श्रीकृष्ण जी का उध्यव जी को आत्मज्ञान।।


*श्रीमद भागवद पुराण*चौथा अध्याय*स्कंध ३

विदुरजी का मैत्रेयजी के पास आना

दोहा-उद्धव उत्तराखड गये,विदुर चले दुख पाय।

मैंत्रेय ढिग आये चले, वह चौथे अध्याय ॥




उद्धवजी ने कहा-हे विदुर! भगवान श्रीकृष्ण से ज्ञान के पाने के कारण मेरा अन्त करण ससांरिक मोह-माया से विरक्त हो गया है किन्तु भगवान श्रीकृष्ण के वियोग का जो कष्ट मैं सहन कर रहा हूँ उसे किसी प्रकार भी जिभ्या बखान नहीं कर
सकती है। यदि आप सुनना चाहते हैं तो ये सब मैत्रेय ऋषि से पूछ लेना । वे उस समय भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष उपस्थित थे और वे कुछ ही दिनों में यहाँ पर ही आयेगे।
श्रीकृष्ण का वेकुँठ गमन
जिस समय भगवान श्रीकृष्णजी अन्तर्ध्यान होना चाहते थे, भगवान श्रीकृष्ण अपनी उस योगमाया की गति को देख कर सरस्वती नदी में आचमन करके एक पीपल के वृक्ष की जड़ में विराजमान हुये उन्होंने ही हमसे कहा कि तुम बद्रिकाश्रम को जाओ। जिन्होंने सम्पूर्ण विषय सुख को त्याग दिया ऐसे पुष्ट शरीर वाले कृष्ण भगवान अपनी पीठ के सहारे से पीपल के वृक्ष के नीचे विराजमान थे। उस समय श्री वेदव्यासजी के परम मित्र सिद्धि दशा को प्राप्त हुये श्रीमैत्रेयजी लोक में विचरते-बिचरते वहाँ आ पहुँचे
तब आनन्द भाव से नीचे ग्रीवा किये मैत्रेय को आया हुआ देख कर अनुराग भरी मन्द मुस्कान से भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-हे मैत्रयजी ! मैं तुम्हारी मनो भावनाओं को भली प्रकार जानता
हूँ अतः आप धीरज धरें। मेरी माया आपको नहीं सतायेगी, क्यों कि आप मेरे भक्त और पूर्व जन्म के देवता हैं, इस जन्म में आपने श्रीवेदव्यासजी के भाई और पाराशर ऋषि के पुत्र के रूप
में जन्म लिया है। वात्सायन ऋषि ने आपसे जो भागवत धर्म कहा है आप उसी धर्म का स्मरण करते रहें, आप उसी धर्म के सहारे संसार सागर से पार हो जायेंगे। हे बिदुरजी ! सच्चिदानन्द
आनन्द कन्द श्री कृष्णचन्द्र जी के ये वचन सुनकर मैत्रेयजी ने उत्तर दिया कि हे परब्रह्म प्रभु! आपके चरित्रों का ध्यान करते हुये मुझे महान आश्चर्य होता है। आपके सामने स्वयं
काल भी आँख उठाकर नहीं देख सकता है। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की अनेक प्रकार स्तुति करने के पश्चात् श्रीमैत्रेय जी वहाँ से वापिस चले आये। तत्तपश्चात योगेश्वर भगवान श्री कृष्णजी ने मुझसे कहा कि हे साधो! हमारी कृपा से यह तुम्हारा अन्तिम जन्म है अब आगे पुर्नजन्म नहीं होगा। फिर मेरे हृदय के अभिप्राय को समझकर मेरे उद्धार के अर्थ भगवान ने आत्मा
को परमस्थिति तथा भक्ति का उपदेश किया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने स्वयं ही तत्व ज्ञान के मार्ग को पढ़कर मुझे परम आत्म तत्व का ज्ञान कराया। अब मैं भगवान के चरण में प्रणाम
कर परिक्रमा दे वियोगों से दुखित हो गया। मैं उस भगवान के दर्शन से प्रसन्न और विरह पीड़ित हो प्रभु के प्रिय बद्रिका आश्रम मंडल को जाऊँगा। वहाँ पर नर नारायण आकल्यान्त तप करते हैं। अब मैं उनके आदेशानुसार बद्रिकाश्रम जा रहा हूँ, जहाँ मैं देह को त्यागूगा। यद्यपि तुम यह कहो कि ज्ञान प्राप्त होने पर भी मेरे नेत्रों से आँसू क्यों बह रहे हैं तथा इस प्रकार शोक क्यों
हो रहा है। इस विषय में मेरा यह कथन है कि, श्री कृष्ण चन्द्रजी की दयालुता और स्नेह का स्मरण करके उनके अलग होने का दुख मुझे एक पल के लिये भी नहीं भूल पाता हुँ। मैं उसी
ज्ञान के बल से अभी तक जीवित हूँ अन्यथा मेरे प्राण भी भगवान श्री कृष्ण चन्द्र से विछुड़ने के पश्चात अब तक कभी का इस शरीर को त्याग कर चले जाते। इस प्रकार उद्धव जी से अपने
बाँधवों का बध सुन कर विदुर जी को अति शोक हुआ जो उन्होंने अपने ज्ञान से उस शोक को दूर किया। श्री कृष्ण चन्द्र जी के वंश का विध्वंश सुन कर और उद्धव को बद्रिकाश्रम को जाता
देख कर विदुर जी ने उनसे कहा हे उद्धव ! योगेश्वर कृष्ण भगवान ने तुमसे जो परम ज्ञान कहा सो वह ज्ञान तुम हमको कहो। यह सुन
उद्धवजी ने कहा-हे विदुरजी! यदि आप उस तत्व ज्ञान को जानना चाहते हो तो मैत्रयजी की आराधना करो, क्यों कि मेरे समक्ष भगवान ने तुम्हारे लिये ज्ञानोपदेश करने के लिये मैत्रेयजी को आज्ञा दी थी। श्रीशुकदेवजी बोले हे राजा परीक्षत ! उस रात्रि को उद्धवजी ने यमुना तट पर ही निवास किया जो वह रात्रि क्षण भर के समान ही व्यतीत हो गई। तब प्रातः होते ही उद्धव
जी वहां से उठकर बद्रिकाश्रम को चले गये। वहाँ पहुँच कर भगवान श्यामसुन्द श्रीकृष्ण के चरण कमलों का स्मरण करते हुये योगाभ्यास द्वारा अपनी देह त्याग कर श्री उद्धवजी ने भगवान
के परम धाम को प्राप्त किया। इतनी कथा को सुन कर राजा परीक्षत ने मुनि श्री शुकदेवजी से पूछा हे वृह्मन ! जब दुर्वाषा ऋषि के श्राप से यदुवंशियों में मुख्य मुख्य सब नाश हो गये और
भगवान श्रीकृष्ण ने भी इस श्राप को धारण कर इस शरीर का त्याग किया तो फिर उद्धवजी किस प्रकार से जीवित बचे रहे यह महान अश्चर्य है अतः इस कारण का निवारण कीजिये। श्री शुकदेवजी बोले हे राजन! श्री कृष्ण ने अपने कुल के संहार और भौतिक शरीर को त्यागने के समय यह विचार किया कि जब मैं इस लोक को त्याग दूंगा तो मेरे पश्चात् मेरे इस परम ज्ञान
को आत्म ज्ञानियों में उद्धवजी के अतिरिक्त, अन्य कोई व्यक्ति समझने योग्य नहीं है। इस लिये ये मेरे सम्बन्ध के ज्ञान को लोगों को उपदेश करने के लिये यहीं पर रहेगा । अतः यही कारण से
उद्धवजी को उस श्राप का कोई प्रभाव न हुआ। तब बिदुरजी ने भी यह विचारा कि भगवान कृष्ण ने निज धाम जाते समय मेरा स्मरण किया यह बात विचार कृष्ण वियोग में प्रेम से विव्हल
हो रोने लगे। कुछ दिन यमुना तट पर खोज कर मैत्रयजी को देखा। जब वहां न मिले तो वह उनकी खोज में गंगा तट पर जा पहुँचे और भमण विचरण करते करते मैत्रेयजी की खोज करने लगे।
।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम चतुर्थ अध्याय समाप्तम🥀।।

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