श्रीमद भगवद पुराण * बाईसवाँ अध्याय *[स्कंध४] ( सनकादिक का पृथु को उपदेश )

 

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श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
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श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]

जय माता दी जी🙏

माये नी तेरा सुनेया ऐ दिल दरिया

माये नी तेरा सुनेया ऐ दिल दरिया

वास्ताई साडी, हो वास्ताई साडी 

वास्ताई साडी अर्जी ते गौर फरमा

माये नी तेरा सुनेया ऐ दिल दरिया.....2


साडा हाल लवेंगी जे पूछ माँ

तैनु फर्क पवेगा ना कुछ माँ

जिदा सारेया नु पाले दुख सारेया दे टाले

ओदा साडे दर्द मिटा

माये नी तेरा सुनेया ऐ दिल दरिया.....2


कोई ते चारा कर एस पासे आउण दा

ऐ कोई वेला नहियो मंदरा च सोउण दा

जींद साडी तू रुलाई जे तू सुनी ना दुहाई

तेरी ममता नु की हो गया

माये नी तेरा सुनेया ऐ दिल दरिया.....2


तेरी देर नाल पै गया हनेर माँ

सानु लया ऐ मुसीबतां ने घेर माँ

माये निर्दोष प्यार सानु देके ईक वार

बेड़ी सबदी तू डूबदी नु तार

माये नी तेरा सुनेया ऐ दिल दरिया.....2


माये नी तेरा सुनेया ऐ दिल दरिया

वास्ताई साडी अर्जी ते गौर फरमा

माये नी तेरा सुनेया ऐ दिल दरिया

जय जय माँ 👏

श्रीमद भगवद पुराण * बाईसवाँ अध्याय *[स्कंध४] ( सनकादिक का पृथु को उपदेश )  दोहा-सनकादिक उपदेश ज्यों, दौयों पपु को आय।   सो सब वर्णन है कियो, बाईसवें अध्याय ।  मैत्रेय जी बोले-हे विदुर जी! जब राजा पृथु ने यह सब कहा तो समाज के उपस्थित सभी लोग महाराजा पृथु की प्रशंसा कर ही रहे थे, कि तभी वहाँ सूर्य के समान तेज वाले चारों पाँच वर्ष की सदैव अवस्था रहने वाल मुनि सनक, सनंदन, सनातन, सनत्कुमार आये उनको देख सभी सभासदों सहित राजा आदर सत्कार करने के लिये अपने अपने स्थान से उठ खड़े हुये, और हाथ जोड़कर साष्टांग दंडवत् करने लगे । तत्पश्चात चारों मुनियों को राजा ने अर्ध्य आदि दे उत्तम आसन पर विठाय विधिवत पूजन किया। फिर उनके चरणों को धोकर चरणामृत को शिर पर धारण किया | फिर हाथ जोड़कर राजा पृथु इस प्रकार बोला-हे कल्याण मूर्ति ! आपके दर्शन प्राप्त होना तो योगी जनों को भी दुर्लभ है । जो कि आप सब लोकों में विचरण करते हैं, फिर भी आपको कोई भी देख नहीं सकता है। सो हे प्रभु ! मुझसे ऐसा कौन सा शुभ कर्म बन पड़ा है जो आपके दर्शन प्राप्त हुये, और वह भी घर बैठे हुये हैं। जिनके घर में कभी महात्मा लोग कभी नहीं जाते हैं और वे लोग बहुत धनवान हैं वे केवल सर्प के रहने के घर के समान हैं। और वे लोग धन्य हैं जो धनहीन हैं गृहस्थी हैं जिनके घर पर महात्मा जन दर्शन देते हैं। हे श्रेष्ठ ब्राह्मण जनो ! आप लोगों का मेरे घर आगमन बहुत अच्छा हुआ। जिन ब्रतों को मोक्ष हित बड़ी श्रद्धा से जो सिद्धिजन करते हैं, वह सब अपने पाँच वर्ष की आयु में ही प्राप्त किया है। यद्यपि आप देखने में बालक हैं, परन्तु आप बड़ों के समान बड़े हैं जो कि बड़ों के समान सभी बतों के धारण करने वाले हैं। हे प्रभो ! मैं जानना चाहता हूँ कि संसार में किस प्रकार बिना परिश्रम के किस साधन से कल्याण होता है। इस प्रकार सारगर्भित मधुरबचन राजा पृथु के सुनकर, वे पाँच वर्ष की अवस्था वाले सनकादिक ऋषि मुस्कराते हुये इस प्रकार बोले-हे राजा पृथु ! तुमने संपूर्ण प्राणियों के हित के लिये यह बहुत अच्छा प्रश्न किया है । हे राजन् । जो प्रीति आपको हरि चरणों में है वह प्रीति अत्यन्त दुर्लभ है। क्योंकि यह ईश्वर में निष्ठवान होने से वह अन्तःकरण के विषय वासना रूपी मल को दूर कर देती है। हे राजन् ! शास्त्रों के विचारों के अनुसार मनुष्य के कल्याण के लिये आत्मा से भिन्न पदार्थ में वैराग्य का होना तथा निर्गुण ब्रह्म में पूर्ण प्रीति होना ही सार सिद्धान्त रूप साधन निश्चय किया गया है। भगवान के प्रति उस प्रीति के होने का साधन इस प्रकार कहा है। श्रद्धा पूर्वक भगवद्धर्म का आचरण करना, आत्म ज्ञानी होना, आत्म योग में निष्ठा रखना, योगेश्वरों की उपासना करना, तथा नित्य प्रति भगवान की आराधना करना, तथा उनकी पवित्र कथा श्रवण करना, इन सब साधनों को दृढ़ता पूर्वक करने से हरि चरणों में भक्ति रूपी प्रीति और भी अधिक दृढ़ हो जाती है । ऐसे साधन करने वाले पुरुष को धन तथा इन्द्रियों के विषयों के सुख में आसक्त रहने वाले पुरुषों के साथ नहीं बैठना चाहिये। विषय कामनाओं का संगृह नहीं करना चाहिये, हिंसा कर्म न करे, मन में संतोष रखते हुये एकान्त स्थान में निवास करना चाहिये। परम हंस वृत्ति को धारण कर अपने हित के विचार से ईश्वर के चरित्र रूप उत्तम अमृत का पान करे। काम रहित हो यम नियम धारणा कर दूसरों की निन्दा न करे तथा अपने शरीर को सुख देने के लिये कोई यत्न नहीं करे, तथा सुख दुःख को सदैव एक समान समझे, इस प्रकार ब्रह्मा में जब अत्यन्त निष्ठा वाली प्रीति हो जाती है तब ज्ञान और वैराग्य के प्रभाव से विज्ञान की ज्योति बढ़ती है, जिसके बढ़ने से आचार वान् होकर ज्ञान वैराग के वेग से वासना रहित हो लिंग देह को इस प्रकार भस्म कर देता है कि, जिस प्रकार काठ को रगड़ने से उत्पन्न हुई अग्नि काठ की ही भस्म कर देती है। इससे फिर कभी अहंकार उत्पन्न नहीं होता है। हे राजन् ! जब विचार शक्ति नष्ट हो जाती है तो स्मरण शक्ति का भी नाश हो जाता है। जब स्मरण शक्ति का नाश हो जाता है तो उसके कारण ज्ञान भी नष्ट हो जाता है। पेंडित जनों ने इस ज्ञान के नाश होने को ही आत्मा का नाश होना कहा है अतः इस लोक में मनुष्य का इस नाश से अधिक अन्य कोई नाश नहीं है। धन, तथा इंद्रियों सुख वासना के लिये निरंतर ध्यान करना अथवा इन कामनाओं से विचार करना पुरुष के सब पुरुषार्थों का नाश करता है । इन दोनों के नष्ट हो जाने से मनुष्य गूढ़ भाव को प्राप्त हो जाता है। अतः जो इस नरक से पार होना चाहता हो उसे दुष्ट संग धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ये सब अत्यंत हानि कारक हैं । अतः सब विषय वासना भोगों को  त्याग कर भगवान की भक्ति में आसक्त हो दृढ़ रहे । तो मनुष्य अवश्य इस संसार रूप सागर से पार हो जाता है। इस प्रकार सनकादिक मुनियों से वचन सुनकर राजा पृथु ने हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा-है मुनियों ! आप लोग दयालु और धर्मात्मा हो इसीलिये आपने मुझ दीन को यह आत्म ज्ञान सुनाया है| हे नाथ ! अब आपको मैं गुरु दक्षिणा में क्या दू । हे ब्रह्मन् ! मैंने घर, राज्य, पुत्र, स्त्री, सहित अपने प्राण साधुओं को समर्पण कर दिया है। अत: हे प्रभु ! हमारा कुछ भी नहीं है सो मैं आपको क्या अर्पण करू। आपने मुझको जो आत्म ज्ञान का उपदेश किया है, उसमें मैं  आपको विनय करने तथा जलपात्र देने के अतिरिक्त और क्या दे सकता हूँ। हे दयालु यदि आपको कुछ देना भी विचार तो यह सब मेरा उप हास्य है अतः आप अपने द्वारा मेरे ऊपर किये हुये उपकार से ही प्रसन्न हों तो अति कृपा होगी। तब इस प्रकार पृथु द्वारा उन सनकादिकों का सत्कार आदि करने से वे अति प्रसन्न हो आकाश मार्ग से ब्रह्म लोक को पधारे । तब इस प्रकार ज्ञान प्राप्त कर अपने आप को आत्म ज्ञान की शिक्षा से आध्यात्मवाद में स्थिति हो, समय के अनुसार देश, बल, धन, के अनुसार सब कर्मों को वृह्म समर्पण करने लगा । सब कर्मों के फल को ब्रह्म में समर्पण कर्म की आसक्ति छोड़ सावधान हो माया से पृथक रहकर कर्मों को साक्षी मानकर महाराज पृथु राज्य करता रहा । वह अखंड राज्यं एवं ऐश्वर्य से युक्त हो घर में रहने पर भी इन्द्रियों के विषय में भी आसक्त नहीं हुआ । इस प्रकार आध्यात्म से योग करके कर्मों के करते हुये पृथु ने अपनी अर्चि नामा भार्या में अपने समान पाँच पुत्र उत्पन्न किये । जिनके नाम, विजिताश्व, धूमूकेश, हर्यक्ष, द्वविण, और बक, थे । महाराज पृथु सब लोक पालों के गुणों को धारण कर समयानुसार जगत की रक्षा मन वचन कर्म से करके प्रजा को प्रसन्न रखते थे । वे अपने समय में प्रजा से कर रुप धन लेते थे और प्रजा की आवश्यकता के समय में प्रजा को ही दे देते थे। राजापृथु, तेज में अग्नि के समान, महेन्द्र तुल्य दुर्जय, पृथ्वी समान क्षमावान, स्वर्ग के समान प्रजाकी कामनाओं को पूर्ण करने वाले मेघ तुल्य सब कामनायें वर्षाने वाले, समुद्र के समान शिक्षक, सुमेरु पर्वत के समान धैर्यवान, धर्म राज के समान न्यायवाम, कुवेर के समान धनवान, वरुण के समान गुप्त पदार्थ रखने वाले, पवन के समान बल विक्रम वाले, शत्रु को शिव के समान, हिम्मत में सिंह के समान, स्नेह में मनु के समान, प्रभुता में भगवान के समान ब्रह्मा के समान, वृहस्पति के समान ब्रह्म ज्ञानी, साक्षात विष्णु के समान जितेन्द्रिय तथा परोपकारी थे । जिस प्रकार भगवान राम चन्द्र जी ने संसार में कीर्ति प्राप्त की उसी प्रकार महाराजा पृथु भी अमर कीर्ति प्राप्त की ।

श्रीमद भागवद पुराण * बाईसवाँ अध्याय *[स्कंध४]

( सनकादिक का पृथु को उपदेश )

दोहा-सनश्रीमदकादिक उपदेश ज्यों, दौयों पृथु आय।

सो सब वर्णन है कियो, बाईसवें अध्याय ।


मैत्रेय जी बोले-हे विदुर जी! जब राजा पृथु ने यह सब कहा तो समाज के उपस्थित सभी लोग महाराजा पृथु की प्रशंसा कर ही रहे थे, कि तभी वहाँ सूर्य के समान तेज वाले चारों पाँच वर्ष की सदैव अवस्था रहने वाल मुनि सनक, सनंदन, सनातन, सनत्कुमार आये उनको देख सभी सभासदों सहित राजा आदर सत्कार करने के लिये अपने अपने स्थान से उठ खड़े हुये, और हाथ जोड़कर साष्टांग दंडवत् करने लगे । तत्पश्चात चारों मुनियों को राजा ने अर्ध्य आदि दे उत्तम आसन पर विठाय विधिवत पूजन किया। फिर उनके चरणों को धोकर चरणामृत को शिर पर धारण किया | फिर हाथ जोड़कर राजा पृथु इस प्रकार बोला-हे कल्याण मूर्ति ! आपके दर्शन प्राप्त होना तो योगी जनों को भी दुर्लभ है । जो कि आप सब लोकों में विचरण करते हैं, फिर भी आपको कोई भी देख नहीं सकता है। सो हे प्रभु ! मुझसे ऐसा कौन सा शुभ कर्म बन पड़ा है जो आपके दर्शन प्राप्त हुये, और वह भी घर बैठे हुये हैं। जिनके घर में कभी महात्मा लोग कभी नहीं जाते हैं और वे लोग बहुत धनवान हैं वे केवल सर्प के रहने के घर के समान हैं। और वे लोग धन्य हैं जो धनहीन हैं गृहस्थी हैं जिनके घर पर महात्मा जन दर्शन देते हैं। हे श्रेष्ठ ब्राह्मण जनो ! आप लोगों का मेरे घर आगमन बहुत अच्छा हुआ। जिन ब्रतों को मोक्ष हित बड़ी श्रद्धा से जो सिद्धिजन करते हैं, वह सब अपने पाँच वर्ष की आयु में ही प्राप्त किया है। यद्यपि आप देखने में बालक हैं, परन्तु आप बड़ों के समान बड़े हैं जो कि बड़ों के समान सभी बतों के धारण करने वाले हैं। हे प्रभो ! मैं जानना चाहता हूँ कि संसार में किस प्रकार बिना परिश्रम के किस साधन से कल्याण होता है। इस प्रकार सारगर्भित मधुरबचन राजा पृथु के सुनकर, वे पाँच वर्ष की अवस्था वाले सनकादिक ऋषि मुस्कराते हुये इस प्रकार बोले-हे राजा पृथु ! तुमने संपूर्ण प्राणियों के हित के लिये यह बहुत अच्छा प्रश्न किया है । हे राजन् । जो प्रीति आपको हरि चरणों में है वह प्रीति अत्यन्त दुर्लभ है। क्योंकि यह ईश्वर में निष्ठवान होने से वह अन्तःकरण के विषय वासना रूपी मल को दूर कर देती है। हे राजन् ! शास्त्रों के विचारों के अनुसार मनुष्य के कल्याण के लिये आत्मा से भिन्न पदार्थ में वैराग्य का होना तथा निर्गुण ब्रह्म में पूर्ण प्रीति होना ही सार सिद्धान्त रूप साधन निश्चय किया गया है। भगवान के प्रति उस प्रीति के होने का साधन इस प्रकार कहा है। श्रद्धा पूर्वक भगवद्धर्म का आचरण करना, आत्म ज्ञानी होना, आत्म योग में निष्ठा रखना, योगेश्वरों की उपासना करना, तथा नित्य प्रति भगवान की आराधना करना, तथा उनकी पवित्र कथा श्रवण करना, इन सब साधनों को दृढ़ता पूर्वक करने से हरि चरणों में भक्ति रूपी प्रीति और भी अधिक दृढ़ हो जाती है । ऐसे साधन करने वाले पुरुष को धन तथा इन्द्रियों के विषयों के सुख में आसक्त रहने वाले पुरुषों के साथ नहीं बैठना चाहिये। विषय कामनाओं का संगृह नहीं करना चाहिये, हिंसा कर्म न करे, मन में संतोष रखते हुये एकान्त स्थान में निवास करना चाहिये। परम हंस वृत्ति को धारण कर अपने हित के विचार से ईश्वर के चरित्र रूप उत्तम अमृत का पान करे। काम रहित हो यम नियम धारणा कर दूसरों की निन्दा न करे तथा अपने शरीर को सुख देने के लिये कोई यत्न नहीं करे, तथा सुख दुःख को सदैव एक समान समझे, इस प्रकार ब्रह्मा में जब अत्यन्त निष्ठा वाली प्रीति हो जाती है तब ज्ञान और वैराग्य के प्रभाव से विज्ञान की ज्योति बढ़ती है, जिसके बढ़ने से आचार वान् होकर ज्ञान वैराग के वेग से वासना रहित हो लिंग देह को इस प्रकार भस्म कर देता है कि, जिस प्रकार काठ को रगड़ने से उत्पन्न हुई अग्नि काठ की ही भस्म कर देती है। इससे फिर कभी अहंकार उत्पन्न नहीं होता है। हे राजन् ! जब विचार शक्ति नष्ट हो जाती है तो स्मरण शक्ति का भी नाश हो जाता है। जब स्मरण शक्ति का नाश हो जाता है तो उसके कारण ज्ञान भी नष्ट हो जाता है। पेंडित जनों ने इस ज्ञान के नाश होने को ही आत्मा का नाश होना कहा है अतः इस लोक में मनुष्य का इस नाश से अधिक अन्य कोई नाश नहीं है। धन, तथा इंद्रियों सुख वासना के लिये निरंतर ध्यान करना अथवा इन कामनाओं से विचार करना पुरुष के सब पुरुषार्थों का नाश करता है । इन दोनों के नष्ट हो जाने से मनुष्य गूढ़ भाव को प्राप्त हो जाता है। अतः जो इस नरक से पार होना चाहता हो उसे दुष्ट संग धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ये सब अत्यंत हानि कारक हैं । अतः सब विषय वासना भोगों को त्याग कर भगवान की भक्ति में आसक्त हो दृढ़ रहे । तो मनुष्य अवश्य इस संसार रूप सागर से पार हो जाता है। इस प्रकार सनकादिक मुनियों से वचन सुनकर राजा पृथु ने हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा-है मुनियों ! आप लोग दयालु और धर्मात्मा हो इसीलिये आपने मुझ दीन को यह आत्म ज्ञान सुनाया है| हे नाथ ! अब आपको मैं गुरु दक्षिणा में क्या दू । हे ब्रह्मन् ! मैंने घर, राज्य, पुत्र, स्त्री, सहित अपने प्राण साधुओं को समर्पण कर दिया है। अत: हे प्रभु ! हमारा कुछ भी नहीं है सो मैं आपको क्या अर्पण करू। आपने मुझको जो आत्म ज्ञान का उपदेश किया है, उसमें मैं आपको विनय करने तथा जलपात्र देने के अतिरिक्त और क्या दे सकता हूँ। हे दयालु यदि आपको कुछ देना भी विचार तो यह सब मेरा उप हास्य है अतः आप अपने द्वारा मेरे ऊपर किये हुये उपकार से ही प्रसन्न हों तो अति कृपा होगी। तब इस प्रकार पृथु द्वारा उन सनकादिकों का सत्कार आदि करने से वे अति प्रसन्न हो आकाश मार्ग से ब्रह्म लोक को पधारे । तब इस प्रकार ज्ञान प्राप्त कर अपने आप को आत्म ज्ञान की शिक्षा से आध्यात्मवाद में स्थिति हो, समय के अनुसार देश, बल, धन, के अनुसार सब कर्मों को वृह्म समर्पण करने लगा । सब कर्मों के फल को ब्रह्म में समर्पण कर्म की आसक्ति छोड़ सावधान हो माया से पृथक रहकर कर्मों को साक्षी मानकर महाराज पृथु राज्य करता रहा । वह अखंड राज्यं एवं ऐश्वर्य से युक्त हो घर में रहने पर भी इन्द्रियों के विषय में भी आसक्त नहीं हुआ । इस प्रकार आध्यात्म से योग करके कर्मों के करते हुये पृथु ने अपनी अर्चि नामा भार्या में अपने समान पाँच पुत्र उत्पन्न किये । जिनके नाम, विजिताश्व, धूमूकेश, हर्यक्ष, द्वविण, और बक, थे । महाराज पृथु सब लोक पालों के गुणों को धारण कर समयानुसार जगत की रक्षा मन वचन कर्म से करके प्रजा को प्रसन्न रखते थे । वे अपने समय में प्रजा से कर रुप धन लेते थे और प्रजा की आवश्यकता के समय में प्रजा को ही दे देते थे। राजापृथु, तेज में अग्नि के समान, महेन्द्र तुल्य दुर्जय, पृथ्वी समान क्षमावान, स्वर्ग के समान प्रजाकी कामनाओं को पूर्ण करने वाले मेघ तुल्य सब कामनायें वर्षाने वाले, समुद्र के समान शिक्षक, सुमेरु पर्वत के समान धैर्यवान, धर्म राज के समान न्यायवाम, कुवेर के समान धनवान, वरुण के समान गुप्त पदार्थ रखने वाले, पवन के समान बल विक्रम वाले, शत्रु को शिव के समान, हिम्मत में सिंह के समान, स्नेह में मनु के समान, प्रभुता में भगवान के समान ब्रह्मा के समान, वृहस्पति के समान ब्रह्म ज्ञानी, साक्षात विष्णु के समान जितेन्द्रिय तथा परोपकारी थे । जिस प्रकार भगवान राम चन्द्र जी ने संसार में कीर्ति प्राप्त की उसी प्रकार महाराजा पृथु भी अमर कीर्ति प्राप्त की ।

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