धुन्धकरी के मृत्यु और मोक्ष की कथा।।


श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का पांचवा आध्यय [मंगला चरण]

(वैश्याओं द्वारा धुन्धकारी को मारना और श्री मदभागवत सुनने से मोक्ष पाना)


श्री सूतजी बोले कि पिता के मर जाने पर धुन्धकारी ने अपनी माता को दुःख दिया और कहा कि या तो धन बतादे कि कहाँ रक्खा है, नहीं तो लात से मार डालूंगा. धुन्धकारी के इस वचन को सुनकर पुत्र के दुःख से दुखित होकर धुन्धली कुए में गिर कर मर गई । गोकर्ण तीर्थ यात्रा को चल दिया, क्योंकि गोकर्ण के न तो कोई सुख है न दुःख है, न बैरी है, न बन्धु है। धुन्धकारी उस घर में पाँच वेश्याओं के साथ रहने लगा और उनका पालन पोषण, महाकुत्सित कर्म व ठगाई आदि वह मूढ़ बुद्धि करने लगा। एक दिन उन वेश्याओं के आभूषण के निर्मित







कहा तो वह धुंधकारी
कामान्ध होकर मृत्यु का भय न करके धन के अर्थ घर से बाहर निकला और इधर उधर ठगाई करके बहुत सा धन संग्रह कर के घर पर लौट आया, वेश्याओं को अनेक प्रकार के वस्त्र आभूषण दिये। धुन्धकारी के अधिकार में बहुत सा धन देखकर उन वेश्याओं ने विचार किया कि यह दुष्ट प्रतिदिन चोरी करके धन हमारे निमित्त लाता है कभी न कभी राजा इसको पकड़ेगा तो वह सब धन छीन कर इसको मार डालेगा। इस कारण क्यों न हमहीं इस दुष्ट को मार डालें तो अच्छी बात है। इस प्रकार इसको मार सब धन लेकर अपनी इच्छा के अनुसार विचरें, ऐसे परस्पर विचार करके उन वेश्याओं ने उस सोते हुए धुन्धकारी को रस्सियों से बाँधा और गले में फाँसी डालकर मारने लगीं, परन्तु वह तुरन्त मरा नहीं। तब उन्होंने बहुत से अंगारे लाकर उसके मुख को जलाया, तब उस अग्नि की ज्वाला की असह्य वेदना से व्याकुल होकर वह मर गया। उन गणिकाओं न उसकी देह को गडढ़ा खोदकर उस के भीतर गाढ़ दिया, जब पड़ोसियों न पूछा कि धुन्धकारी कहाँ है तब उन कुलटाओं ने कहा कि वह विदेश को द्रव्य उपार्जन करने को चला गया है। फिर वे वेश्याएं सब धन ले अन्यत्र चली गई।।

धुन्धकरी का प्रेत देह को पाना


धुन्धकारी कुकर्म के कारण महा प्रेत हुआ। वह शीत व धूप से ब्याकुल,क्षुधा तृषा से पीड़ित, निराहार वायु में घूमता हुआ कहीं शांति को प्राप्त न हुआ और हा देव! हा देव ! इस प्रकार कहने लगा । कुछ काल में गोकर्ण ने लोगों के मुख से सुना कि धुन्धकारी मर गया। तब गोकर्ण ने उसको अनाथ जानकर गयाजी में श्राद्ध किया कुछ सयम पश्चात गोकर्ण अपने नगर में आया और अपने घर के आँगन में सो रहा था जब आधी रात हुई, तब धुन्धकारी ने उसको महा भयंकर रूप दिखाया । गोकर्ण ने उससे पूछा कि यह भयंकर रूप वाला तू कौन है?


और तेरी यह दुर्गति कैसे हुई है? तूं प्रेत है या पिशाच सो कह । सूतजी बोले कि हे शौनकआदिक ऋषियों! जब इस गौकर्ण ने इस भान्ति पूछा, तब वह पर चिल्ला कर रोने लगा परन्तु बोलने की सामर्थ्य नहीं हुई, सेन से अपना वृतांत समझाया। इसके उपरान्त गोकर्ण ने अं जली में जल लेकर मन्त्र पढ़ उस पर छींटा मारा, छींटा लगते ही उसका पाप क्षीण हो गया, तब वह पापी बोला-मैं तुम्हारा भाई धुंधकारी, महा अज्ञानी मुझको बेश्याओं ने फाँसी देकर महा वुःख से मार डाला । इस कारण में प्रेत हुआ हूँ अपनी दुर्दशा का दुःख मैं सहता हूँ, प्रारब्ध से तो मुझको कुछ मिलता नहीं केवल पवन भक्षण करके जीता हूँ । हे दयालु बन्धु ! मुझको इस घोर संकट से शीघ्र छुड़ाओ। गोकर्ण बोला कि भाई तुम्हारे निमित्त मैंने गयाजी में पिण्ड दिये थे तब भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हुई।
गौकर्ण द्वारा धुन्धुकारि की मुक्ति का प्रावधान, धुन्धकरी का वेकुंठ लोक को गमन




यह सुनकर प्रेत बोला कि जो आप सौ वार गया श्राद्ध करोगे तो भी मेरी मुक्ति नहीं होगी, क्योंकि में महा पापी हूँ, मेरे उद्धार निमित्त कोई दूसरा उपाय आप विचारो। उसके यह वचन सुन गोकर्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ और कहा कि ऐसी दशा में तेरी मुक्ति होनी असाध्य ही है!
परन्तु हे प्रेत ! तू अपने मन में धैर्य धारण कर तेरी मुक्ति के अर्थ मैं कुछ न कुछ साधन विचार करूँगा। दूसरे दिन प्रातःकाल होते हो गोकर्ण को आया देखकर सब लोग परम प्रीति से मिलने आये,
गोकर्ण ने उन सबसे रात्रि का सब वृत्तान्त कह सुनाया। परन्तु उस प्रेत की मुक्ति का कोई भी उपाय न बता सका। उन सबों ने निश्चय करके यह बात गोकर्ण से कही कि इसकी मुक्ति का साधन सूर्य नारायण बता सकते हैं । यह सुनकर गोकर्ण ने सूर्य की प्रार्थना की, हे जगत के साक्षी ! आपको में प्रणाम करता हूँ, मेरे भाई की मुक्ति का कोई उपाय बताइये जिससे इसका उद्धार हो। गोकर्ण के दीन वचन सुनकर सूर्य नारायण दूर से यह स्फ वचन बोले कि हे गोकर्ण ! श्रीमद्भागवत का सप्ताह यज्ञ कर



उसकी मुक्ति हो जायेगी। धर्म रूप सूर्यनारायण का यह वचन सुनकर श्री भागवद सप्ताह यज्ञ प्रारभ्म किया। उस सप्ताह परायज्ञ को सुनने को वहां देश देश और गांव-गांव के मनुष्य आये। और अनेक लंग्डे, अंधे वृद्ध और मन्द पुरुष को अपने २ पाप दूर करने के अर्थ वहाँ आये, जब गोकर्ण ने प्रशासन पर विराजमान होकर कथा का प्रारंभ किया तब धुंधकारी भी वहाँ इधर उधर देखने लगा।वहाँ सात गांठों वाला यांस रक्खा था, इसको मूल में छिद्र के द्वारा प्रवेश कर सप्ताह सुनने को बेठ गया गोकर्ण ने पहिले दिन प्रथम स्कन्ध की कथा भली भांति सुनाई, जब सन्ध्या समय कथा विसर्जन है तब उस बाँस की एक गांठ फट गई, इसी प्रकार दूसरे दिन सन्ध्या समय बाँस की दूसरो गाँठ फट गई। इस प्रकार सात दिन में सात गांठ फट गई श्रीमद भागवत के द्वादश स्कन्ध को सुनते ही धुंधकारी का प्रेतत्व छूट गया । तुलसी की माला धारण किये, पीताम्बर पहिने, मेघ समान श्याम वर्ण, मुकुट दिये और मकराकृत कुण्डल पहिने, उस धुंधकारी ने अपने भाई गोकर्ण के समीप जाय प्रणाम करके कहा कि हे भाई! तुम्हारी कृपा से मैं प्रेत रूपी कष्ट से छूट गया। धन्य है श्रीमद्भागवत की कथा कि जिससे प्रेत देह का नाश हो जाता है तथा सप्ताह यज्ञ भी धन्य है जो कृष्ण लोक को देने वाला है। संसार रूपी कीचड़ में सने हुए लोगों को धोने में अति चतुर ऐसा जो कथा रूपी तीर्थ है उसमें जिसका मन स्थिर हो जाता है उसकी मुक्ति हो जाती है, यह निश्चित है। इस प्रकार उस पार्षद रूप प्रेत के कहते ही वैकुण्ठवासी देवताओं सहित अत्यन्त देदीप्यमान एक विमान वहाँ आया। तब धुंधकारी सब लोगों के देखते उस विमान में जा बैठा, वह देखकर विमानों में बैठे पार्षदों से गोकर्ण ने कहा । यहाँ निर्मल अन्तःकरण वाले मेरे भजन बहुत से हैं, उनके निमित्त एक ही से विमान क्यों नहीं ले आये। यह सुनकर हरिदास बोले ! श्रवण करने में भेद


होने के कारण फल ममें भेद है। सप्ताह सुना तो सबने है, परन्तु जिस प्रकार इस प्रेत ने मनन किया इस प्रकार अन्य श्रोताओं ने नही किया। संदेह रहने से मंत्र, चित्त व्यग्र रहने से जप निरर्थक हो जाता है, वैष्णव रहित देश हत हो जाता है और अपात्र को दिया हुआ दान और अनाचार वल कुल मान के दोषों को जीत कर और कथा में बुद्धि को स्थिर रख कर शुध चित्त हो कर कथा को सुनने से फल अवश्य मिलेगा। इस प्रकार कह कर वह सब भगवन के शार्षद वैकुण्ठ को चले ग्ये।फिर गौकर्ण ने दूसरी बार श्रावण मास में श्रीमदभागवद की कथा को प्रारम्भ किया। जब सात रात्रि वाली सप्ताह की कथा समाप्त हुई उस समय कौतक हुआ कि विमानो और भक्तों सहित भगवान वहीं आकर प्रगट हुए। तो बहुत बार जय जय शब्द में वह समाज गूंज उठा । भगवान ने प्रसन्न होकर वह अपने पांचजन्य शंख की ध्वनि की और गोकर्ण को आलिंगन करके हरि ने अपने समान कर लिया तथा अन्त में सब श्रोताओं को क्षणमात्र में मेघ के समान श्याम वर्ण पीतांबर युक्त कुछ घर बना क्या। इस गांव में २ वन से लेकर चांडाल जाति के जितने जीव मे वे भी गोकर्ण की कृपा से उस समय विमानों में स्थित हुए। उन सबको हरिलोक को भेज दिया जहां कि योगीजन जाते हैं और कथा श्रवण से प्रसन्न होकर श्रीकृष्णचन्द्र गोकर्ण को सङ्ग लेकर गोलोक को चले गये। सप्ताह यज्ञ में यह कथा सुनने से जो फल प्राप्त होता है, सो हे ऋषियों! उस उज्ज्वल फल समुदाय की महिमा को हम कहाँ तक वर्णन करें। ब्रह्मानन्द से प्राप्त हुए शाण्डिलय मुनि और भी चित्रकूट में इस पवित्र इतिहास का पाठ किया करते हैं। इसके एक बार सुनने से सभी पापों का समूह नाश हो जाता है।

।।इति श्री पद्यपुराण कथायाम पंचम अध्याय समाप्तम।।

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