श्रीमद भागवद पुराण ग्यारहवाँ अध्याय [स्कंध ४]।ध्रुव का राज्य त्याग और तप को जाना।

श्रीमद भागवद पुराण ग्यारहवाँ अध्याय [स्कंध ४]

(ध्रुव का राज्य त्याग और तप को जाना)

दोहा-ग्यारहवें अध्याय में ध्रुव ने जतन बनाय।

राज्य दिया निज पुत्र को, वन में पहुँचे जाय ।।


श्रीमद भागवद पुराण ग्यारहवाँ अध्याय [स्कंध ४] (ध्रुव का राज्य त्याग और तप को जाना)  दोहा-ग्यारहवें अध्याय में ध्रुव ने जतन बनाय।  राज्य दिया निज पुत्र को, वन में पहुँचे जाय ।।   श्री शुकदेव जी बोले-हे परीक्षित ! इस प्रकार मैत्रेय जी ने विदुर जी को ध्रुवजी द्वारा लाख तीस हजार यक्षों को विनाश करने की कथा सुनाई । तत्पश्चात वह प्रसंग भी कहा कि जिस प्रकार स्वायंभुव मनु ने युद्ध स्थल पर आकर धुरव को हरि भक्ति का उपदेश करके युद्ध को बन्द कराया था, और कुवेर जी से संधि करा कर जाने दिया था। तब कुवेर अपने स्थान को चले गये थे और ध्रुव जी अपने नगर को चले आये थे सो हे विदुर जी ! अब हम धुरव जी का वह चित्र वर्णन करते हैं कि जिसमें वह अपना राज्य अपने पुत्र को देकर उत्तराखंड में तप करने को चले गये और अटल ध्रुव पद को प्राप्त हुये।   हे विदुर जी ! इस युद्धआदि से प्रथम ही ध्रुव जी का विवाह प्रजापति शिशुमार की भृमनी नाम की कन्या के साथ हो गया था । जिससे धुरव जी ने अपनी भृमनी नाम वाली भार्या से दो पुत्र उत्पन्न किये। जिन में १ का नाम कल्प और दूसरे का काम वत्सर हुआ। धुरव जी की एक दूसरी स्त्री और थी जिसका नाम इला था वह नाम्ना वायु की कन्या थी। सो उस भार्या में ध्रुव जी ने एक पुत्र उत्पन्न किया जिसका नाम उत्कल हुआ, और एक कन्या को उत्पन्न किया धुरव जी के भाई उत्तम कुमार ने अपना विवाह नहीं किया था जिस कारण उसकी कोई संतान नहीं हुई थी।   जब युद्ध से लौट कर ध्रुव जी अपने नगर में आ गये, तो उन्होंने बहुत दक्षण वाले यज्ञों से हवन किया व देवता संबंधी कर्म करके यज्ञपति भगवान का भजन किया । भगवान में भक्ति करते हुए ध्रुव जी अपनी आत्मा में तथा प्राणियों में विराज मान सर्वदेवमय परमात्मा को देखने लगे। ऐसे वृह्मण्य, दीन वत्सल, और धर्म मर्यादा रक्षक, राजा ध्रुव को संपूर्ण प्रजा पिता के तुल्य मानने लगी। छत्तीस हजार वर्ष पर्यन्त ध्रुव जी ने समस्त भूमंडल का राज्य किया। वे भोगों से पुन्य को ओर यज्ञानिक अनुष्ठानों से पाप को क्षय करते रहे। तत्पश्चात धुरव जी विचार ने लगे कि सब संसार संबंध, राज्य, धन,स्त्री, पुत्र, यह सब स्वप्न के समान झूठे हैं राज्य पद पर आरुढ़ होने से मनुष्य में काम, क्रोध, लोभ, मोह, आदि अवगुण, समय-समय पर स्वभाव में अवश्य ही प्रवेश कर जाते हैं। इस लिये इन सब से मोह त्याग कर हरि स्मरण करना ही सर्वोत्तम है । एसा विचार कर धुरव जी ने अपने उत्कल नाम पुत्र को राज्य सिंहासन पर राज्य तिलक करके बैठा दिया। तब स्वयं अपनी रानीयों सहित बद्री नारायण में पहुँच कर भगवान नारायण का तप और तपस्या करने में लीन हो गये।   यह कथा कहने के पश्चात श्री शुकदेव मुनि ने राजा परीक्षत से कहा-हे राजन् ! एक समय कि तुम्हारे पिता सह धर्मराज युधिष्ठिर ने एक भारी यज्ञ किया था उस यज्ञ में एक लोभी ब्राह्मण ने सुवर्ण का एक थाल चोरी कर रख लिया था। तब वह ब्राह्मण उस चोरी के अपराध में थाल सहित पकड़ कर महाराज युधिष्ठिर के सामने लाया गया। जिस पर उस ब्राह्मण को दंड देने को बात उठी। तब कुछ लोगों ने महाराज युधिष्ठर को यह सलाह दी कि इस चोरी करने वाले ब्राह्मण के हाथ कटवा दिये जाये। तब धर्म राज युधिष्ठिर ने उस ब्राह्मण को न्यायोचित दंड प्रदान करने के लिये राजा बलि के पास भिजवा दिया। तब हे परीक्षित ! जानते हो कि राजा वलि ने उस ब्राह्मण को दंड देने के लिये क्या कहा। परीक्षत ने कहा हे मुने ! यह भी आप कहेंगे कि उसने क्या निर्णय किया । तब शुकदेव जी बोले कि हे परीक्षित ! राजा बलि ने कहा-कि इस चोरी के अपराध में उस राजा को दंड दिया जाय कि जिस राज्य में यह ब्राह्मण रहता है क्योंकि इस ब्राह्मण को उस राजा ने दान में इतना धन क्यों नहीं दिया कि यह चोरी ही न करता।



श्री शुकदेव जी बोले-हे परीक्षित ! इस प्रकार मैत्रेय जी ने विदुर जी को ध्रुवजी द्वारा लाख तीस हजार यक्षों को विनाश करने की कथा सुनाई । तत्पश्चात वह प्रसंग भी कहा कि जिस प्रकार स्वायंभुव मनु ने युद्ध स्थल पर आकर धुरव को हरि भक्ति का उपदेश करके युद्ध को बन्द कराया था, और कुवेर जी से संधि करा कर जाने दिया था। तब कुवेर अपने स्थान को चले गये थे और ध्रुव जी अपने नगर को चले आये थे सो हे विदुर जी ! अब हम धुरव जी का वह चित्र वर्णन करते हैं कि जिसमें वह अपना राज्य अपने पुत्र को देकर उत्तराखंड में तप करने को चले गये और अटल ध्रुव पद को प्राप्त हुये।

ध्रुव जी का वंंश।।

हे विदुर जी ! इस युद्धआदि से प्रथम ही ध्रुव जी का विवाह प्रजापति शिशुमार की भृमनी नाम की कन्या के साथ हो गया था । जिससे धुरव जी ने अपनी भृमनी नाम वाली भार्या से दो पुत्र उत्पन्न किये। जिन में १ का नाम कल्प और दूसरे का नाम वत्सर हुआ। धुरव जी की एक दूसरी स्त्री और थी जिसका नाम इला था वह नाम्ना वायु की कन्या थी। सो उस भार्या में ध्रुव जी ने एक पुत्र उत्पन्न किया जिसका नाम उत्कल हुआ, और एक कन्या को उत्पन्न किया धुरव जी के भाई उत्तम कुमार ने अपना विवाह नहीं किया था जिस कारण उसकी कोई संतान नहीं हुई थी।


जब युद्ध से लौट कर ध्रुव जी अपने नगर में आ गये, तो उन्होंने बहुत दक्षण वाले यज्ञों से हवन किया व देवता संबंधी कर्म करके यज्ञपति भगवान का भजन किया । भगवान में भक्ति करते हुए ध्रुव जी अपनी आत्मा में तथा प्राणियों में विराज मान सर्वदेवमय परमात्मा को देखने लगे। ऐसे वृह्मण्य, दीन वत्सल, और धर्म मर्यादा रक्षक, राजा ध्रुव को संपूर्ण प्रजा पिता के तुल्य मानने लगी। छत्तीस हजार वर्ष पर्यन्त ध्रुव जी ने समस्त भूमंडल का राज्य किया। वे भोगों से पुन्य को ओर यज्ञानिक अनुष्ठानों से पाप को क्षय करते रहे। तत्पश्चात धुरव जी विचार ने लगे कि सब संसार संबंध, राज्य, धन,स्त्री, पुत्र, यह सब स्वप्न के समान झूठे हैं राज्य पद पर आरुढ़ होने से मनुष्य में काम, क्रोध, लोभ, मोह, आदि अवगुण, समय-समय पर स्वभाव में अवश्य ही प्रवेश कर जाते हैं। इस लिये इन सब से मोह त्याग कर हरि स्मरण करना ही सर्वोत्तम है । एसा विचार कर धुरव जी ने अपने उत्कल नाम पुत्र को राज्य सिंहासन पर राज्य तिलक करके बैठा दिया। तब स्वयं अपनी रानीयों सहित बद्री नारायण में पहुँच कर भगवान नारायण का तप और तपस्या करने में लीन हो गये।

यह कथा कहने के पश्चात श्री शुकदेव मुनि ने राजा परीक्षत से कहा-हे राजन् ! एक समय कि तुम्हारे पिता सह धर्मराज युधिष्ठिर ने एक भारी यज्ञ किया था उस यज्ञ में एक लोभी ब्राह्मण ने सुवर्ण का एक थाल चोरी कर रख लिया था। तब वह ब्राह्मण उस चोरी के अपराध में थाल सहित पकड़ कर महाराज युधिष्ठिर के सामने लाया गया। जिस पर उस ब्राह्मण को दंड देने को बात उठी। तब कुछ लोगों ने महाराज युधिष्ठर को यह सलाह दी कि इस चोरी करने वाले ब्राह्मण के हाथ कटवा दिये जाये। तब धर्म राज युधिष्ठिर ने उस ब्राह्मण को न्यायोचित दंड प्रदान करने के लिये राजा बलि के पास भिजवा दिया। तब हे परीक्षित ! जानते हो कि राजा वलि ने उस ब्राह्मण को दंड देने के लिये क्या कहा। परीक्षत ने कहा हे मुने ! यह भी आप कहेंगे कि उसने क्या निर्णय किया । तब शुकदेव जी बोले कि हे परीक्षित ! राजा बलि ने कहा-कि इस चोरी के अपराध में उस राजा को दंड दिया जाय कि जिस राज्य में यह ब्राह्मण रहता है क्योंकि इस ब्राह्मण को उस राजा ने दान में इतना धन क्यों नहीं दिया कि यह चोरी ही न करता।

विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]

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श्रीमद भागवद पुराण [introduction]


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• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]


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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]


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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]

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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]

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