श्रीमद भागवद पुराण १५ अध्याय [स्कंध ४] (पृथु का जन्म एवं राज्याभिषेक )

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श्रीमद भागवद पुराण पन्द्रहवां अध्याय [स्कंध ४]

(पृथु का जन्म एवं राज्याभिषेक )

दो०-वेणु वन्श हित भुज मथी, मिलि जुलि सब मुनिराज।

पृथु प्रगटित तासों भये, हर्षित भयो समाज।।


Deva,Prithu,Vidur, २६२  श्रीमद भागवद पुराण पन्द्रहवां अध्याय [स्कंध ४]  (पृथु का जन्म एवं राज्याभिषेक )  दो०-वेणु वन्श हित भुज मथी, मिलि जुलि सब मुनिराज। पृथु प्रगटित तासों भये, हर्षित भयो समाज।।   श्री शुकदेवजी बोले-हैं राजा परीक्षत! इस प्रकार मैत्रेय ने विदुर से कहते हुये कहा-कि विदुर ! उस जांघ से जो कुरूप आकृति वाला पुरुष हुआ उसके कारण वेनु के शरीर से उसके सारे पाप और अधर्म निकल कर निषाद के रूप में हुये। तत्पश्- चात मुनियों ने दूसरा उद्यम किया। उन्होंने फिर वेनु को भुजाओं को मथने आरम्भ कर दिया। जिसके मथने से पृथु नाम का एक पुरुष और बरारोहा अवि नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई। यह पृथु साक्षात विष्णु के अंश से हुआ था, और वह कन्या बरारोहा अचि साक्षात लक्ष्मी के अंश से उत्पन्न हुई थी। तब उन मुनियों ने उस वरारोहा अचि का विवाह पृथु से कर दिया, और राजतिलक करके सिंहासन पर पृथु को बिठा दिया। तद नन्तर मुनियों ने अपनी ज्ञान दृष्टि से यह पहिचान लिया कि पृथु नारायण का अवतार हैं और अचि लक्ष्मी जी का अवतार है। तब सभी देवता लोग पृथु के समीप आये और सभी ने उन्हें भेट स्वरूप कुछ न कुछ दिया। क्योंकि पृथु के तथा अचि के शरीर के चिन्हों को देखकर उन्होंने यह जान लिया कि वे पृथु नारायण अवतार हैं, और अचि लक्ष्मी अवतार हैं। अतः इन्द्र ने पृथु को एक बहुत उत्तम मुकुट दिया, वरुण ने एक छत्र दिया, पवन ने चवर दी, तथा धर्म ने कृतिरूप माला प्रदान एक रत्न तथा कुबेर ने एक स्वर्ण का सिंहासन दिया। यम ने संयम नाम का दंड दिया जो सबको बस में करने वाला था। तथा वृह्माजी ने वृहामय कवच समर्पण किया। इस प्रकार सभी ने कुछ न कुछ भेंट में दिया। जब वे सब पृथु को अति प्रशंसा करने लगे तो पृथु ने कहा-हे सौम्य बंदीजन! तुम लोग किस आधार से मेरी इतनी बढ़ाई करते हो जिसके गुण संसार में प्रगट हों उसकी बड़ाई करना तो योग्य है परन्तु अभी मैं इस यश का अधिकारी नहीं हूँ। जब कालान्तर में मेरे गुण प्रगट हो जावें तब तुम मेरी प्रशंसा करना। राजा पृथु के इन सुखदायक बचनों को सुनकर सब ऋषि मुनि तथा सभासद पृथु की अधिक प्रशंसा करने लगे।


श्री शुकदेवजी बोले-हैं राजा परीक्षत! इस प्रकार मैत्रेय ने विदुर से कहते हुये कहा-कि विदुर ! उस जांघ से जो कुरूप आकृति वाला पुरुष हुआ उसके कारण वेनु के शरीर से उसके सारे पाप और अधर्म निकल कर निषाद के रूप में हुये। तत्पश्- चात मुनियों ने दूसरा उद्यम किया। उन्होंने फिर वेनु को भुजाओं को मथने आरम्भ कर दिया। जिसके मथने से पृथु नाम का एक पुरुष और बरारोहा अवि नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई। यह पृथु साक्षात विष्णु के अंश से हुआ था, और वह कन्या बरारोहा अचि साक्षात लक्ष्मी के अंश से उत्पन्न हुई थी। तब उन मुनियों ने उस वरारोहा अचि का विवाह पृथु से कर दिया, और राजतिलक करके सिंहासन पर पृथु को बिठा दिया। तद नन्तर मुनियों ने अपनी ज्ञान दृष्टि से यह पहिचान लिया कि पृथु नारायण का अवतार हैं और अचि लक्ष्मी जी का अवतार है। तब सभी देवता लोग पृथु के समीप आये और सभी ने उन्हें भेट स्वरूप कुछ न कुछ दिया। क्योंकि पृथु के तथा अचि के शरीर के चिन्हों को देखकर उन्होंने यह जान लिया कि वे पृथु नारायण अवतार हैं, और अचि लक्ष्मी अवतार हैं। अतः इन्द्र ने पृथु को एक बहुत उत्तम मुकुट दिया, वरुण ने एक छत्र दिया, पवन ने चवर दी, तथा धर्म ने कृतिरूप माला प्रदान एक रत्न तथा कुबेर ने एक स्वर्ण का सिंहासन दिया। यम ने संयम नाम का दंड दिया जो सबको बस में करने वाला था। तथा वृह्माजी ने वृहामय कवच समर्पण किया। इस प्रकार सभी ने कुछ न कुछ भेंट में दिया। जब वे सब पृथु को अति प्रशंसा करने लगे तो पृथु ने कहा-हे सौम्य बंदीजन! तुम लोग किस आधार से मेरी इतनी बढ़ाई करते हो जिसके गुण संसार में प्रगट हों उसकी बड़ाई करना तो योग्य है परन्तु अभी मैं इस यश का अधिकारी नहीं हूँ। जब कालान्तर में मेरे गुण प्रगट हो जावें तब तुम मेरी प्रशंसा करना। राजा पृथु के इन सुखदायक बचनों को सुनकर सब ऋषि मुनि तथा सभासद पृथु की अधिक प्रशंसा करने लगे।
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