सती द्वारा, देह त्याग के समय दक्ष को कहे गये वचन।श्रीमद भागवद पुराण चौथा अध्याय [चतुर्थ स्कंध]

 

Shiva,Daksh,Bhrigu,Ribhus,Deva,Agni,Yajurveda,  श्रीमद भागवद पुराण चौथा अध्याय [चतुर्थ स्कंध]  (सती जी का दक्ष के यज्ञ में देह त्याग करना) दो-निज पति का अपमान जब, देखा पितु के गेह।  ता कारण से शिव प्रिया, त्याग दइ निज देह।। सती द्वारा, देह त्याग के समय दक्ष को कहे गये वचन  श्री शुकदेव जी बोले-हे परीक्षित ! मैत्रेय जी ने इतनी कथा सुनाने के पश्चात कहा-हे विदुर जी ! इस प्रकार शिव जी ने अनेक प्रकार कह कर सतीजी को प्रजापति दक्ष के घर जाने से मना किया, और अपनी अर्धांगिनी के देह का दोनों ओर को विनाश बिचारते हुये, श्री महादेवजी इतना कहकर मौन हो गये परन्तु उस समय सतीजी की विचित्र दशा थी, वे कभी पिता के घर जाने की तीव्र इच्छा से आश्रम से बाहर आती थी, और कभी महादेव जी के भय के कारण अन्दर जाती थी इस प्रकार वह दुविधा में फंसी हुई कभी बाहर निकलते हैं और कभी अन्दर जाती थी। तब इस दुविधा के कारण और अपने बन्धु जनों के मिलने की आकांक्षा को भंग होते जानकर सती बहुत दुखी हुई जिससे उनका मन उदास हो गया, और नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी। जब सती की यह दशा हुई तो वह मूढ़ मति स्त्री स्वभाव के कारण शोक व क्रोध के कारण शिव को छोड़कर अकेली अपने पिता के घर को चल पड़ी। सती जी को इस प्रकार अकेली जाते हुये देख कर उनके साथ शिव जी के अनेकों गण भी पीछे-पीछे चल दिये। शिवजी के मणि- मान तथा मद आदि अनुचरों ने संतों को नन्दीश्वर पर चढ़ा लिया और वे भी उनके साथ-साथ चलदिये। इस प्रकार गणों के साथ नंदी पर बैठ मैंना, गेंद, दर्पण, कमल, श्वेत क्षत्र, पंखा माला, आदि लिये, गाते दुन्दभी शंख वीणा बासुरी आदि बजाते हुये प्रसन्न हो शिवगण सहित सतीजी अपने पिता दक्ष के यहाँ पहुची। वहां पर प्रजापति दक्ष के भय के कारण कवल सतीजी की माता तथा बहिनों के अतिरिक्त अन्य किसी ऋषी, मुनी, देवता, तथा नगर वासियों ने भी सती का करो सत्कार किया, और न किसी ने भी उनके क्षेम कुशल ही पूछी। परन्त इस प्रकार सती ने अपने पिता द्वारा अनादर देख और अपने पति भगवान शंकर का यज्ञ में कोई स्थान एवं भाव न देख कर अति क्रोध किया। उन्होंने अपने इस अपमान होने के कारण अपनी माता एवं बहिनों द्वारा दिया आसन भी नहीं ग्रहण किया तब उन्हें अपने पति के कहे वचनों का स्मरण हुआ सो जिसके कारण वे अपने इस अपमान से क्रोध की ज्वाला में जलने लगीं सती ने कहा- अभिमानी दक्ष ! तुझे धिक्कार है जो तूने संपूर्ण देहधारियों के प्रिय आत्मा, अचिन्त्यरूप, चिदानन्दरूप शिवजी से तेरे बिना, और कौन शत्रुता करे। हे द्विज ! तुझ जैसे निकंद असाधु पुरुष दूसरों के गुणों में केवल दोषों को ही सहसा करते हैं, और कुछ ऐसे भी मध्यस्थ पुरुष हैं जो कि अपने विवेक से यथास्थित गुण दोषों को ग्रहण करना है और जो सत्पुरुष हैं वे केवल गुणों को ही ग्रहण करते हैं उन्हें किन्तु तू उन पुरुषों में से हैं जो उपरोक्त तीनों कोटि के मनुष्य से भिन्न हैं । तूने अभिमान के वशीभूत थोड़ा सा गुण होने पर ही बहुत माना है, और ऐसे महात्मा का निरादर किया है कि जिनका दो अक्षर का (शिव) नाम एक बार ही लेने से मनुष्य के समस्त पापों का नाश हो जाता है। वे ऐसे कीर्ति वाले हैं जो कि जिन की आज्ञा का उल्लंघन कोई भी नहीं कर सकता है सो उन (शिव) का तुमने अपमान किया और उनसे वैर करते हो। तुम वह अमंगल रूप हो जहाँ धर्म की रक्षा करने वाले की निरंकुश होकर निन्दा करते हैं, ऐसे लोगों को धर्म रक्षक की निन्दा करता हो और सुनने वाले में यदि शक्ति हो तो उसे मार देना चाहिये यदि इतनी सामर्थ न हो तो वहाँ से तुरन्त उठ कर चला जाना चाहिये। यदि समर्थ हो तो निन्दक की जीभ को काट डाले और फिर प्राणों का त्याग करदे । सो हे नीलकंठ निन्दक! अब मैं तेरे शरीर प्राप्त इस देह को त्याग दूंगी । क्योंकि अज्ञानता से यदि अशुद्ध अन्न भक्षण कर लिया तो उसे भी वमन कर पेट से बाहर निकाल देना चाहिये । मैं श्राप देती हूँ जो अणमादिक सिद्धियाँ हमारी इच्छा मात्र से उत्पन्न हो सकती हैं जिनका कि बड़े बड़े वृह्म ज्ञानी सेवन करते हैं वे तुम्हें कभी प्राप्त नहीं होंगी। जो तुम्हारी पदवियाँ हैं वे सब तुम्हारी यज्ञशाला में ही रहती हैं। तथा तुम्हारी प्रशंसा वे ही पुरुष करते हैं जो यज्ञशाला के अन्न से तृप्त होते हैं। ऐसे अन्न को वे ही लोग सेवन करते है जो धूम्रपान मार्ग वाले होते हैं । इसके विपरीत हमारी पदवी तो ऐसी है कि जिनको सेवा अवधूत लोग करते हैं तू भगवान शिव का अपराधी है अतः तेरे द्वारा जन्म प्राप्त इस देह को अब में कदापि नहीं रखूंगी क्योंकि जो पुरुष महात्मा पुरुषों की निंदा करता है उसका जन्म लेना ही धिवकार है। क्योंकि यदि कभी विनोद में भी भगवान शिव मुझे दक्ष पुत्री कहकर सम्बोधन करेंगे तो उसी समय मेरा मन उदास हो जाएगा। सो इस कारण तुम्हारे द्वारा इस मुर्दा के समान देह का परित्याग करूंगी। तब सतीजी ने हाथ में जल से आचमन कर पीत वस्त्र धारण कर आसन पर बैठ योग साधन से अपने प्राणों को भृकुटियों के मध्य स्थिति किया और  विचारा कि ये (दक्ष) शिवजी का द्वेषी है यदि मेरी देह यही पड़ी रही तो यह अभिमानी न जाने मेरी देह की क्या दशा करे अतः ऐसा उपाय करना चाहिये कि इस पापी को मेरी देह को भस्म तक भी न मिल सके । तब यह विचार करके सती ने अपने पति सदाशिव के चरण कमलों का चिंतन किया। और अपनी योग शक्ति से अग्नि प्रज्वलित करके अपने समाधिस्थ शरीर को भस्म कर दिया। उस समय सती की समाधि की अग्नि से सती का शरीर आप ही भस्म हो गया। सतीजी द्वारा प्राण त्याग और उनकी देह का भस्म होना देख कर तीनो लोक में हा-हाकार मच गया। सब देखने वाले महान आश्चर्य में हुए और कहने लगे-वही परम पूज्य भगवान शिव की पत्नी देवी सती ने अपने पिता दक्ष के द्वारा अपमान किये जाने के कारण अपने शरीर का त्याग कर दिया, सो वह वृह्म द्रोही अत्यन्त कठोर हृदय वाला, शिव से वैर रखने वाला प्रजापति दक्ष संसार में अत्यन्त निन्दा को प्राप्त होगा। क्योंकि उसने अपने द्वारा किये अपराध के कारण मरती हुई अपनी पुत्री सतीजी को मरने से रोकने के लिये, इस घटना को रोकने का उपाय नहीं किया। तब मैत्रेय जी कहने लगे-हे विदुर जी! इस प्रकार शिव पत्नी सती का देह त्याग करना देखकर उनके साथ आये हुये शिव गण अति क्रोधित हुये, और वे अपने-अपने अस्त्र त्रिशूल आदि हाथों में लेकर दक्ष को मारने के लिये उसकी ओर दौड़े। तब उन शिव गणों को दक्ष की ओर बड़े वेग से मारने के लिये आता हुआ देखकर भृगु ऋषि ने उन गणों का कर्तव्य जान लिया, और तुरंत ही यज्ञ की रक्षा के निमित्त यज्ञ नाशकों के विनास करने के लिये यजुर्वेद की ऋचा्रों का उच्चारण कर दक्षिण अग्नि में स्त्रुवा भरकर एक आहुती दीनी । अब उस अध्वर्य ने वह होम किया तो तप से अमृत को प्राप्त हुए; ऋभु नामक हजारों देवता प्रगट हुए। जो कि वे ऋभु नामक देवता वृह्म के तेज से अत्यन्त प्रकाश मान थे। उन्होंने भृगु ऋषि से कहा-हे ब्रह्मन् ! हमें जो आज्ञा हो सो करें। तब भृगु ने आज्ञा दी कि यज्ञ को विध्वंस करने वाले इन शिव गणों को यज्ञशाला से बाहर निकाल दो।भृगु जी की आज्ञा पाय उन ऋभु नामक देवताओं ने यज्ञ की अधजली लकड़ियाँ ले-लेकर शिवगणों पर आक्रमण किया। और उन्हें मार-मार कर यज्ञशाला से बाहर निकाल दिया।

श्रीमद भागवद पुराण चौथा अध्याय [चतुर्थ स्कंध]


(सती जी का दक्ष के यज्ञ में देह त्याग करना)

दो-निज पति का अपमान जब, देखा पितु के गेह।

ता कारण से शिव प्रिया, त्याग दइ निज देह।।

सती द्वारा, देह त्याग के समय दक्ष को कहे गये वचन

श्री शुकदेव जी बोले-हे परीक्षित ! मैत्रेय जी ने इतनी कथा सुनाने के पश्चात कहा-हे विदुर जी ! इस प्रकार शिव जी ने अनेक प्रकार कह कर सतीजी को प्रजापति दक्ष के घर जाने से मना किया, और अपनी अर्धांगिनी के देह का दोनों ओर को विनाश बिचारते हुये, श्री महादेवजी इतना कहकर मौन हो गये परन्तु उस समय सतीजी की विचित्र दशा थी, वे कभी पिता के घर जाने की तीव्र इच्छा से आश्रम से बाहर आती थी, और कभी महादेव जी के भय के कारण अन्दर जाती थी इस प्रकार वह दुविधा में फंसी हुई कभी बाहर निकलते हैं और कभी अन्दर जाती थी। तब इस दुविधा के कारण और अपने बन्धु जनों के मिलने की आकांक्षा को भंग होते जानकर सती बहुत दुखी हुई जिससे उनका मन उदास हो गया, और नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी। जब सती की यह दशा हुई तो वह मूढ़ मति स्त्री स्वभाव के कारण शोक व क्रोध के कारण शिव को छोड़कर अकेली अपने पिता के घर को चल पड़ी। सती जी को इस प्रकार अकेली जाते हुये देख कर उनके साथ शिव जी के अनेकों गण भी पीछे-पीछे चल दिये। शिवजी के मणि- मान तथा मद आदि अनुचरों ने संतों को नन्दीश्वर पर चढ़ा लिया और वे भी उनके साथ-साथ चलदिये। इस प्रकार गणों के साथ नंदी पर बैठ मैंना, गेंद, दर्पण, कमल, श्वेत क्षत्र, पंखा माला, आदि लिये, गाते दुन्दभी शंख वीणा बासुरी आदि बजाते हुये प्रसन्न हो शिवगण सहित सतीजी अपने पिता दक्ष के यहाँ पहुची। वहां पर प्रजापति दक्ष के भय के कारण कवल सतीजी की माता तथा बहिनों के अतिरिक्त अन्य किसी ऋषी, मुनी, देवता, तथा नगर वासियों ने भी सती का करो सत्कार किया, और न किसी ने भी उनके क्षेम कुशल ही पूछी। परन्त इस प्रकार सती ने अपने पिता द्वारा अनादर देख और अपने पति भगवान शंकर का यज्ञ में कोई स्थान एवं भाव न देख कर अति क्रोध किया। उन्होंने अपने इस अपमान होने के कारण अपनी माता एवं बहिनों द्वारा दिया आसन भी नहीं ग्रहण किया तब उन्हें अपने पति के कहे वचनों का स्मरण हुआ सो जिसके कारण वे अपने इस अपमान से क्रोध की ज्वाला में जलने लगीं सती ने कहा- 


हे अभिमानी दक्ष ! तुझे धिक्कार है जो तूने संपूर्ण देहधारियों के प्रिय आत्मा, अचिन्त्यरूप, चिदानन्दरूप शिवजी से तेरे बिना, और कौन शत्रुता करे। हे द्विज ! तुझ जैसे निकंद असाधु पुरुष दूसरों के गुणों में केवल दोषों को ही सहसा करते हैं, और कुछ ऐसे भी मध्यस्थ पुरुष हैं जो कि अपने विवेक से यथास्थित गुण दोषों को ग्रहण करना है और जो सत्पुरुष हैं वे केवल गुणों को ही ग्रहण करते हैं उन्हें किन्तु तू उन पुरुषों में से हैं जो उपरोक्त तीनों कोटि के मनुष्य से भिन्न हैं । तूने अभिमान के वशीभूत थोड़ा सा गुण होने पर ही बहुत माना है, और ऐसे महात्मा का निरादर किया है कि जिनका दो अक्षर का (शिव) नाम एक बार ही लेने से मनुष्य के समस्त पापों का नाश हो जाता है। वे ऐसे कीर्ति वाले हैं जो कि जिन की आज्ञा का उल्लंघन कोई भी नहीं कर सकता है सो उन (शिव) का तुमने अपमान किया और उनसे वैर करते हो। तुम वह अमंगल रूप हो जहाँ धर्म की रक्षा करने वाले की निरंकुश होकर निन्दा करते हैं, ऐसे लोगों को धर्म रक्षक की निन्दा करता हो और सुनने वाले में यदि शक्ति हो तो उसे मार देना चाहिये यदि इतनी सामर्थ न हो तो वहाँ से तुरन्त उठ कर चला जाना चाहिये। यदि समर्थ हो तो निन्दक की जीभ को काट डाले और फिर प्राणों का त्याग करदे । सो हे नीलकंठ निन्दक! अब मैं तेरे शरीर प्राप्त इस देह को त्याग दूंगी ।

 

क्योंकि अज्ञानता से यदि अशुद्ध अन्न भक्षण कर लिया तो उसे भी वमन कर पेट से बाहर निकाल देना चाहिये । मैं श्राप देती हूँ जो अणमादिक सिद्धियाँ हमारी इच्छा मात्र से उत्पन्न हो सकती हैं जिनका कि बड़े बड़े वृह्म ज्ञानी सेवन करते हैं वे तुम्हें कभी प्राप्त नहीं होंगी। जो तुम्हारी पदवियाँ हैं वे सब तुम्हारी यज्ञशाला में ही रहती हैं। तथा तुम्हारी प्रशंसा वे ही पुरुष करते हैं जो यज्ञशाला के अन्न से तृप्त होते हैं। ऐसे अन्न को वे ही लोग सेवन करते है जो धूम्रपान मार्ग वाले होते हैं । इसके विपरीत हमारी पदवी तो ऐसी है कि जिनको सेवा अवधूत लोग करते हैं तू भगवान शिव का अपराधी है अतः तेरे द्वारा जन्म प्राप्त इस देह को अब में कदापि नहीं रखूंगी क्योंकि जो पुरुष महात्मा पुरुषों की निंदा करता है उसका जन्म लेना ही धिवकार है। क्योंकि यदि कभी विनोद में भी भगवान शिव मुझे दक्ष पुत्री कहकर सम्बोधन करेंगे तो उसी समय मेरा मन उदास हो जाएगा। सो इस कारण तुम्हारे द्वारा इस मुर्दा के समान देह का परित्याग करूंगी। तब सतीजी ने हाथ में जल से आचमन कर पीत वस्त्र धारण कर आसन पर बैठ योग साधन से अपने प्राणों को भृकुटियों के मध्य स्थिति किया और विचारा कि ये (दक्ष) शिवजी का द्वेषी है यदि मेरी देह यही पड़ी रही तो यह अभिमानी न जाने मेरी देह की क्या दशा करे अतः ऐसा उपाय करना चाहिये कि इस पापी को मेरी देह को भस्म तक भी न मिल सके । तब यह विचार करके सती ने अपने पति सदाशिव के चरण कमलों का चिंतन किया। और अपनी योग शक्ति से अग्नि प्रज्वलित करके अपने समाधिस्थ शरीर को भस्म कर दिया। उस समय सती की समाधि की अग्नि से सती का शरीर आप ही भस्म हो गया। सतीजी द्वारा प्राण त्याग और उनकी देह का भस्म होना देख कर तीनो लोक में हा-हाकार मच गया।


 

सब देखने वाले महा
आश्चर्य में हुए और कहने लगे-वही परम पूज्य भगवान शिव की पत्नी देवी सती ने अपने पिता दक्ष के द्वारा अपमान किये जाने के कारण अपने शरीर का त्याग कर दिया, सो वह वृह्म द्रोही अत्यन्त कठोर हृदय वाला, शिव से वैर रखने वाला प्रजापति दक्ष संसार में अत्यन्त निन्दा को प्राप्त होगा। क्योंकि उसने अपने द्वारा किये अपराध के कारण मरती हुई अपनी पुत्री सतीजी को मरने से रोकने के लिये, इस घटना को रोकने का उपाय नहीं किया। तब मैत्रेय जी कहने लगे-हे विदुर जी! इस प्रकार शिव पत्नी सती का देह त्याग करना देखकर उनके साथ आये हुये शिव गण अति क्रोधित हुये, और वे अपने-अपने अस्त्र त्रिशूल आदि हाथों में लेकर दक्ष को मारने के लिये उसकी ओर दौड़े। तब उन शिव गणों को दक्ष की ओर बड़े वेग से मारने के लिये आता हुआ देखकर भृगु ऋषि ने उन गणों का कर्तव्य जान लिया, और तुरंत ही यज्ञ की रक्षा के निमित्त यज्ञ नाशकों के विनास करने के लिये यजुर्वेद की ऋचा्रों का उच्चारण कर दक्षिण अग्नि में स्त्रुवा भरकर एक आहुती दीनी । अब उस अध्वर्य ने वह होम किया तो तप से अमृत को प्राप्त हुए; ऋभु नामक हजारों देवता प्रगट हुए। जो कि वे ऋभु नामक देवता वृह्म के तेज से अत्यन्त प्रकाश मान थे। उन्होंने भृगु ऋषि से कहा-हे ब्रह्मन् ! हमें जो आज्ञा हो सो करें। तब भृगु ने आज्ञा दी कि यज्ञ को विध्वंस करने वाले इन शिव गणों को यज्ञशाला से बाहर निकाल दो।भृगु जी की आज्ञा पाय उन ऋभु नामक देवताओं ने यज्ञ की अधजली लकड़ियाँ ले-लेकर शिवगणों पर आक्रमण किया। और उन्हें मार-मार कर यज्ञशाला से बाहर निकाल दिया।

विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]

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श्रीमद भागवद पुराण [introduction]


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• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]


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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]


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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]

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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]

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