विधुर निति क्या है? कब कही ग्यी थी विदुर नीति?
।। श्री गणेशाय नमः ।।
सुख सागर
* तृतीय स्कंध प्रारम्भ *
मंगला चरण
दोहा-ब्रह्मा अनादि अखण्ड प्रभू, निर्गुण प्रभु जग ईश।
विघ्न विनासक सुख सदन, तुम पद नाऊँ शीश ॥
असरण सरण कृपाल हरि, सङ्कट हरण भुवाल ।
ज्ञान मुक्ति दे भक्त को, क्षण में करत निहाल ।।
हरि चरित्र महिमा अमित, सागर सुक्ख पुनीत ।
सदा सदा हरि चरण में, बढ़े दास की प्रीति ।।
यह तैंतीस अध्याय का, है तृतीय स्कध ।
नृपति परीक्षत से कहो, शुक्राचार्य निबन्ध
गुरु प्रताप सामर्थ भई, ले लखनी हाथ ।
भाषा भागवत की करत अत्रि कवी रघुनाथ ।।
*
प्रथम अध्याय*
( उद्धवजी और विदुरजी का सम्बाद)
दो०-उद्धवजी ने विदुर सो कृष्णा चरित कुह्यो गाय ।
सो पहले अध्याय में भाषा रचू बनाय ।।
विदुर जी का जीवन सार
उध्यव जी और विदुर जी का संवाद किसने किसे और कब सुनाया
राजा परीक्षत ने कहा-हे मुने! अब आप मुझे वह कथा
सुनाइए जो की उध्यव जी और बिदुरजी का सत्सङ्ग कहाँ और
कब हुआ जिसकी सराहना महात्मा जन किया करते हैं। सो
आप विस्तार सहित हमसे कहिये। श्री शुकदेवजी बोले-हे राजा
परीक्षत ! यह प्रश्न आपने अति उत्तम किया, जो तुमने किया
उसी का उत्तर नारायणजी ने लक्ष्मीजी को दिया वही प्रसङ्ग
लक्ष्मीजी ने शेषनाग को सुनाया, जिसे सुनकर शेषनाग ने वात्सायन मुनि को सुनाया फिर उन मुनि ने मैत्रेयजी को सुनाया।।
इतना सुनकर राजा परीक्षत ने श्री शुकदेवजी से कहा हे मुनि !
अब आप मुझे वह प्रसङ्ग सुनाइये कि श्रीकृष्ण से भेंट किस स्थान पर और कब हुई थी।
महाभारत की शुरुवात
श्रीशुकदेवजी बोले-हे राजन! जब
राजा धृतराष्ट ने अपने भाई के पुत्रों अर्थात् अपने भतीजे
पांडवों को पराया माना और अपने पुत्रों (दुर्योधनादि) को अपना प्राणाधार जाना तब दुर्योधन ने कुटिल बुद्धि से पांडवों को
लाक्षा गृह में ठहराकर आग लगवा दी परन्तु भगवान श्रीकृष्ण
को कृपापूर्वक सहायता से वे सकुशल रहे, तो फिर अन्याई दुर्योधन
ने भीम को मारने के लिये घात की और विष युक्त लड्डू बनवाकर खाने को दिये । परन्तु भगवान मुरलीधर की किरपा से
फिर कुशल रहा। तब दुर्योधन की डाह अग्नि और भी प्रज्वलित हुई परिणाम स्वरूप उसने अपने मामा शकुनी के द्वारा
धर्मराज युधिष्ठर को जुये में छल से हरा कर सारा राज पाट ले
लिया और द्रोपदी को भरी सभा में केश पकड़ कर घसीटते हुये
दुशासन द्वारा बुलबा कर वस्र हीन करने की आज्ञा दी। जब
वह अपनी इस नीच आसा में विफल हुआ तो उसने पांडवो को तेरह वर्ष का वनवास दे दिया। तब, जो उसने पांडवों को तेरह वर्ष का बनवास दिया उस समय भी भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से पांडवों की सर्वत्र रक्षा हुई थी।जब पांडव जन वनवास अबधि समाप्त कर आये तो उस काल भी अधर्मी दुर्योधन ने पांडवों का भागदेना स्वीकार न किया। उस समय कृपाचार्य, विदुर तथा श्रीकृष्ण और भी अन्य कई मान्य पुरष धृतराष्ट्र के बुलाने पर गये। तब इन महापुरुषों ने पंच रूप
का कार्य किया और दुर्योधन को बहुत समझाया कि वह पांडवों
का भाग पांडवों को देकर उस कलह से बचे कि जिसमें अनेक
वलिष्ठ लोग सर्व नाश को प्राप्त होते हैं। परन्तु दुर्योधन ने किसी
को भी बात को नहीं माना, और यहाँ तक कि भगवान श्रीकृष्ण
तो यहाँ तक भी कहा कि वह पांडवों को केवल जीविका के लिये
पाँच गांव दे दें किन्तु काल गति से पापी दुर्योधन को यह बात
भली न लगी, और उसने किसी की भी बात को न माना, मानना
तो अलग उसने भगवान श्रीकृष्ण के प्रति भी खोटे बचन कहे
और अपमान किया। तब भगवान श्रीकृष्ण तथा पितामह भीष्म
और द्रोणाचार्य आदि सभी ने धृतराष्ट को समझाया था कि राजन! तुम्हारा पुत्र तुम्हें स्वर्ग नहीं ले जायगा और पांडव नरक
नहीं ले जायेंगे फिर इतना मोह मत करो, अतः उचित यही है कि
पांडव भी तुम्हारे प्रिय भाई पाँडु के पुत्र हैं और तुम्हारे भतीजे
ही हैं अतः अवश्य इस झगड़े को निपटाने के लिये अपने पुत्रों
को समझाकर पांडवों को उनका भाग दिलवा कर कलह को होने
से रोकें।। पांडवों को संतुष्ट करने पर आपकी तथा आपके पुत्रों
की सब प्रकार से भलाई है। हे परीक्षत! अपने पुत्र दुर्योधन का
यह खोटा कर्म देखकर भी धृतराष्ट ने उसे नहीं रोका, बल्कि
श्रीकृष्ण आदि के कहने पर भी उन्होंने अपने पुत्र को नहीं समझाया। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने तो सभा के मध्य पुरुषों को
अमृत समान कल्याण कारक वचन कहे थे। तब महाराज धृतराष्ट ने उन बचनों को भी अधिक महत्व नहीं दिया था। जब किसी के कहने पर भी दुर्योधन न माना तब धृतराष्ट ने विदुर जी
को सम्मति पूछने के लिये अपने घर पर बुलाया और उस समय
बिदुरजी ने जो बचन धृतराष्ट्र को नीति के अनुसार जो वचन कहे थे, वह वचन आज तक दुनियां में विदुर नीति के नाम से कहे जाते हैं।
विदुरजी ने समझाया था कि, हे धृतराष्ट्र!आपका इसी में भला
है कि दुर्योधन को समझाकर पांडवों का भाग दिलवादो। अब
तक दुर्योधन द्वारा किये सभी अपराधों को युधिष्ठर ने झेला है
इससे आपको यह भी भली प्रकार ज्ञात हो चुका है कि पाण्डवों
में असाधारण धैर्य है वे अत्यधिक सहन शील हैं। वैसे यह भी
मत भूलो कि पाण्डव शक्तिशाली हैं यद्यपि तुम्हारे सौ पुत्र हैं
और पाँडव केवल पाँच हैं परन्तु वह इतने शक्तिशाली हैं कि,
अकेला भीम या अन्य कोई भी एक पांडव कौरवों को परास्त कर अपना भाग ले सकता हूँ इससे अच्छा यही होगा कि दुर्योधन को समझा कर उनका भाग उनको दिलवादो। युधिष्ठर आदि पाँचोंभाई बड़े
ही सज्जन हैं जिनके साथ फिर इसके अतिरिक्त महावली महा पराक्रमी
भीम आपको किस लिये हानिकारक है। पांडवों के पक्ष पर भगवान
श्रीकृष्ण हैं, जिनके साथ सम्पूर्ण राजा यदुवंशी और ब्राह्मण हैं, जिनसे विरोध किसी भी दशा में ठीक नहीं होगा
यदि आप कहें कि दुर्योधन मेरा कहा नहीं मानता है तो यह
बात ठीक नहीं है क्यों कि वह दुर्बुद्धि है और श्रीकृष्ण से विमुख
है अतः यह तो आपके कुल का नाश कराने पर तुला हुआ है।
अतः कुल के सुख के अर्थ ऐसे बेटे (दुर्योधन) का त्याग कर देना
ही ठीक होगा। पुत्र दुर्योधन तो धन और राज्य के मद में अंधा
हो रहा है, अपना भला तथा अपने कुलका भला चाहते हो तो
शीघ्र ही दुर्योधन से राज्य पद वापस लेकर कुल की रक्षा हित
पांडवों का भाग देदो। इसी में तुम्हारा और तुम्हारे वंशजो का
भला है। धर्म से विमुख होने पर तुम्हारा और तुम्हारे कुल का
सर्वनाश हो जायगा। जब बिदुरजी द्वारा इस प्रकार समझाने
पर भी घृतराष्ट्र ने कोई उत्तर न दिया और न कुछ धर्मरत कार्य
ही किया तो उन सब बातों को सुनने वाले दुर्योधन ने कुपित्त
होकर अपने अनुचरों को आज्ञा दी कि इस विदुर को भवन से
बाहर निकाल दो। उसके होठ कोप के कारण फड़कने लगे।
दुर्योधन सहित कर्ण, दुशासन, और शकुनी ने अनेक दुर्बचन
कहे। दुर्योधन ने कहा कि इस कपटी को यहाँ किसने बुलाया
था इसे तुरन्त बाहर करदो। अनेक प्रकार से दुर्वचन कह कर
विदुरजी का अनादर किया। यह दासी पुत्र हमारे टुकड़ों पर
पला हुआ हमारे ही विरद्ध हमारे ही शत्रुओं की कुशलता चाहता है। यह यहाँ रहने योग्य नहीं है इसे शीघ्र ही हस्तिनापुर से
बाहर निकाल दो। दुर्योधन द्वारा विदुर जी ने अपना अपमान
होते देख और उसके कहने पर सेवक विदुर की ओर आने लगे
कि विदुर को उठाकर निकाल दें, तभी विदुर जी ने अपने मन
में सोचा कि अगर कौरवों के किसी अनुचर ने मुझे हाथ पकड़
कर निकाला तो ठीक न हो अतः स्वयं ही निकल जाना ठीक
होगा, जान पड़ता है कि इस समय भगवान श्रीकृष्ण कौरवों का
नाश चाहते हैं । ईश्वर इच्छा ऐसी ही है कि जिससे किंचित भी
मन में व्यथा न मान कर वे अपने स्थान से उठकर चल दिये
और जो अस्त्र शस्त्र उनके पास थे वे सब सभा भवन के द्वार पर
रख दिये यहाँ तक कि शरीर पर केवल एक लँगोटी रहने दी
शेष वस्र भी उतार कर वहीं रख दिये।
विदुर जी के सर्व त्याग की कथा
राजा परीक्षत ! धनुषवाण आदि इस प्रकार द्वार पर
रखने का कारण यह था कि विदुर जी परम ज्ञानी थे। वह यह
जान चुके थे कि अब शोध ही कौरवों का विनाश हुआ जाता है
इस कारण वह सब को त्याग कर चले थे। दूसरा कारण यह रहा
होगा कि वह यदि अस्त्र-शस्त्र लेकर जाते तो दुर्योधन अपने मन
में यह सोचता कि कहीं विदुर जी पांडवों से न मिल जाँय यही सब
कुछ सोच विचार कर ही विदुर जी ने समस्त आयुध और
वस्त्रों को वहीं छोड़ा तब वे सब को त्याग कर एक वर्ष तक उत्तराखंड की यात्रा करते रहे।
महाभारत काल में विदुर जी की तीर्थ यात्रा
जहाँ जहाँ बृह्मा, शिव, आदि अनेक रूप
धारण कर पृथ्वी पर अनेक स्थानों में सहस्त्र मूर्ति भगवान विराज
मान हैं तहाँ-तहाँ विदुर जी ने बिचरण किया, पुरों में, उपबनों में
पर्वतों, व कुन्जों में, तथा निर्मल जल वाली नदियों में तथा अनेक
पुष्करादि सरोवरों में और ईश्वर की प्रतिमाओं से विभूषित क्षेत्र
तीर्थों में विदुर जी ने विचरण किया। पश्चात अनेक दिनों के
बाद विदुर जी प्रभाष क्षेत्र में पहुंचे। यहाँ पर मैत्रिय ऋषि का आश्रम
था वे यहीयर आये जो यमुना नदी के तट पर स्थिति थीं, वे वहाँ
बहुत दिनों तक रहे। इस प्रकार भरत खंड में धूमते हुये विदुर
जो जितने दिनों में प्रभास क्षेत्र में पहुँचे उतने दिनों में भगवान
श्री कृष्ण जी की सहायता से पाँण्डवों ने कौरवों तथा उनके संगी
साथी अत्याचारी क्रूर राजाओं को मार कर हस्तिनापुरी का
राज्य प्राप्त कर लिया था, अर्थात् महा भारत हो चुका था और
युधिष्ठिर महाराज चक्रबर्ती राजा हो चुके थे। वहीं पर उन्होंने
यह सब समाचार जाना कि पाण्डवों द्वारा कौरवों का नाश हो
चुका है और अब पाण्डव ही राजा हैं। विदुर जी ने सुहृदय
पाण्डवों की स्पधा के कारण से यह सब वृतांत सुन कर भी अत्यंत
शोक करते हुये भी विदुर जी ने यह सब परमेश्वर की माया को
प्रवल जान कर तथा काल की गति से होन हार जान कर निसंदेह
हो सरस्वती के पच्छिमी तट पर चले गये उस तट के समीप
ग्यारह तीर्थ हैं, वृम्हा, विष्नु,, शिव का तीर्थ स्थान, तथा शुक्राचार्य जी का मंदिर, और, मनु जी का स्थान, व प्रथु भवन, एवं
अग्नि कुन्ड, तथा असित देवल ऋषि का स्थान, और वायु स्थान का
तीर्थ तथा गौशाला, स्वामी कार्तिकेय का मंदिर और श्राद्ध देव, मनुसभा इन सभी स्थानों में दर्शन किये ओर थोड़े-थोड़े दिन यहाँ
निवास भी किया। अनन्तर सैराष्ट, ऋद्धि धन सम्पन्न सौवीर,
मत्स्य, कुरू जौगल, इन देशों को उलंघन करके किसी काल में
यमुना जी के समीप आये,
विदुर जी का उध्यव जी से कहाँ हुआ समागम?
तहाँ श्री कृष्ण भगवान का बैकुन्ठ गमन
देख कर वियोग से युक्त श्री उद्धव जी आये थे। वहीं पर विदुरजी और उद्धव जी की समागम हुआ। वहाँ पर उद्धव जी विदुर
जी को अत्यत प्रेम से गले लगा कर मिले, और भगवान श्री कृष्ण
जी की तथा उनके बंधुजनों और कुटंबी जनों की विदुर जी ने
उद्धव जी से कुशल पूछी। फिर विदुर जी ने भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी तथा बलिराम जी सहित सूरसैन जी के घर की कुशल
पूछी। तथा कौरवों और पांडवों महावली प्रद्युम्न जी, सात्वत,
वृष्णि, भोज, दाशाहक, महाराजा उग्रसेन तथा जामवंती के पुत्र
साम्ब जी, सात्यकी, शवफलक के पुत्र अक्रुर जी, देवकी, अग्निरुद्ध
चारूदेष्ण, गद आदि सभी की कुशलता पूछी। हे उद्धव! धृतराष्ट्र
का हमें बड़ा शोक है, कि वह नर्क में गिरेगा जिस ने अपने मृत
बड़े भ्राता पान्डु से द्रोह किया और अपने पुत्रों के आधीन होकर
तुझ सुहृदय को भी नगर से निकाल दिया। मैं तो हरि की कृपा
जिस तरह मुझे कोई न जान सके उस तरह अपने रूप को
छिपा कर पृथ्वी पर विचर रहा हूँ। तब उद्धव जी ने विदुर जी
को सब समाचार दिया कि किस प्रकार पाण्डवों ने श्री कृष्ण की
सहायता से कौरवों को मार कर एक छत्र राज्य किया तथा भगवान कृष्ण का किस प्रकार बैकुन्ठ गमन हुआ तथा किस प्रकार
यादव जन मृत्यु को प्राप्त हुये। जब विदुर जी को उद्धव जी द्वारा
दुर्योधन का मरना और युधिष्ठर का राज्य करना आदि जाना तो,
प्रथम शोक किया पश्चात भगवान श्री कृष्ण की यही इच्छा जान
कर मनमें धीरज धारण किया। तब उद्धव जी से विदुर जी ने
तीर्थरूप पवित्र भगवान श्री कृष्ण जी की वार्ता कहने के लिये कहा।
।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम प्रथम अध्याय तृतीय स्कंध अध्याय समाप्तम🥀।।༺═──────────────═༻
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