भगवान विष्णु के २४ अवतार।।


श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का तीसरा आध्यय [स्कंध १]


दोहा: कृत्य विष्णु अवतार धरि कीन्हे जोग अपार।।


सो तीजे अध्याय में कथा कही सुख्सार।।


श्री सूतजी महाराज कहने लगे-परब्रह्म परमात्मा ने पहिले सृष्टि के आदि में सृष्टि रचने की इच्छा करके महत्व अहंकार
पाँच तन्मात्रा इन्हों से उत्पन्न हुई, जो शोडष कला अर्थात पंच
(५) महाभूत और ग्यारह (११) इन्द्रिय इन्हों से युक्त हुए
पुरुष के रूप को धारण किया। वही भगवान प्रलयकाल में जब
सब जगह एकर्ण व जल ही जल फैल जाता है, तब उस समय अपनी योग निद्रा से शेषशैया पर सोते हैं। योगनिद्रा यानी अपनी समधि में स्थिर रहते हैं। तब उनकी नाभि में कमल का फूल उपन्न
होता है। उसी कमल में प्रजापतियों का पति ब्रह्मा उपन्न होता
है जो जल में सोते हैं, उन परमेश्वर के स्वरूप कहते हैं, कि जिसके
अलग-अलग अङ्गों की जगह ये सब लोक कल्पित किये जाते हैं।
हजारों पैर जांघ, भुजा, मस्तक नेत्र, कान, नाक, और हजारों
मुकुट तथा चमकते हुए उत्तम हजारों कुण्डलों से शोभित ऐसा
अद्भुत उनका रूप है। इस रूपको दिव्य दृष्टि वाले ज्ञानी पुरुष
ही देखते हैं ! सभी अवतार उस परमेश्वर के रूप से होते हैं।
इस परम पुरुष के अंश से ब्रह्माजी के अंश से मरीच आदि
ऋषीश्वर, उनके द्वारा देवता, मनुष्य तथा पशु पक्षी आदि सब उपन्न हुए है। इन अवतारों की गिनती इस प्रकार है कि

पेहला अवतार सनत्कुमरों का हुआ।। सनकादिक पांच ही वर्ष की कुमार अवस्था में ब्रह्मा यानी ब्रह्मास्वरूप



दूसरा वाराह अवतार

तीसरा अवतार नारद ऋषिका हुआ । नारद ने वैष्णव तंत्र अर्थात विष्णु भक्तों के वास्ते


चौथा अवतार धर्म की स्त्री से नरनारायण का जोड़ा उत्पन्न हुआ है सो इन्होंने तपस्या का
मार्ग चलाया है। ये दोनों ऋषी होकर बद्रीनारायण आश्रम में
गये हैं वहाँ जाकर बड़ा भारी तप किया।
फिर पांचवा अवतार सिद्धों के ईश्वर कपिलमुनि का है इन्होंने आसुरी ब्राह्मणों
को बहुत दिनों से नष्ट हुआ यानी गुप्त सांख्यशास्त्र सुनाया। उन
सांख्यशास्त्र में तत्व का निर्णय तथा परमात्माका ज्ञानवर्ण
किया है ।

छठा अवतार अत्रि ऋषि के घर अनुसुइया नाम स्त्री से
दत्तात्रेयजी हुए हैं उन्होंने राजा अलर्क, प्रहलाद इत्यादि को
आत्मविद्या यानी वेदान्तशास्त्र पढ़ाया है।

फिर सातवाँ अवताररुचि की पत्नी आकूतिसे यज्ञ भगवान हुए। सो यज्ञ नाम देवता
जोकि उन्हीं के पुत्र थे, तिन्हीं के साथ स्वायंभुव मनु की रक्षा
करके पालन किया और सबको यज्ञ करने की राह बतलाकर
आप इन्द्र हुए हैं ।

आठवाँ अवतार मेरुदेवी रानी में नाभि राजा
से ऋषभदेवजी हुए हैं जिन ने परमहंसों का मार्ग
दिखाया है कि जो आश्रम सभी आश्रम वालों से वदित है।

नवा


दसवाँ मत्स्य अवतार चाक्षुषमन्वन्तर में
हुआ है। जब प्रलय हो गई उस वक़्त पृथ्वी भगवान की माया से पृथ्वी
नौकारूप बनकर आई, उसमें इस नैवस्वत मनु को बिठाकर
सष्ठिक्रम की रक्षा को है ।

ग्यारहवाँ अवतार कमठ (कछुजा)
का इस प्रकार है, कि जिस वक्त अमृत के वास्ते देवता और दैत्य
मिलकर समुद्र को मथने लगे, मन्दराचल पर्वत रई बनाकर
खड़ा किया था सो नीचे पाताल को चला, तब भगवान ने कछुआ
का रूप धारण करके अपनी पीठ पर इसे धारण किया है। देह
ऐसा किया कि जिससे सब दैत्य मोहित हो गये । अर्थ यह है कि
धन्वतरि अवतार लेकर तो अमृत का कलश लिए निकले फिर मोहनी
स्त्री का रूप बनाके दैत्यों को मोहा और देवताओं को अमृत
पिलाया।
इसमें 3 अवतार सम्मलित हैं। कछप, मोहिनी, धनवंतरि भगवान।

चौदहवां अवतार नृसिंह हुए, तब अभिमानी हिरण्यकशिपु दैत्य का पेट फाड़ डाला।

पन्द्रहवाँ अवतार वामनजी हुए
जिहोंने तीन पैर से त्रिलोकी को नापा ।

फिर सोलहवाँ अवतार
परशुरामजी का हुआ है उहोंने सहस्त्रबाहु आदि राजाओं को
मार इक्कीसबार सम्पूर्ण पृथ्वी के दुष्ट क्षत्रिय नष्ट किये।

सत्रहवाँ अवतार पाराशर मुनि से सत्यवती में वेदव्यासजी हुए
इहोंने अल्प बुद्धि वाले मनुष्यों को देख कर उनके वास्ते वेदरूपी
वृक्ष को शाखा बनाई हैं, यानी एक वेद के चार वेद बना दिये हैं।
इसलिये इनका नाम वेदव्यास हुआ है।

अठारहवाँ अवतार
रामचन्द्र जी का हुआ उन्होंने देवताओं के कार्य सिद्धि करने की
इच्छा से समुद्र पर पुल बांधा, सेतबन्धु रामेश्वर स्थापित किये
और रावण को मारा ।

उन्नीसवाँ बीसवां अवतार बलदेव व
श्रीकृष्णजी यादवों में हुए हैं उन्होंने पृथ्वी का सम्पूर्ण भार उतारा
है। फिर कलियुग प्राप्त होगया।

तब दैत्यों को मोहने के वास्ते इक्कीसवें मध्य गया देशमें अजनके पुत्र बुद्धावतार भये हैं ।

फिर बाईस्वा ह्य्ग्रीव

तथा तेईसवा हंसावतार
धारण किया

फिर चौबीसवाँ कलियुग के अंत के समय में सतयुग के आदि का सन्धि में जब राजा लोग चोर हो जावेंगे यश विष्णु ब्राह्मण के घर कल्कि अवतार धारण करेंगे।


सूतजी कहते हैं कि है ऋषिवरों! सत्वनिधि कृष्ण भगवान के अवतार इस प्रकार अनंत है कि जैसे क्षीण न होने वाले महान सरोवरों में सेंकड़ों, हजारों छोटी छोटी जल धारायें निकलती हैं। ऋषि, मुनि, देवता तथा महान पराक्रम वाले मनुष्यों के पिता प्रजापति हरि भगवान की ही कला है । भागवत जिसका नाम है ऐसा वेद के तुल्य अथवा ब्रह्म को लक्ष कराने वाले इस भागवत पुराण में वेदव्यास ने केवल कृष्ण भगवान के चरित्रों का वर्णन किया है यह पुराण वेदव्यास मुनि ने आत्म ज्ञानियों में श्रेष्ठ अपने पुत्र शुकदेव जी को पढ़ाया फिर शुकदेव मुनि ने मृत्यु का निश्चय करके गंगा जी के तट पर सब ऋषिश्वरों में सम्मिलित होकर बैठे हुए परीक्षित महाराज को भली प्रकार से सुनाया है ऐसा जो यह परम उत्तम सूर्य रूप पुराण यानी सूर्य की तरह अन्तःकरण में ज्ञानरूपी चांदनी करने वाला है सो जब श्री कृष्णचन्द्र अपने परमधाम को चले गये, पीछे अब कलियुग में अज्ञान से अन्धे हुए पुरुषों के वास्ते धर्म, ज्ञान आदि के सहित अच्छे प्रकार से उदय हो रहा है। साला जी कहते हैं, हे ऋषीश्वरों ! ऐसे इस पुराण को महातेजस्वी शुकदेव मुनि तब गङ्गा तट पर कीर्तन कर रहे थे तब वहां बैठा हुआ मैं जो उन शुकदेवजी के इस अनुग्रह से इस भागवत को पढ़ता था सो मैं अपनी बुद्धि के अनुसार जैसा कि पढ़ा, सुना है तैसा ही आप लोगों को सुनाऊंगा।

इति श्री पद्यपुराण कथायाम तृतीय अध्याय समाप्तम।।༺═──────────────═༻




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