श्रीमद्भगवद पुराण* नवा अध्याय*[सकन्ध २]
दोहा: इस नौवें अध्याय में, कहें शुकदेव सुनाय ।
विष्णु चरित्र जिमि रूप से हरिने किये बनाय ।।
ब्रह्मा विष्णु सृष्टि रचना हेतू संवाद
अनेक रूप धारी ईश्वर माया द्वारा अनेक रूप वाला प्रतीत होता हैं। मनुष्य माया के भवर में फंस कर रमण करता हुआ कहता है कि यह मेरा है वह मेरा है यह मैं हूँ वह वह है तो केवल ईश्वर में ही रमण करता है तब वह मोह माया लोभ ममता को त्याग कर देता है अहंकार दूर हो जाता है तो केवल ईश्वर में ही पूर्णरूप से स्थित रहता है यही मोक्ष है। श्रीशुकदेवजी बोले-हे परीक्षत । जब आदि शक्ति निरंकार परमेश्वर को नाभि से कमल का फूल निकला तो उस में वृह्माजी उत्पन्न हुये।
उस समय वृह्माजी ने यह जानना चाहा कि वह किस स्थान से उत्पन्न हुये हैं। जब वह अनेक प्रयत्न करने पर भी यह न जान सके कि वह कहां और कैसे उत्पन्न हुये हैं तो मन मारकर उसी कमल के फूल पर बैठे रहे। तब निरंकार ईश्वर द्वारा वृम्हाजी को चेतना प्राप्त हुई जिसमें तन्हें उस निरंकार भगवान का यह आदेश मिला कि वह सृष्टि की रचना करें। तब जगत के गुरु वृम्हा ने जगत सृष्टि रचने का विचार करने लगे। परन्तु वहअनेक प्रयत्न करने पर भी योग्य न हो पाये कि वह सृष्टि का निर्माण कर सकें तब वह अनेक प्रकार विचार करने लगे तभी जल से दो शब्द निकले कि तप करो-तप करो तब वृम्हाजी ने तप-तप सुना तो वे अपने काल रूप आसन पर विराजमान हो तप को अपना हितकारी समझकर उपदेश कर्ता को आकाशवाणी के अनुसार तप करना आरंभ कर दिया। वृह्माजी ने देवताओं के हजार वर्ष पर्यन्त तक प्राण वायु को रोक कर तथा ज्ञान इन्द्रियों और कर्म इन्द्रियों को जीत कर सावधान मनसे तप किया। तब उन भगवान हरिने बृह्माजी के तप से प्रसन्न होकर बैकुण्ठ लोक को दिखाया उस बैकुण्ठ में संपूर्ण लोकों के पति भगवान श्री हरि, भक्तों के रक्षक, लक्ष्मी पति यज्ञ पति, जगत पति, सुन्दर, नन्दप्रवल अर्पणा आदि अपने मुख्यपार्षदों से सेवित ईश्वर का श्री वृम्हाजी ने दर्शन किया। उन भगवान के दर्शन में मग्न वृम्हाजी ने भगवान के चरण कमलों को प्रणाम किया। स्थिर चित्त प्रसन्न मुख वृम्हाजी को अपने सन्मुख उपस्थित देखकर मंद मुस्कान भरी प्रिय वाणी से भगवान ने अपने हाथ से वृम्हा का हाथ पकड़कर कहा-हे वेद गर्भ! तुमने विश्व रचने की कामना के तप करके हमें अत्यन्त प्रसन्न किया क्यों कि दिव्य सहस्र वर्ष तप किया जो इच्छा हो सो वर मांगो। तुम अपने मन में यह मत सोचना कि तप के बल से दर्शन हुआ है यह मेरी ही दी हुई प्रेरणा थी मैंने ही आकाश वाणी को थी कि तप करो तप करो तब तुमने मेरी ही वाणी को सुन कर तप किया। तुमको दर्शन होना हमारी ही कृपा का प्रभाव है। क्योंकि तप हमारी आत्म शक्ति है तप से ही मैं इस विश्व को रचता हूँ। और पालन करता तथा विश्व का संहारकर्ता है। अतः यह जानलो कि परम तप ही मेरा पराक्रम है। यह सुन ब्रह्माजी बोले हे भगवान ! आप सब में स्थित हो सबके कर्तव्य को दृढ़ ज्ञान से जानते हो तथापि हे नाथ ! मैं आपसे यही माँगता हूँ कि जिस प्रकार मैं आपके सूक्ष्म स्थूल रूप को जानूं सो कहिये जिस प्रकार अपनी माया के संयोग से अनेक शक्तियों से पूर्ण विश्व का संहार, स्वप्ना, पालन करते हो तैसे आप मुझे इस सृष्टि को रचने की बुद्धि प्रदान कीजिये। तब भगवान ने वृम्हा जी को मोह से प्रक्त करने के लिये चार श्लोक कहे जिनसे सम्पूर्ण भागवत पूर्ण हो जाती है उसका सार इस प्रकार है। भगवान विष्णु ने कहा-हे वृम्हन जैसा मेरा स्वरूप है वैसा ही मेरा स्वभाव है, जैसा रूप, गुण, कर्म है वैसा ही मेरी कृपा से तत्व विज्ञान तुम्हें प्राप्त हो। इस जगत में आदि अन्त में मैं ही रहता हूँ प्रलय के उपरांत जो शेष रहता है सो वह सब मैं ही रहता हूँ जिस प्रकार स्वर्ण से अनेक प्रकार के पृथक पृथक नाम वाले आभूषण बनते हैं तो वे अलग-अलग प्रतीत होते हैं परन्तु जब सबको गला कर सुवर्ण किया जाता है तो सब एक होने पर केबल सुवर्ण ही होता है तब उन अनेक प्रकार के आभूषणों का नाम तथा रूप विलय हो जाता है। उसी प्रकार में भी हूँ यह संसार तथा जगत की प्रत्येक वस्तु मुझमें से ही है और मैं ही सब में व्याप्त हूँ उनको मेरी ही माया जानो। वास्तव में जो अर्थ बिना प्रतीत होता है और आत्मा में प्रतीत नहीं होता है वह सब मेरी ही माया जानो। जिस प्रकार मिटटी हैं तो घड़ा भी है और मिटटी और सुवर्ण नहीं है तो घड़ा और आभूषण भी नहीं है। सो हे वृह्मन ! मेरे अलावा और कुछ भी नहीं है । जगत को समस्त बस्तुओं का मूल मैं ही हूँ । हे वृम्हन ! एकाग्र चित्त से तुम अच्छे प्रकार से स्थिर रहोगे तो तुम कल्पों में भी कभी मोह को प्राप्त नहीं होगे। श्री शुकदेवजी ने कहा-हे भारत! इस प्रकार वृह्माजी को उपदेश करते करते भगवान अन्तर्ध्यान हो गये तब पश्चात् वृम्हाजी ने भगवान को हाथ जोड़ कर नमस्कार किया तब इस सम्पूर्ण भूत मय विश्व की वृम्हाजी ने रचना करके निर्माण किया। एक समय वृह्माजी प्रजा के कल्याण के निमित्त अपने स्वार्थ की कामना के निमित्त यम नियमादिकों को रच यम और नियमों से स्थिति हुये तब वृह्मा के प्यारे पुत्रों में से नारदजी अपने पिता वृह्मा को शील, नम्रता, दम्भ आदि गुणों से सेवा करने लगे। तब विष्णु की माया को जानने के लिये नारदजी ने अपने पिता ब्रह्माजी को प्रसन्न किया । और उन्हें प्रसन्न जानकर वही पूछा जो तुमने मुझसे पूछा है ।
श्रीमद भागवद पुराण किसने किसे किसे सुनायी।।
तब वृह्माजी ने नारायण द्वारा कहा हुआ दस लक्षणों युक्त भागवत पुराण को अपने पुत्र नारद को सुनाया। तब नारदजी ने सरस्वती नदी के तट पर महातेजस्वी व्यास मुनि को सुनाया तब हमने अपने पिता से सुन कर तुम्हें सुनाया कि जो तुमने हमसे पूछा-कि विराट पुरुष द्वारा जगतकिस प्रकार होता है सो वह सब कहा कि जिस प्रकार विराट पुरुष द्वारा जगत उत्त्पन होता है।
।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम नवम अध्याय समाप्तम🥀।।
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