तों के हृदय में विराजमान होकर उनके पाप को नष्ट करते हैं, फिर पाप दूर होजाने के बाद दिन प्रतिदिन भगवान के भक्तों की सेवा और संगती करने से विष्णुभगवान की उसे, अचल भक्ति हो जाती है । तब रजोगुण तथा इनसे उत्पन्नहुए काम, क्रोध, लोभ आदि विकार प्रबल नहीं होते हैं और इन काम आदि को करके उस भक्त का मन कभी विकल नहीं होता है।तब उसका मन सदा सत्वगुण में स्थिर रह कर प्रसन्न मन वाले विरक्त हुए तिस भक्त जनको भक्ति योग के प्रभाव से भगवत्तत्व का ज्ञान यानी आत्म ज्ञान हो जाता है। फिर आत्मज्ञान काअनुभव होने से हृदय की गांठ खुल जाती है यानी चेतन आत्मा और जड़ या कहिये अहङ्कार इन्हों की गाँठ खुल जाती है, तथा इसआत्मज्ञानी भक्त के सब सन्देह दूर हो जाते हैं व सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्म क्षीण हो जाते हैं। इसलिये पण्डितजन परम प्रीति करके प्रतिदिन वासुदेव भगवान के विशेष मनकी शुद्धि करने वाली भक्ति करते हैं। देखो सत्व, रज तम ये तीन माया के गुण हैं, इन्ही गुणों से संयुक्त हुआ परमपुरुष, ईश्वर इस संसार का पालनरचना व संहार करने के वक्त विष्णु, ब्रह्मा, शिव ऐसी संज्ञाधारणकर लेता है, यानी वह निराकर निर्लेप भगवान तत्व गुण से युक्त होकर विष्णुरूप धारण कर जगत का पालन करता है इसी प्रकार रजोगुण से ब्रह्मा, और तमोगुण से शिव कहलाता है, परन्तु उन तीनों भगवान की मूर्तियों से मनुष्य के कल्याण सत्वगुणमुर्ति वाले श्रीविष्णु भगवान के हो द्वारा होता है । जैसे पहिलेभूमि का विकार काष्ठ में धुआँ निकलता है, फिर तिस धुएं में वेनत्रयी में कहे हुए कर्मों को सिद्ध करने वाला अग्नि उत्पन्न होताहै, इस प्रकार ब्रह्म की प्राप्ति में काष्ठ की उपमा है और रजोगुणतो काष्ठ को उपमा है और रजोगुण धुआँ की उपमा है। तथा सत्वगुण ऐसा जानो कि साक्षात् अग्नि हैं, इसी प्रकार तमोगुण प्रधान, शिव से और रजोगुण प्रधान, ब्रह्मा से सतोगुण प्रधान, श्रीविष्णु भगवान का ही प्राधान्य समझना चाहिये। मुमुक्षुजन घोर रूप वाले पितर प्रवेश यज्ञादि देवताओं को त्यागकर केवल भगवान के शान्त रूप अवतारों को ही भजते हैं और किसी दूसरे देवताओं की निन्दा नहीं करते हैं, और जो राजसी प्रकृति वाले व तामसी प्रकृति वाले मनुष्य हैं, वे पुरुष उन्हीं राजसी प्रकृति पितर भूत देवताओं को धन दौलत व सन्तान की इच्छा से भजते हैं।
अब यह कहते हैं कि मोक्षदायी होने से केवल विष्णु भगवान का ही भजन कहना
क्योंकि विष्णु भगवान प्रधान हैं जिनमें ऐसे वेद हैं और यज्ञों में भी विष्णु भगवान प्रधान हैं,क्रिया यानी कर्म-काण्ड, जप, तप, पूजा, पाठ इन सबों में भी विष्णु भगवान प्रधान है, ज्ञान में भी भगवान मुख्य हैं, तपस्या में श्री विष्णु भगवान ही प्रधानता से माने जाते हैं दान ब्रतादि विषय के धर्म शास्त्र और स्वर्ग आदि की गति में भी विष्णुभगवान प्रधान हैं। वे ही भगवान आप निर्गुण हैं, तो भी; अर्थात सत्वादि गुणों करके लिप्त नहीं हैं परन्तु कार्य कारण रूप अपनी त्रिगुणमयी माया करके पहले इस विश्व को रचते हैं, फिर उसी माया करके उत्पन्न हुए आकाश आदि गुणों में भीतर प्रवेश हुए की तरह जानने में आते हैं । मानों गुणवान हैं ऐसे दीखते हैं, परन्तु, वास्तव में गुण सम्बन्ध मात्र से रहते हैं क्योंकि स्वात्मप्रकाश पूर्ण ज्ञानसे भरपूर हैं यानी माया से रहित हैं। जिसप्रकार एकही अग्नि अलग-अलग काष्ठोँ में जल्दी-जल्दी मालूम होती है जैसे जितना लम्बा चौड़ा काष्ठ हो वैसे ही अग्निदिखती है, परन्तु सिद्धान्त में अग्नि एक ही हैं। इसी प्रकार भूतात्मा, परमात्मा, भगवान, मनुष्य, पशु आदि यह सब परमेश्वर के सत्व आदि गुणों के प्रभाव से उत्पन्न हुए पंचतंत्र, इन्द्रिय,मन, तथा इन्हों में अपने रचे हुए चार प्रकार के जीवों में प्रविष्टहोकर, तिस-तिस शरीर के अनुसार विषय भोगों को अपनी इच्छा से भोगते हैं। यानी वही परमात्मा सबके अन्तःकरण में विराजमान हैं, और उन्हीं की सत्ता से सब इन्द्रियां अपने अपने विषय को ग्रहण करती हैं, और वह परमात्मा देवता कच्छप, मलावाराह आदि तथा मनुष्य देह भी श्रीकृष्ण आदि इन्ही सब लीला से अपनीअवतारों में प्रवेश होकर सरबगुण करके लोको का पालन करते हैं, क्योंकि वे लोक भावन है, अर्थात वही परमेश्वर सब लोकों के कर्ता है।
।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम द्वितीय अध्याय समाप्तम🥀।।
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