श्रीमद भागवद पुराण चौबीसवां अध्याय [स्कंध ४] । रुद्र गत कथा ।
धर्म कथाएं
विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]
हिन्दु धरम का परम सत्य।
१) धर्मनिष्ठ्ता
२) कर्मनिष्ठ्ता
श्रीमद भागवद पुराण चौबीसवां अध्याय [स्कंध ४]
। रुद्र गत कथा ।
दोहा-गये प्रचेता तप करन, पितु आज्ञा शिरधार।
चौबीसवें अध्याय में, कथा कही युत सार।
मैत्रेय जी बोले-पृथु के उपरान्त पृथु का पुत्र विजिताश्व राजा हुआ। उसने अपने छोटे भाइयों को बड़े प्रेम से दिशाएं बांट दी। हर्यक्ष नाम भाई को पश्चिम दिशा, धूम केश को दक्षिण दिशा, वृक भाई को पश्चिम दिशा का और सबसे छोटे चौथे भाई द्रविण को उत्तर दिशा का राज्य दिया ।
विजितशव का दूसरा नाम क्या था?
विजिताश्व ने इन्द्र से अन्तर्धान होने की विद्या सीखी थी इस कारण विजिताश्व का दूसरा नाम अन्तर्धान भी हो जाता था । इससे शिखिण्डिनी नाम वाली स्त्री से परमोत्तम तीन पुत्र उत्पन्न हुए। पावक, पवमान और शुचि ये तीनों पहले अग्नि रूप थे । वशिष्ठजी के शाप से यहाँ आकर जन्मे फिर अपनी योग गति को प्राप्त हुए। विजिताश्व के नभस्वती रानी से हविर्धान नाम पुत्र उत्पन्न हुआ। जिसने घोड़ा चुराकर ले जाने वाले इन्द्र को जान करके भी नहीं मारा था । कर लेना, दण्ड देना आदि सब राज वृत्तियाँ को दूसरों को दुःख देने वाली मानकर महाराजा विजिताश्व ने बहुत काल पर्यन्त यज्ञ करने को राजवृत्ति का परित्याग कर दिया। वहाँ यज्ञ में वह आत्म ज्ञानी परमात्मा का पूजन करता हुआ उत्तम समाधि लगा कर उस परमेश्वर के लोक को प्राप्त हुआ। हविर्धान के हविर्धानी नाम वाली पत्नी में बर्हिवद, गय, शुकल, कृष्ण, सत्य, जितब्रत, छः पुत्र उत्पन्न हुये। हविर्धानी का पुत्र प्रजापति बर्हिबद नाम महा भाग्य शाली कर्म काण्ड में पारङ्गत और योग विद्या में अत्यन्त विलक्षण था । उस महा प्रतापी राजा ने सम्पूर्ण पृथ्वी मण्डल में क्रिसी स्थान को यज्ञ किये बिना नहीं छोड़ा। इसी से राजा का प्राचीन बर्हिनाम हुआ। इस प्राचीन बर्हिराजा ने ब्रह्माजी की आज्ञा से संमुद्र की कन्या शूद्रति से विवाह किया, इसके दस पुत्र हुए, वे सब समान नाम व आचरण वाले धर्म में परायण, प्रचेता नाम से प्रसिद्ध हुए। उन सबको प्राचीन बर्हि ने सृष्टि रचने के लिये आज्ञा दी, तब वे साधु स्वभाव वाले प्रचेता अपने पिता की आज्ञा शीश पर धारण कर तप करने का निश्चय कर पश्विम के समीप एक बहुत विस्तीर्ण निर्मल जल से भरा महा सरोवर देख। वह सरोवर नील कमल, रक्त कमल, उत्पन्न, अम्मोज, कल्हार, इन्द्री, वर, इनकी खान था। और वहाँ हँस, सारस, चकवी, चकवा, जल मुर्ग, आदि पक्षी जहाँ तहाँ मनोहर शब्द कर रहे थे। वहाँ मृदंग और पजाव आदि वाजे बजने अनुशार दिव्य भेद सहित गान मन को हरने वाला था। उस गान को सुनकर वे दशों के प्रचेता राज पुत्र विस्मय को प्राप्त हो गये । उसी समय सरोवर में से अपने अनुचरों सहित अखिलेश्वर श्री महादेवजी निकले, इन दशों कुमारों को शिवजी का दर्शन हुआ। महादेवजी को प्रशन्न मुख देखकर बड़े आनन्द से राज कुमारों ने महादेव जी को प्रणाम किया तब भगवान शिवजी प्रचेताओं से बोले-हे राज कुमारों ! तुम लोग प्राचीन बर्हि के पुत्र हो तुम आराधना करना चाहते हो सो मैं जानता हूँ तुम्हारा कल्याण हो । इसलिये परम पवित्र मोक्ष दायक एवं सर्व विघ्न-नाशन स्तोत्र को वर्णन करता ह उसको तुम सुनो ।
(रूद्र-गीत स्त्रोत)
हे भगवन् ! आत्म वेताओं के घुर्यो की स्वस्ति के अर्थ तुम्हारा उत्कर्ष है। आपके उत्तम चरित्र आत्म-ज्ञानियों में श्रेष्ठ पुरुषों को स्वरूपानन्द देने वाले हैं, इसलिये तुमको भी वह आनन्द मिलना चाहिये। आप सर्वदा परमानन्द स्वरूप से स्थित हो, तथा सबकी आत्मा हो, आपको मेरा नमस्कार है। आप संकर्षण रूप से अहंकार के नियन्ता, सूक्ष्म अनन्त भगवान मुख की अग्नि से लोकों को दुग्ध करने वाले विश्व को बोध कराने वाले प्रद्युम्न स्वरूप वृद्धि के अधिष्ठता हो। हे ईश! आप सब कर्मों के फल देने वाले, सर्वज्ञ और मंत्र रूप हो एवं परम परमात्मा नित्य ज्ञान वाले प्रशंसा पुरुष सांख्य योग के ईश्वर, वैकुण्ठ के दाता हो। हे पूर्ण ब्रह्म! आपको मेरा प्रणाम है।
इस प्रकार के श्रीमद्भागवत में वर्णत श्लोक संख्या ३० से ७० तक रुद्रगीत नामक स्त्रोत को पूर्ण करते हुए शिवजी बोले कि राजपुत्रों विशुद्ध चित्त होकर इस रुद्र गीत स्त्रोत का पाठ करो और अपने धर्म का अनुष्ठान करते हुए सर्व व्यापी भगवान को अपना अन्तःकरण समर्पण करो तुम्हारा कल्याण होवेगा। हे राज पुत्रो-परम पुरुष परमात्मा का यह स्तोत्र जो मैंने गाया इसका जप करते हुए सावधान मन होकर महा तप करो अन्त में अपने मनोरथ की सिद्धि को प्राप्त हो जाओगे।
मैत्रेय जी ने कहा-हे विदुर ! इस प्रकार उपदेश करके भगवान शंकर तो अंतर्ध्यान हो गये और वे दशों प्रचेता भगवान शंकर के दिये ज्ञानोपदेश के अनुसार रूद्र स्तोत्र का विधिवत् पाठ करते हुये तप करने लगे । उन्होंने तपस्या करते हुये दश हजार वर्ष व्यतीत कर दिये वे जल में ही तप करते रहे । तब भगवान श्री नारायण जी ने प्रचेताओं को प्रसन्न होकर दर्शन दिया और वरदान देकर कृतार्थ किया । परंतु इतने पर भी वे प्रचेता लोग सांसरिक व्यवहार को झूठा जान कर भगवान नारायण का तप करने में ही लगे रहे।
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