श्रीमद भागवद पुराण उन्तीसवां अध्याय [स्कंध४]।।नारद जी द्वारा जनम से मृत्यु के उपरांत का पूर्ण ज्ञान।।


एके साधे सब सधे। सब साधे, सब जाये।। बुद्धि।।  श्रीमद भागवद पुराण उन्तीसवां अध्याय [स्कंध४]  (उपरोक्त कथन की व्याख्या ) नारद जी द्वारा जनम से मृत्यु के उपरांत का पूर्ण ज्ञान।। दोहा-करि प्रकाश अध्यात्म का, नारद मुनि व्याख्यान । उन्तीसवें अध्याय में, समुचित किया निदान ।।   श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षित मैत्रेय जी द्वारा विदुर से जो कथा वर्णन की है उसमें नारद मुनि ने राजा प्राचीन वर्ही से जो आत्म ज्ञान प्रदान करने के लिये कथा का प्रकाश किया तो राजा प्राचीन वर्हि ने पूछा-हे देवर्षि! आपने जो आत्म ज्ञान देने के निमित्त जो वचन कहे हैं, मैं जोकि कर्म वासनाओं से फंसा हुआ संसारी मनुष्य जिसे किसी प्रकार ज्ञान नहीं वह किस प्रकार समझ सकता हूँ । सौ हे मुने ! आप मुझे इस आत्म ज्ञान विषय को स्पष्ट रूप से समझाने की कृपा करो। प्राचीन वर्हि के यह वचन सुन नारद जी बोले-हे राजन् ! अब मैं तुम्हें उपरोक्त कहे आत्म ज्ञान कथन को भिन्न-भिन्न करके समझाता हूँ।    मैंने प्रथम कहा है कि राजा पुरंजन और उसका अभिन्न, मित्र अविज्ञात था । सो पुरंजन तो जीवात्मा जानो और अविज्ञात को साक्षात परमात्मा (ईश्वर) जानो । वह जीवात्मा अपने कर्मों के प्रारब्ध से देह को प्राप्त करता है । तब इस जीवात्मा को माया के गुणों को भोगने की लालसा हुई तो सर्वोत्तम उसने मनुष्य देह को माना तब उसको प्रारब्ध से प्राप्त किया। अब आगे हमने कहा है कि राजा पुरंजन (जीव) को एक स्त्री मिली थी, सो वह तुम वह स्त्री रूप बुद्धि को जानो । जिसके कारण वह अपना पराया करके भेद भाव की दृष्टि से मानता है । इसी के कारण ही वह ऐसा कहता है कि यह मेरा है वह मेरा है वह पराया है यह सब ममता,उसी बुद्धि रूपी स्त्री के कारण ही होता है।   हे राजन् ! हमने अपने कथन में राजा पुरंजन के दस मित्र कहे हैं सो वे दस इन्द्रियाँ हैं जो कि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। इन्हीं के द्वारा जीव सांसारिक विषयों को भोगता है । जो उस पुरंजनी ( देह) नाम स्त्री की सखियां कहा ३०१ हैं वे बुद्धि की वृत्तियाँ जाननी चाहिये, और जो पाँच शिर वाला सर्प कहा है जो महाबलवान बताया था, जोकि पुरंजनी की नगरी की रक्षा करता है, वह पाँच प्रकार का प्राण जानना आहिये। जो महा बलवान कहा है वह इन्द्रियों का नायक मन को कहा है। जो पाँचौं विषय हैं, इन्हें पाँचाल देश जानना चाहिये । जो नाथद्वारा वाली नगरी (पुर) कही है सो वह नौ द्वार बाली देह को जानना चाहिये। जो पुरंजन के साथ सेना कही है यह ग्यारह इन्द्रियों को जानना चाहिये । आखेट करना जो बताया है वह पाँच हत्या हैं, जो चंद्रवेत कहा था वह इस वर्ष जानना चाहिये। क्योकि इस वर्ष से ही काल प्रमाण हुआ करता है ।   जो हमने अपने व्याख्यान में तीन सौ साठ गंधर्व कहे थे सो इस वर्ष के ३६० तीन सौ साठ दिन जानना चाहिये । जो ३६० तीन सौ साठ उनकी गंधर्व स्त्रियाँ कही हैं वे सब रात्रि समझनी चाहिये । इनमें भी हमने इनमें से आधी को श्वेत वर्ण तथा आधी को काले वर्ण वाली कहा है, सो वे सब शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के हिसाब से रात्री समझना चाहिये । सो यह रात्रियाँ परिभ्रमण करके आयुको क्षीण किया करती हैं । हमने बताया कि काल कन्या ने राजा पुरंजन का वरण किया सो वह काल कन्या वृद्धावस्था को जानना चाहिये । इसे यवनों के राजा मृत्यु ने जीवों के देह का क्षय करने के लिये अपनी बहिन बनाना स्वीकार किया था । मृत्यु के चारों ओर घूमने वाले जो सैनिक कहे हैं वे सब चिन्ता रोग आदि वीर हैं। प्रज्वार जो कहा गया है वह शीत तथा उष्ण दो प्रकार का ज्वर कहा है। यही नाना प्रकार से शरीर को क्लेशित करते हैं। जैसा कि हमने कहा है कि नगरी को प्रज्वार की सैना ने घेर लिया था। और उसे नाना प्रकार से कष्ट पहुँचा कर नगर को लूटना चाहते थे । यहाँ पर है राजन् ! ये विषय समझने का है कि यह जीवात्मा यह जानता है कि वह स्वयं परमात्मा का ही अंश है, अर्थात् एक प्रकार से वह परमात्मा स्वरूप ही है परन्तु माया के गुणों में फँसकर प्राण, इन्द्रिय और ममता से कर्म करता हुआ अनके धर्मों को ही शुद्ध मान कर क्षुद्र विषयों की तृष्णा करके अहंकार के वशीभूत हो सौ वर्ष तक नाना प्रकार के दुखों को भोगता हुआ देह में रहता है। यही कारण है कि यह जीव स्वयं परमात्मा का स्वरूप होने पर भी देह के अभिमान के कारण सात्विक, राजस, और तामस कर्म किया कर ना है । इन्हीं सब किये हुये कर्मों के कारण ही अर्थात कर्मानुसार वह जीव पुरुष, स्त्री, नपुंसक, देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, प्रादि का जन्म पाता रहता है । जिस प्रकार भूख से पीड़ित  हुआ कुत्ता भोजन को खोज में जगह जगह घूमता है। परन्तु उसे अपनी प्रारब्ध के अनुसार ही कहीं पर डडा पड़ता है तो कहीं पर कुछ खाने को भी मिल जाता है। इसी प्रकार यह जीवात्मा भी अपने कर्मों की प्रारब्ध के अनुसार ही पृथ्वी और अंतरिक्ष में भ्रमण करता रहता है । अपने किये के फलानुसार विभिन्न प्रकार की योनियों में प्राप्त करके दुख सुख को भोगता रहता है जिस प्रकार कोई मनुष्य अपने सिर पर बोझा रखकर ढोता है और उस बीच जत्र बोझ से शिर थक जाता है तो वह उसी बोझ को कंधे पर कर लेता है, और फिर कंधा थकने पर शिर पर रख लेता है। परन्तु ऐसा करने से उसका बोझा कम नहीं होता है । उसे वह बोझा तो ढोना ही पड़ता है । इसी प्रकार प्राणी भी अपने कर्म बंधनों से मुक्त नहीं हो पाता है। क्योंकि कर्मों की वासना को कर्मों के द्वारा नहीं मिल सकते । इसी कारण वे सब प्रतिकार झूठे हैं। जिस प्रकार पहले देखे हुये स्वप्न को पीछे देखा हुआ स्वप्न यथार्थ रूप से दूर नहीं कर सकता है। उसी प्रकार एक कर्म दूसरे कर्म को मिटा नहीं सकता है। अतः कहने का तात्पर्य यह कि जीव जो कर्म करता है उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है। चाहे वह खोटा कर्म हो चाहे अच्छा कर्म हो । जैसे कि कोई जब खोटे कर्म करता है, और उन खोटे कर्मों के फल की दूर करने के लिये कुछ अच्छे कर्म करता है, तो उसे अपने पहिले किये खोटे कर्म का फल भोगना पड़ेगा, और जो अच्छा करम किया है उसका फल भी भोगना पड़ेगा । यद्यपि स्वप्न असत्य है परन्तु जब तक शरीर की अवस्था मन सहित उपाधि स्वरूप रहती है तब तक शरीर की स्वप्न अवस्था रहती है। इसी प्रकार यह संसार भी मिथ्या है परन्तु जब तक चित्त में विषयों का धयान रहता है तब तक वह मिट नहीं सकता है। हे राजन ! यदि भगवान वासुदेव श्री नारायण जी की समाधान पूर्वक अत्यन्त प्रीति से भक्ति योग धारणा किया जावे तो ऐसा करने से ज्ञान और वैराग्य प्राप्त हो जाता है। जो कोई मनुष्य श्रद्धा पूर्वक भगवान के कथा रूप अमृत को अध्ययन करके श्रवण करते हैं, उन्हें थोड़े ही समय में भक्ति योग प्राप्त हो जाता है । इसे प्राप्त करना भी कोई ऐसा विशेष दुर्लभ भी नहीं है क्योंकि भगवान की कथा रूप अमृतमयी नदियें महात्मा जनों के मुखार विन्दु से नित्य ही बहती रहती हैं। सो हे राजन् ! उन नदियों के अमृत रूपी वचन जल को जो लोग सावधान हो कानों द्वारा पान करते हैं वे लोग क्षुधा, तृषा, भय, शोक, मोह से कभी स्पर्श नहीं हो पाते हैं। और स्वभाव से उत्पन्न क्षुधा तृष्णा आदि विकारों से उपद्रव युक्त हुआ यह जीवात्मा सर्वदा हरि कथा रूप अमृत सागर में पहुँच कर प्रेम रूपी क्षुधा को पान नहीं करता है । हे राजन् ! यज्ञादि कर्मों के द्वारा परमार्थ की भावना करना केवल अज्ञान ही है। यह सब कर्म तो केवल सुनने और करने में ही भले जान पड़ते हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं कि वेद केवल करने पर निहित अर्थात (छुपा हुआ)  है सो वे लोग वेदों के तात्पर्य को नहीं जानते हैं । जिसमें भी तूने तो अपने महा अभिमान का परिचय देने के लिये अनेकों पशुओं का बध किया है। क्योंकि तू अज्ञानता के वश हो केवल कर्म को ही प्रधान मानता है, और उस ईश्वर को तू नहीं जानता हैं जो कि उन सभी कर्मों का फल देने वाला है । जिस कर्म के करने से भगवान प्रसन्न हो वही कर्म संसार में श्रेष्ठ है, और जिस प्रकार से भगवान में बुद्धि लगे वह प्रकार ही श्रेष्ठ विद्या है, तथा इन सबके प्राप्त करने पर ही उसका वर्ण और आश्रम श्रेष्ठ है ।   इस प्रकार कहने के पश्चात नारदजी ने प्राचीन वर्हि से इस प्रकार कहा-हे राजन्! जो तुमने प्रश्न किया था वह सत्र मैंने तुमसे कहा, अब तुम्हारे सामने "गूढ़ार्थ बात को मैं प्रकट करता हूँ। जो तुम चित्त लगकर सुनो।   ... एक मृग जिसकी पीठ में ब्याध का वाँण लगा हुआ है, और उसके सामने अनेक जीवों को मार कर खाने वाले भयानक भड़िये खड़े हैं, और वह मृग तुच्छ पदार्थों को चरने के लिये भ्रमरों के गुंजाहट के शब्दों से लुभाया हुआ फुलवाड़ी में ही चरने में आसक्त हो रहा है। क्या तुम बता सकते हो कि वह मृग कौन हैं और कहाँ पर है जो इन सबका भय न मानकर आगे ही बढ़ता जाता है । हे राजन् ! यदि तुम नहीं जानते हो तो इसका अन्वेषण करो । नारद जी के इस प्रकार कहने पर राजा प्राचीन दहि इधर-उधर को देखने लगा। तब नारद जी बोले-हे नरनाथ ! आप इधर उधर क्या देखते हो । राजा ने कहा-मैं उस मृग को खोजता हूँ जिसका आप वृतान्त कहते हो । तब नारद जी ने कहा-हे राजन्! वह मृग मैं तुम्हें बताता हूँ कि वह मृग तुम हो जो कि रस सहित स्त्रियों वाले घरों में वाटिका के फूलों की सुगंधि के समान तुच्छ सुख को ढूढ़ते हो । भँवरो के समान स्त्रियों की मधुर वाणी के गुजाहट में तुम्हारे कान ललचाते रहते हैं । अपनी आयु को हरते हुये भेड़ियों के समान अहोरात्रि को जानो । जो कि इन्हीं दिन रूपी भेड़ियों के आये खड़े निर्भय हुये घरों में घुसे विहार कर रहे हो । परीक्षा रूप से काल रूपी ब्याधा मृत्यु रूपी वॉण को लिये तुम्हें बांधने के लिये तत्पर खड़ा है। सो हे राजन् ! काल के वाण से भिन्न हृदय वाले जीवात्मा को तुम देखने के समान योग्य हो । सो हे राजन्! तुम अपने आप को उस मृग के समान विचार कर वित्त को रोक कर इन्द्रियों को विषय से हटाकर गृहस्थाश्रम को त्याग कर भगवान को प्रसन्न करो। नारद जी की इतनी बात सुनकर राजा प्राचीन वर्हि ने कहा-हे मुनि ! आपके कथन को मैंने सुना और सुनकर मनन भी किया। परन्तु इस ज्ञान को मेरे उपाध्याय नहीं जानते थे क्योंकि यदि जानते होते तो वे मुझ से यह ज्ञान अवश्य कहते । मेरे उपाध्याययों ने इस बात में बड़ा संदेह किया था कि मैं ईश्वर हूँ नहीं हूँ ! सो यह सब संदेह तो आपको कृपा से अब दूर हो आया है। परन्तु मुझे एक और संदेह है सो उसे निवारण करो कहते हैं कि जीव जो कर्म करता है उनके फलों को भोगता है यह तो हो सकता है, परन्तु यह कैसे हो सकता है कि कर्म इस शरीर से करे और फिर दूसरे शरीर से परलोक में जाकर अपने कर्मों का फल भोगे सो इससे तो यही ज्ञात होता है कि कर्मों का संबंध शरीर से न होकर जीवात्मा से ही है। सो यह बात मुझे समझ नहीं आती हैं सो आप मुझ से समझा कर कहो। इसके अतिरिक्त एक संदेह यह भी है कि जब मनुष्य वेद विहित कर्म करता है। फिर वह परोक्ष कर्म प्रकाशित कैसे होता है । जैसे कि कोई अग्निहोत्र कर्म किसी समय में किया तब वह कर्म तो अदृश्य हो जाता है। फिर वह अदृश्य हुये कर्म का फल किस प्रकार से प्राप्त होता है।   तब नारद जी ने कहा-हे राजन् ! स्थूल शरीर को कतृतृवय और भोक्तृत्व नहीं है। किन्तु मन शरीर में मुख्य है। सो इसी कारण से वह अंतः करण स्थूल शरीर के साथ ही नष्ट नहीं होता है । इसी कारण से जब दूसरा स्थूल शरीर प्राप्त होता है, तब वही अंतः करण भी बना रहता हैं। इसी कारण यह बात सत्य है कि जो कर्त्ता है सोई भोगता है। इसका प्रत्यक्ष में एक उदाहरण इस प्रकार से जानो कि जब स्वप्न अवस्था में स्वप्न देखते हैं तब जागृत अवस्था के स्थल शरीर का अभिमान नष्ट हो जाता है। तब अन्य प्रकार के शरीर में वही अंतःकरण अन्य अनेक विषयों को भोगता है । जबकि सिद्धान्ता अनुसार उस स्वप्नावस्था का और जागृतावस्था का अंतःकरण मूल रूप में एक ही है । इसी प्रकार मनुष्य को यह जान लेना चाहिये कि मरने के पश्चात अर्थात स्थूल शरीर के नष्ट हो जाने पर शरीर तो दूसरा मिल जाता है अर्थात शरीर दूसरा बदल जाता है परन्तु अतः करण नहीं बदलता है । अतः जिस समय अपना पराया कहकर मन से जिस समय शरीर को गृहण करता है तब उसी देह से किये कर्म को गृहण करता है । अत: यही कारण है कि जीवात्मा के साथ ही साथ अंतः करण का पुनर्जन्म होता रहता है। अब यह इस प्रकार जानिये कि जब शरीर नष्ट हो जाता है तब उसके द्वारा किये कर्म क्यों नहीं नष्ट होते हैं। क्योंकि जब पूर्व जन्म में कर्म करता है तब उस समय चित्त की बृत्तियाँ उपस्थित रहती हैं । वे ही भोगने के समय भी उपस्थित रहती हैं, यही कारण है कि पहिले जन्म में किये कर्म नष्ट नहीं होते हैं। जैसे कि कभी स्वप्न में किसी ऐसी घटना अथवा वस्तु या किसी पदार्थ को देखते हैं कि जो कभी जागृत अवस्था में नहीं देखी हो तो ऐसे स्वप्न दृश्य से यह समझ लेना चाहिये कि उसका पूर्व जन्म में उससे जो देखा है अवश्य कुछ न कुछ संपर्क रहा है। क्योंकि मनकी वृत्तियों से हो पूर्व जन्म में यह निश्चय होता है कि यह उत्तम था, यह मध्यम था, और यह अधम था । इसी प्रकार हे राजन् ! यह मन इस बात का भी बोध कराता है कि आगे के जन्म में कौनसी देह प्राप्त होगी अतः वह ज्ञान कराता है कि उत्तम या निकृष्ट देह कौनसी है और भविष्य में क्या प्राप्त करने का लक्ष्य होना चाहिये । जिस प्रकार उदार मन वाले को अपनी उदारता के कारण अपने पूर्व जन्म की उदारता प्रतीत होती है। उसी प्रकार इस जन्म की उदारता से भविष्य की उदारता भी स्वप्न रूप में प्रतीत होती है। इस विषय में एक शंका यह भी होती है कि स्वप्न में कभी कभी ऐसे दृश्य भी दिखाई देते हैं जो कि विल्कुल असंभव जान पड़ते हैं। जैसे तारागणों के मध्य पहुँच जाना या पर्वतों के उन शिखिरों पर पहुंच जाना कि जहाँ पर जाना असंभव है इसी प्रकार के और भी अन्य स्वप्न हष्टि गोचर होते हैं। तो इसका भेद इस प्रकार जानो कि जागृत अवस्था में समुद्र तारागण पर्वत चोटी आदि देश देखते हैं सो वही मन की भावना बने रहने के कारण अर्थात् चित्त को उसी में लगा होने के कारण दृष्टि गोचर होता है यह सब दोष निद्रा के कारण चित्त की वृत्ति के काण से हो जाता है । कभी- कमी स्वप्न में ऐसा भी जान पड़ता है । कि दरिद्री जन राजा अर्थात बड़ा धनवान और वैभव शाली हो जाता है। इसका कारण यह है कि जीवात्मा के मन में सभी इंद्रियों के विषय आया जाया करते हैं जिसके कारण मन में सभी बातों के विकार उत्पन्न हुआ करता है। इस कारण से दरिद्री पुरुष का स्वप्न में राजा होना भी संभव है। जो मनुष्य भगवान में अपने मनको निरंतर लगाये रहते हैं, उन्हें एक ही बार में सारा जगत प्रत्यक्ष दिख पड़ता है। कारण होने पर वह वस्तु भी प्रतीत होती हैं जो कि कभी प्रतीत नहीं होती है। जैसे कि राहु अकेला होने पर प्रतीत नहीं होता है, परन्तु चंद्रमा या सूर्य के साथ होता है इस कारण के होने से वह प्रतीत होने लगता है। अतः यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कारण से ही न दीखने वाली वस्तु भी दीखने लगती है।   यह संसार मिथ्या है और इसको मिथ्या जब तक जीवात्मा नहीं जान पाता है तब तक कि वह अंहकार के वशीभूत होकर विषय वासनाओं में लिप्त रहता है यही कारण है कि अंहकार के कारण विषय वासना में फंसे रहने के कारण जीवात्मा जन्म-मरण से मुक्त नहीं होती । इस प्रकार पंच तन्मात्रा, तीन गुण, सोलह विकार, के द्वारा निर्मित इस शरीर में जब जीव परमात्मा की चेतना से आता है तब वह स्थूल शरीर कार्य करने वाला होता है ।यह जीवात्मा इसी लिंग शरीर से कितने एक स्थूल शरीरों को धारण करता है, और फिर इसे त्याग देता है जिस प्रकार कोई बहुत छोटा कीड़ा घास पर चलता है, और एक घास से दूसरी घास पर जाने के लिये जब होता है । तब वह पहली घासको जब छोड़ता है तब वह पहले दूसरे घास के तृण को पकड़ लेता है, जब वह पहली घास को छोड़कर दूसरी घास पर जाता है इसी प्रकार से यह जीवात्मा भी एक स्थूल शरीर को छोड़ने से पहले दूसरे स्थूल शरीर को अपने कर्म तथा अभिमान के अनुसार निश्चित कर लेता हैं । तभी वह एक स्थूल शरीर को छोड़ कर दूसरे स्थूल शरीर में जाता है। हे राजन् इस कारण से अाप संसार के समस्त बंधन से मुक्त होने के लिये संपूर्ण जगत का भगवत्स्वरूप देखते रहो। मुक्ति प्राप्त करने के लिये भगवत चरणों में प्रीति का रखना आवश्यक है ।   श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! मैत्रेय द्वारा विदुर संबाद में नारद द्वारा राजा प्राचीन वर्हि को इस प्रकार आत्म ज्ञान प्रदान किया और फिर नारद जी वहाँ से विदा हो सिद्ध लोक को चले गये। नारद जी के चले जाने के बाद राजा प्राचीन वर्हि ने अपने मंत्रियों को एकत्र करके कहा-हे मंत्रि गणो! जब हमारे पुत्र आदि तप से लौट कर आवें तब उन्हें आप इस राज्य सिंहासन पर बैठा देना, अब हम तप करने के लिये बन को जाते हैं। इस प्रकार समस्त राज्य का काजा को छोड़कर राजा प्राचीन वहि गंगा सागर में कपिल देव जी के आश्रम पर तप करने के लिये चला गया । वहाँ एकाग्रचित्त से भगवान के चरणों का ध्यान करता हुआ भक्ति में लीन हो मोक्ष को प्राप्त हुआ। श्री मैत्रेय जी बोले हे विदुर ! जो मनुष्य नारद जी द्वारा कहे ज्ञानोपदेश को चित्त धर कर भगवान का ध्यान धरते हैं वे लोग संसार रूप चक्र के घूमने से मुक्त होकर बृह्म लोक में परम पद को प्राप्त होते हैं।

एके साधे सब सधे।
सब साधे, सब जाये।।


श्रीमद भागवद पुराण उन्तीसवां अध्याय [स्कंध४]

(उपरोक्त कथन की व्याख्या )

नारद जी द्वारा जनम से मृत्यु के उपरांत का पूर्ण ज्ञान।।

दोहा-करि प्रकाश अध्यात्म का, नारद मुनि व्याख्यान ।

उन्तीसवें अध्याय में, समुचित किया निदान ।।


श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षित मैत्रेय जी द्वारा विदुर से जो कथा वर्णन की है उसमें नारद मुनि ने राजा प्राचीन वर्ही से जो आत्म ज्ञान प्रदान करने के लिये कथा का प्रकाश किया तो राजा प्राचीन वर्हि ने पूछा-हे देवर्षि! आपने जो आत्म ज्ञान देने के निमित्त जो वचन कहे हैं, मैं जोकि कर्म वासनाओं से फंसा हुआ संसारी मनुष्य जिसे किसी प्रकार ज्ञान नहीं वह किस प्रकार समझ सकता हूँ । सौ हे मुने ! आप मुझे इस आत्म ज्ञान विषय को स्पष्ट रूप से समझाने की कृपा करो। प्राचीन वर्हि के यह वचन सुन नारद जी बोले-हे राजन् ! अब मैं तुम्हें उपरोक्त कहे आत्म ज्ञान कथन को भिन्न-भिन्न करके समझाता हूँ।


मैंने प्रथम कहा है कि राजा पुरंजन और उसका अभिन्न, मित्र अविज्ञात था। सो पुरंजन तो जीवात्मा जानो और अविज्ञात को साक्षात परमात्मा (ईश्वर) जानो । वह जीवात्मा अपने कर्मों के प्रारब्ध से देह को प्राप्त करता है । तब इस जीवात्मा को माया के गुणों को भोगने की लालसा हुई तो सर्वोत्तम उसने मनुष्य देह को माना तब उसको प्रारब्ध से प्राप्त किया। अब आगे हमने कहा है कि राजा पुरंजन (जीव) को एक स्त्री मिली थी, सो वह तुम वह स्त्री रूप बुद्धि को जानो । जिसके कारण वह अपना पराया करके भेद भाव की दृष्टि से मानता है । इसी के कारण ही वह ऐसा कहता है कि यह मेरा है वह मेरा है वह पराया है यह सब ममता,उसी बुद्धि रूपी स्त्री के कारण ही होता है।

हे राजन् ! हमने अपने कथन में राजा पुरंजन के दस मित्र कहे हैं सो वे दस इन्द्रियाँ हैं जो कि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। इन्हीं के द्वारा जीव सांसारिक विषयों को भोगता है । जो उस पुरंजनी ( देह) नाम स्त्री की सखियां कहा ३०१ हैं वे बुद्धि की वृत्तियाँ जाननी चाहिये, और जो पाँच शिर वाला सर्प कहा है जो महाबलवान बताया था, जोकि पुरंजनी की नगरी की रक्षा करता है, वह पाँच प्रकार का प्राण जानना आहिये। जो महा बलवान कहा है वह इन्द्रियों का नायक मन को कहा है। जो पाँचौं विषय हैं, इन्हें पाँचाल देश जानना चाहिये । जो नाथद्वारा वाली नगरी (पुर) कही है सो वह नौ द्वार बाली देह को जानना चाहिये। जो पुरंजन के साथ सेना कही है यह ग्यारह इन्द्रियों को जानना चाहिये । आखेट करना जो बताया है वह पाँच हत्या हैं, जो चंद्रवेत कहा था वह इस वर्ष जानना चाहिये। क्योकि इस वर्ष से ही काल प्रमाण हुआ करता है ।

जो हमने अपने व्याख्यान में तीन सौ साठ गंधर्व कहे थे सो इस वर्ष के ३६० तीन सौ साठ दिन जानना चाहिये । जो ३६० तीन सौ साठ उनकी गंधर्व स्त्रियाँ कही हैं वे सब रात्रि समझनी चाहिये । इनमें भी हमने इनमें से आधी को श्वेत वर्ण तथा आधी को काले वर्ण वाली कहा है, सो वे सब शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के हिसाब से रात्री समझना चाहिये । सो यह रात्रियाँ परिभ्रमण करके आयुको क्षीण किया करती हैं । हमने बताया कि काल कन्या ने राजा पुरंजन का वरण किया सो वह काल कन्या वृद्धावस्था को जानना चाहिये । इसे यवनों के राजा मृत्यु ने जीवों के देह का क्षय करने के लिये अपनी बहिन बनाना स्वीकार किया था । मृत्यु के चारों ओर घूमने वाले जो सैनिक कहे हैं वे सब चिन्ता रोग आदि वीर हैं। प्रज्वार जो कहा गया है वह शीत तथा उष्ण दो प्रकार का ज्वर कहा है। यही नाना प्रकार से शरीर को क्लेशित करते हैं। जैसा कि हमने कहा है कि नगरी को प्रज्वार की सैना ने घेर लिया था। और उसे नाना प्रकार से कष्ट पहुँचा कर नगर को लूटना चाहते थे । यहाँ पर है राजन् ! ये विषय समझने का है कि यह जीवात्मा यह जानता है कि वह स्वयं परमात्मा का ही अंश है, अर्थात् एक प्रकार से वह परमात्मा स्वरूप ही है परन्तु माया के गुणों में फँसकर प्राण, इन्द्रिय और ममता से कर्म करता हुआ अनके धर्मों को ही शुद्ध मान कर क्षुद्र विषयों की तृष्णा करके अहंकार के वशीभूत हो सौ वर्ष तक नाना प्रकार के दुखों को भोगता हुआ देह में रहता है। यही कारण है कि यह जीव स्वयं परमात्मा का स्वरूप होने पर भी देह के अभिमान के कारण सात्विक, राजस, और तामस कर्म किया कर ना है । इन्हीं सब किये हुये कर्मों के कारण ही अर्थात कर्मानुसार वह जीव पुरुष, स्त्री, नपुंसक, देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, प्रादि का जन्म पाता रहता है । जिस प्रकार भूख से पीड़ित हुआ कुत्ता भोजन को खोज में जगह जगह घूमता है। परन्तु उसे अपनी प्रारब्ध के अनुसार ही कहीं पर डडा पड़ता है तो कहीं पर कुछ खाने को भी मिल जाता है। इसी प्रकार यह जीवात्मा भी अपने कर्मों की प्रारब्ध के अनुसार ही पृथ्वी और अंतरिक्ष में भ्रमण करता रहता है । अपने किये के फलानुसार विभिन्न प्रकार की योनियों में प्राप्त करके दुख सुख को भोगता रहता है जिस प्रकार कोई मनुष्य अपने सिर पर बोझा रखकर ढोता है और उस बीच जत्र बोझ से शिर थक जाता है तो वह उसी बोझ को कंधे पर कर लेता है, और फिर कंधा थकने पर शिर पर रख लेता है। परन्तु ऐसा करने से उसका बोझा कम नहीं होता है । उसे वह बोझा तो ढोना ही पड़ता है । इसी प्रकार प्राणी भी अपने कर्म बंधनों से मुक्त नहीं हो पाता है। क्योंकि कर्मों की वासना को कर्मों के द्वारा नहीं मिल सकते । इसी कारण वे सब प्रतिकार झूठे हैं। जिस प्रकार पहले देखे हुये स्वप्न को पीछे देखा हुआ स्वप्न यथार्थ रूप से दूर नहीं कर सकता है। उसी प्रकार एक कर्म दूसरे कर्म को मिटा नहीं सकता है। अतः कहने का तात्पर्य यह कि जीव जो कर्म करता है उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है। चाहे वह खोटा कर्म हो चाहे अच्छा कर्म हो । जैसे कि कोई जब खोटे कर्म करता है, और उन खोटे कर्मों के फल की दूर करने के लिये कुछ अच्छे कर्म करता है, तो उसे अपने पहिले किये खोटे कर्म का फल भोगना पड़ेगा, और जो अच्छा करम किया है उसका फल भी भोगना पड़ेगा । यद्यपि स्वप्न असत्य है परन्तु जब तक शरीर की अवस्था मन सहित उपाधि स्वरूप रहती है तब तक शरीर की स्वप्न अवस्था रहती है। इसी प्रकार यह संसार भी मिथ्या है परन्तु जब तक चित्त में विषयों का धयान रहता है तब तक वह मिट नहीं सकता है। हे राजन ! यदि भगवान वासुदेव श्री नारायण जी की समाधान पूर्वक अत्यन्त प्रीति से भक्ति योग धारणा किया जावे तो ऐसा करने से ज्ञान और वैराग्य प्राप्त हो जाता है। जो कोई मनुष्य श्रद्धा पूर्वक भगवान के कथा रूप अमृत को अध्ययन करके श्रवण करते हैं, उन्हें थोड़े ही समय में भक्ति योग प्राप्त हो जाता है । इसे प्राप्त करना भी कोई ऐसा विशेष दुर्लभ भी नहीं है क्योंकि भगवान की कथा रूप अमृतमयी नदियें महात्मा जनों के मुखार विन्दु से नित्य ही बहती रहती हैं। सो हे राजन् ! उन नदियों के अमृत रूपी वचन जल को जो लोग सावधान हो कानों द्वारा पान करते हैं वे लोग क्षुधा, तृषा, भय, शोक, मोह से कभी स्पर्श नहीं हो पाते हैं। और स्वभाव से उत्पन्न क्षुधा तृष्णा आदि विकारों से उपद्रव युक्त हुआ यह जीवात्मा सर्वदा हरि कथा रूप अमृत सागर में पहुँच कर प्रेम रूपी क्षुधा को पान नहीं करता है । हे राजन् ! यज्ञादि कर्मों के द्वारा परमार्थ की भावना करना केवल अज्ञान ही है। यह सब कर्म तो केवल सुनने और करने में ही भले जान पड़ते हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं कि वेद केवल करने पर निहित अर्थात (छुपा हुआ) है सो वे लोग वेदों के तात्पर्य को नहीं जानते हैं । जिसमें भी तूने तो अपने महा अभिमान का परिचय देने के लिये अनेकों पशुओं का बध किया है। क्योंकि तू अज्ञानता के वश हो
केवल कर्म को ही प्रधान मानता है, और उस ईश्वर को तू नहीं जानता हैं जो कि उन सभी कर्मों का फल देने वाला है । जिस कर्म के करने से भगवान प्रसन्न हो वही कर्म संसार में श्रेष्ठ है, और जिस प्रकार से भगवान में बुद्धि लगे वह प्रकार ही श्रेष्ठ विद्या है, तथा इन सबके प्राप्त करने पर ही उसका वर्ण और आश्रम श्रेष्ठ है ।

इस प्रकार कहने के पश्चात नारदजी ने प्राचीन वर्हि से इस प्रकार कहा-हे राजन्! जो तुमने प्रश्न किया था वह सत्र मैंने तुमसे कहा, अब तुम्हारे सामने "गूढ़ार्थ बात को मैं प्रकट करता हूँ। जो तुम चित्त लगकर सुनो।


... एक मृग जिसकी पीठ में ब्याध का वाँण लगा हुआ है, और उसके सामने अनेक जीवों को मार कर खाने वाले भयानक भड़िये खड़े हैं, और वह मृग तुच्छ पदार्थों को चरने के लिये भ्रमरों के गुंजाहट के शब्दों से लुभाया हुआ फुलवाड़ी में ही चरने में आसक्त हो रहा है। क्या तुम बता सकते हो कि वह मृग कौन हैं और कहाँ पर है जो इन सबका भय न मानकर आगे ही बढ़ता जाता है । हे राजन् ! यदि तुम नहीं जानते हो तो इसका अन्वेषण करो । नारद जी के इस प्रकार कहने पर राजा प्राचीन दहि इधर-उधर को देखने लगा। तब नारद जी बोले-हे नरनाथ ! आप इधर उधर क्या देखते हो । राजा ने कहा-मैं उस मृग को खोजता हूँ जिसका आप वृतान्त कहते हो । तब नारद जी ने कहा-हे राजन्! वह मृग मैं तुम्हें बताता हूँ कि वह मृग तुम हो जो कि रस सहित स्त्रियों वाले घरों में वाटिका के फूलों की सुगंधि के समान तुच्छ सुख को ढूढ़ते हो । भँवरो के समान स्त्रियों की मधुर वाणी के गुजाहट में तुम्हारे कान ललचाते रहते हैं । अपनी आयु को हरते हुये भेड़ियों के समान अहोरात्रि को जानो । जो कि इन्हीं दिन रूपी भेड़ियों के आये खड़े निर्भय हुये घरों में घुसे विहार कर रहे हो । परीक्षा रूप से काल रूपी ब्याधा मृत्यु रूपी वॉण को लिये तुम्हें बांधने के लिये तत्पर खड़ा है। सो हे राजन् ! काल के वाण से भिन्न हृदय वाले जीवात्मा को तुम देखने के समान योग्य हो । सो हे राजन्! तुम अपने आप को उस मृग के समान विचार कर वित्त को रोक कर इन्द्रियों को विषय से हटाकर गृहस्थाश्रम को त्याग कर भगवान को प्रसन्न करो। नारद जी की इतनी बात सुनकर राजा प्राचीन वर्हि ने कहा-हे मुनि ! आपके कथन को मैंने सुना और सुनकर मनन भी किया। परन्तु इस ज्ञान को मेरे उपाध्याय नहीं जानते थे क्योंकि यदि जानते होते तो वे मुझ से यह ज्ञान अवश्य कहते । मेरे उपाध्याययों ने इस बात में बड़ा संदेह किया था कि मैं ईश्वर हूँ नहीं हूँ ! सो यह सब संदेह तो आपको कृपा से अब दूर हो आया है। परन्तु मुझे एक और संदेह है सो उसे निवारण करो कहते हैं कि जीव जो कर्म करता है उनके फलों को भोगता है यह तो हो सकता है, परन्तु यह कैसे हो सकता है कि कर्म इस शरीर से करे और फिर दूसरे शरीर से परलोक में जाकर अपने कर्मों का फल भोगे सो इससे तो यही ज्ञात होता है कि कर्मों का संबंध शरीर से न होकर जीवात्मा से ही है। सो यह बात मुझे समझ नहीं आती हैं सो आप मुझ से समझा कर कहो। इसके अतिरिक्त एक संदेह यह भी है कि जब मनुष्य वेद विहित कर्म करता है। फिर वह परोक्ष कर्म प्रकाशित कैसे होता है । जैसे कि कोई अग्निहोत्र कर्म किसी समय में किया तब वह कर्म तो अदृश्य हो जाता है। फिर वह अदृश्य हुये कर्म का फल किस प्रकार से प्राप्त होता है।

तब नारद जी ने कहा-हे राजन् ! स्थूल शरीर को कतृतृवय और भोक्तृत्व नहीं है। किन्तु मन शरीर में मुख्य है। सो इसी कारण से वह अंतः करण स्थूल शरीर के साथ ही नष्ट नहीं होता है । इसी कारण से जब दूसरा स्थूल शरीर प्राप्त होता है, तब वही अंतः करण भी बना रहता हैं। इसी कारण यह बात सत्य है कि जो कर्त्ता है सोई भोगता है। इसका प्रत्यक्ष में एक उदाहरण इस प्रकार से जानो कि जब स्वप्न अवस्था में स्वप्न देखते हैं तब जागृत अवस्था के स्थल शरीर का अभिमान नष्ट हो जाता है। तब अन्य प्रकार के शरीर में वही अंतःकरण अन्य अनेक विषयों को भोगता है । जबकि सिद्धान्ता अनुसार उस स्वप्नावस्था का और जागृतावस्था का अंतःकरण मूल रूप में एक ही है । इसी प्रकार मनुष्य को यह जान लेना चाहिये कि मरने के पश्चात अर्थात स्थूल शरीर के नष्ट हो जाने पर शरीर तो दूसरा मिल जाता है अर्थात शरीर दूसरा बदल जाता है परन्तु अतः करण नहीं बदलता है । अतः जिस समय अपना पराया कहकर मन से जिस समय शरीर को गृहण करता है तब उसी देह से किये कर्म को गृहण करता है । अत: यही कारण है कि जीवात्मा के साथ ही साथ अंतः करण का पुनर्जन्म होता रहता है। अब यह इस प्रकार जानिये कि जब शरीर नष्ट हो जाता है तब उसके द्वारा किये कर्म क्यों नहीं नष्ट होते हैं। क्योंकि जब पूर्व जन्म में कर्म करता है तब उस समय चित्त की बृत्तियाँ उपस्थित रहती हैं । वे ही भोगने के समय भी उपस्थित रहती हैं, यही कारण है कि पहिले जन्म में किये कर्म नष्ट नहीं होते हैं। जैसे कि कभी स्वप्न में किसी ऐसी घटना अथवा वस्तु या किसी पदार्थ को देखते हैं कि जो कभी जागृत अवस्था में नहीं देखी हो तो ऐसे स्वप्न दृश्य से यह समझ लेना चाहिये कि उसका पूर्व जन्म में उससे जो देखा है अवश्य कुछ न कुछ संपर्क रहा है। क्योंकि मनकी वृत्तियों से हो पूर्व जन्म में यह निश्चय होता है कि यह उत्तम था, यह मध्यम था, और यह अधम था । इसी प्रकार हे राजन् ! यह मन इस बात का भी बोध कराता है कि आगे के जन्म में कौनसी देह प्राप्त होगी अतः वह ज्ञान कराता है कि उत्तम या निकृष्ट देह कौनसी है और भविष्य में क्या प्राप्त करने का लक्ष्य होना चाहिये । जिस प्रकार उदार मन वाले को अपनी उदारता के कारण अपने पूर्व जन्म की उदारता प्रतीत होती है। उसी प्रकार इस जन्म की उदारता से भविष्य की उदारता भी स्वप्न रूप में प्रतीत होती है। इस विषय में एक शंका यह भी होती है कि स्वप्न में कभी कभी ऐसे दृश्य भी दिखाई देते हैं जो कि विल्कुल असंभव जान पड़ते हैं। जैसे तारागणों के मध्य पहुँच जाना या पर्वतों के उन शिखिरों पर पहुंच जाना कि जहाँ पर जाना असंभव है इसी प्रकार के और भी अन्य स्वप्न हष्टि गोचर होते हैं। तो इसका भेद इस प्रकार जानो कि जागृत अवस्था में समुद्र तारागण पर्वत चोटी आदि देश देखते हैं सो वही मन की भावना बने रहने के कारण अर्थात् चित्त को उसी में लगा होने के कारण दृष्टि गोचर होता है यह सब दोष निद्रा के कारण चित्त की वृत्ति के काण से हो जाता है । कभी- कमी स्वप्न में ऐसा भी जान पड़ता है । कि दरिद्री जन राजा अर्थात बड़ा धनवान और वैभव शाली हो जाता है। इसका कारण यह है कि जीवात्मा के मन में सभी इंद्रियों के विषय आया जाया करते हैं जिसके कारण मन में सभी बातों के विकार उत्पन्न हुआ करता है। इस कारण से दरिद्री पुरुष का स्वप्न में राजा होना भी संभव है। जो मनुष्य भगवान में अपने मनको निरंतर लगाये रहते हैं, उन्हें एक ही बार में सारा जगत प्रत्यक्ष दिख पड़ता है। कारण होने पर वह वस्तु भी प्रतीत होती हैं जो कि कभी प्रतीत नहीं होती है। जैसे कि राहु अकेला होने पर प्रतीत नहीं होता है, परन्तु चंद्रमा या सूर्य के साथ होता है इस कारण के होने से वह प्रतीत होने लगता है। अतः यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कारण से ही न दीखने वाली वस्तु भी दीखने लगती है।

यह संसार मिथ्या है और इसको मिथ्या जब तक जीवात्मा नहीं जान पाता है तब तक कि वह अंहकार के वशीभूत होकर विषय वासनाओं में लिप्त रहता है यही कारण है कि अंहकार के कारण विषय वासना में फंसे रहने के कारण जीवात्मा जन्म-मरण से मुक्त नहीं होती । इस प्रकार पंच तन्मात्रा, तीन गुण, सोलह विकार, के द्वारा निर्मित इस शरीर में जब जीव परमात्मा की चेतना से आता है तब वह स्थूल शरीर कार्य करने वाला होता है ।यह जीवात्मा इसी लिंग शरीर से कितने एक स्थूल शरीरों को धारण करता है, और फिर इसे त्याग देता है जिस प्रकार कोई बहुत छोटा कीड़ा घास पर चलता है, और एक घास से दूसरी घास पर जाने के लिये जब होता है । तब वह पहली घासको जब छोड़ता है तब वह पहले दूसरे घास के तृण को पकड़ लेता है, जब वह पहली घास को छोड़कर दूसरी घास पर जाता है इसी प्रकार से यह जीवात्मा भी एक स्थूल शरीर को छोड़ने से पहले दूसरे स्थूल शरीर को अपने कर्म तथा अभिमान के अनुसार निश्चित कर लेता हैं । तभी वह एक स्थूल शरीर को छोड़ कर दूसरे स्थूल शरीर में जाता है। हे राजन् इस कारण से अाप संसार के समस्त बंधन से मुक्त होने के लिये संपूर्ण जगत का भगवत्स्वरूप देखते रहो। मुक्ति प्राप्त करने के लिये भगवत चरणों में प्रीति का रखना आवश्यक है ।

श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! मैत्रेय द्वारा विदुर संबाद में नारद द्वारा राजा प्राचीन वर्हि को इस प्रकार आत्म ज्ञान प्रदान किया और फिर नारद जी वहाँ से विदा हो सिद्ध लोक को चले गये। नारद जी के चले जाने के बाद राजा प्राचीन वर्हि ने अपने मंत्रियों को एकत्र करके कहा-हे मंत्रि गणो! जब हमारे पुत्र आदि तप से लौट कर आवें तब उन्हें आप इस राज्य सिंहासन पर बैठा देना, अब हम तप करने के लिये बन को जाते हैं। इस प्रकार समस्त राज्य का काजा को छोड़कर राजा प्राचीन वहि गंगा सागर में कपिल देव जी के आश्रम पर तप करने के लिये चला गया । वहाँ एकाग्रचित्त से भगवान के चरणों का ध्यान करता हुआ भक्ति में लीन हो मोक्ष को प्राप्त हुआ। श्री मैत्रेय जी बोले हे विदुर ! जो मनुष्य नारद जी द्वारा कहे ज्ञानोपदेश को चित्त धर कर भगवान का ध्यान धरते हैं वे लोग संसार रूप चक्र के घूमने से मुक्त होकर बृह्म लोक में परम पद को प्राप्त होते हैं।


Find the truthfulness in you, get the real you, power up yourself with divine blessings, dump all your sins...via... Shrimad Bhagwad Mahapuran🕉

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