जालियांबाला बाग़ काण्ड और मुसलमान

जालियांबाला बाग़ काण्ड और मुसलमान   **************************************   कुछ दिन पहले मुसलमानो ने एक फोटो कमेंट के साथ एक स्टोरी वायरल की थी कि- इण्डिया गेट पर मुस्लिम स्वाधीनता सेनानियों के नाम लिखे हैं. अनपढ़ हो या पढ़ालिखा हर मुस्लमान बिना सच जाने उसे आगे बढ़ा रहा था लेकिन जब उनको उसका सच बताया गया तो मुँह छुपाते फिर रहे थे. ऐसे ही अब वो जलियांवाला बाग काण्ड को लेकर एक फर्जी स्टोरी ले आये हैं      उनका कहना है कि - जलियांवाला बाग काण्ड के वक्त ख़ान अब्दुल गफ्फार ख़ान ने कहा था कि - "अगर तुम  एक भी मुस्लिम की पीठ पर गोली दिखा दोगे तो मैं आजादी की जंग से दूर हो जाऊंगा.  2 दिन तक पोस्टमार्टम चला 76 मुस्लिमों की लाशें मिली और एक भी गोली पीठ पर नहीं लगी थी. अंग्रेज़ संघियों की तरह कमीने नही थे इसलिए  पोस्टमार्टम रिपोर्ट ईमानदारी से बनाई.  उनकी यह कहानी भी इण्डिया गेट वाली कहानी की तरह झूठी है. 1857 की क्रान्ति के समय ही मुसलमानो को समझ आ गया था कि अब अगर देश आजाद हुआ तो उस पर कब्ज़ा हिन्दुओं का हो जाएगा. इसलिए आगाखान और सर सैय्यद जैसे मुस्लिम नेताओं ने मुसलमानो को समझाया कि - अंग्रेजों से लड़ने के बजाये उनकी नौकरी करने में ज्यादा फायदा है.  और इसी बजह से 1858 से लेकर 1947 तक मुसलमानो ने अंग्रेजों के खिलाफ कोई क्रान्ति नहीं की. 1920 -21 में मुसलमानो ने अंगेजों के खिलाफ एक आंदोलन खिलाफत अवश्य किया था लेकिन इसका उद्देश्य भी आजादी की लड़ाई नहीं बल्कि तुर्की के खलीफा का समर्थन करना था. जालियांवाला बाग़ काण्ड के समय तो खिलाफत आंदोलन भी शुरू नहीं हुआ था.  उन्होंने जो खिलाफत आन्दोलन भी चलाया था वो आजादी के लिए नहीं बल्कि तुर्की के खलीफा की बहाली के लिए चलाया था और उनका यह आन्दोलन भी बुरी तरह असफल हुआ था. अपने इस आंदोलन के असफल हो जाने के बाद भी मुसलमानो ने अंग्रेजो का कुछ नहीं बिगाड़ा बल्कि मुल्तान, मालावार, कोहाट आदि में  हिन्दुओ और सिक्खों के खिलाफ दंगा कर दिया था  अब बात करते हैं जलियांवाला बाग़ काण्ड की. जलियाँबाला बाग़ की उस सभा में केवल वे लोग आये हुए थे जो बैसाखी के अवसर पर स्वर्णमंदिर में माथा टेकने आये थे.  क्या मुसलमान भी गुरुद्वारे में माथा टेकने जाते हैं ? जालियांवाला बाग़ में कोई आमने की लड़ाई नहीं हुई थी. वहां तो आम जनता पर पुलिस ने  अंधाधुंध गोलियां चलाई थी.  अब मेरा सवाल उनसे है जिन्होंने यह फर्जी स्टोरी बनाई है. क्या मारे गए लोगों के नाम की कोई लिस्ट जारी की गई थी, जिससे उनके नाम और धर्म का पता चलता हो ? क्या ऐसी कोई लिस्ट आई थी जिससे यह पता चलता हो कि किस धर्म वाले को कहाँ गोली लगी थी ? क्या खान अब्दुल गफ्फार खान के ऐसे किसी बयान और पोस्टमार्टम रिपोर्ट का प्रमाण है ?  आपके पास ऐसा कौन सा दस्ताबेज है जिससे पता चलता हो कि - मारे गए मुसलमानो के सीने पर गोली लगी थी उस सभा में उस सभा में आम जनता थी जो कुछ नेताओं के भाषण सुनने आई थी किसी पुलिस या सेना का आमने सामने सीधा मुकाबला करने वाले लोग नहीं . जब अंधाधुंध गोली चली वे आम लोग उससे बचने के लिए भागे ही थे.  जाहिर सी बात है जब वे भागे होंगे उनकी पीठ ही पुलिस की तरफ रही होगी. सैकड़ों लोग तो कुएं में कूद गए थे.  क्या यह किसी अखबार में भी छपा था ?अब थोड़ी सी बात खान अब्दुल गफ्फार खान की भी कर लेते हैं. जिस बर्ष अमृतसर में जलियांवाला बाग़ काण्ड हुआ था उस बर्ष (1919 में)  पेशावर में फौजी कानून (मार्शल ला) लागू किया गया.  उस समय  खान अब्दुल गफ्फार खान ने अंग्रेजों के सामने मुसलमनो की तरफ से एक शांति  प्रस्ताव प्रस्तुत किया मगर अंग्रेजों ने इसे राजद्रोह मानकर जेल में बंद कर दिया. जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने "खुदाई खिदमतगार" नाम का एक सामाजिक संगठन बनाया जो कुछ समय बाद राजनैतिक संगठन में बदल गया. उन्होंने आजादी की लड़ाई में नहीं बल्कि खिलाफत आन्दोलन में हिस्सा लिया.



जालियांबाला बाग़ काण्ड और मुसलमान  

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कुछ दिन पहले मुसलमानो ने एक फोटो कमेंट के साथ एक स्टोरी वायरल की थी कि- इण्डिया गेट पर मुस्लिम स्वाधीनता सेनानियों के नाम लिखे हैं. अनपढ़ हो या पढ़ालिखा हर मुस्लमान बिना सच जाने उसे आगे बढ़ा रहा था लेकिन जब उनको उसका सच बताया गया तो मुँह छुपाते फिर रहे थे. ऐसे ही अब वो जलियांवाला बाग काण्ड को लेकर एक फर्जी स्टोरी ले आये हैं  
  
उनका कहना है कि - जलियांवाला बाग काण्ड के वक्त ख़ान अब्दुल गफ्फार ख़ान ने कहा था कि - "अगर तुम  एक भी मुस्लिम की पीठ पर गोली दिखा दोगे तो मैं आजादी की जंग से दूर हो जाऊंगा.  2 दिन तक पोस्टमार्टम चला 76 मुस्लिमों की लाशें मिली और एक भी गोली पीठ पर नहीं लगी थी. अंग्रेज़ संघियों की तरह कमीने नही थे इसलिए  पोस्टमार्टम रिपोर्ट ईमानदारी से बनाई.

उनकी यह कहानी भी इण्डिया गेट वाली कहानी की तरह झूठी है. 1857 की क्रान्ति के समय ही मुसलमानो को समझ आ गया था कि अब अगर देश आजाद हुआ तो उस पर कब्ज़ा हिन्दुओं का हो जाएगा. इसलिए आगाखान और सर सैय्यद जैसे मुस्लिम नेताओं ने मुसलमानो को समझाया कि - अंग्रेजों से लड़ने के बजाये उनकी नौकरी करने में ज्यादा फायदा है.

और इसी बजह से 1858 से लेकर 1947 तक मुसलमानो ने अंग्रेजों के खिलाफ कोई क्रान्ति नहीं की. 1920 -21 में मुसलमानो ने अंगेजों के खिलाफ एक आंदोलन खिलाफत अवश्य किया था लेकिन इसका उद्देश्य भी आजादी की लड़ाई नहीं बल्कि तुर्की के खलीफा का समर्थन करना था. जालियांवाला बाग़ काण्ड के समय तो खिलाफत आंदोलन भी शुरू नहीं हुआ था.

उन्होंने जो खिलाफत आन्दोलन भी चलाया था वो आजादी के लिए नहीं बल्कि तुर्की के खलीफा की बहाली के लिए चलाया था और उनका यह आन्दोलन भी बुरी तरह असफल हुआ था. अपने इस आंदोलन के असफल हो जाने के बाद भी मुसलमानो ने अंग्रेजो का कुछ नहीं बिगाड़ा बल्कि मुल्तान, मालावार, कोहाट आदि में  हिन्दुओ और सिक्खों के खिलाफ दंगा कर दिया था

अब बात करते हैं जलियांवाला बाग़ काण्ड की. जलियाँबाला बाग़ की उस सभा में केवल वे लोग आये हुए थे जो बैसाखी के अवसर पर स्वर्णमंदिर में माथा टेकने आये थे.  क्या मुसलमान भी गुरुद्वारे में माथा टेकने जाते हैं ? जालियांवाला बाग़ में कोई आमने की लड़ाई नहीं हुई थी. वहां तो आम जनता पर पुलिस ने  अंधाधुंध गोलियां चलाई थी.

अब मेरा सवाल उनसे है जिन्होंने यह फर्जी स्टोरी बनाई है. क्या मारे गए लोगों के नाम की कोई लिस्ट जारी की गई थी, जिससे उनके नाम और धर्म का पता चलता हो ? क्या ऐसी कोई लिस्ट आई थी जिससे यह पता चलता हो कि किस धर्म वाले को कहाँ गोली लगी थी ? क्या खान अब्दुल गफ्फार खान के ऐसे किसी बयान और पोस्टमार्टम रिपोर्ट का प्रमाण है ?

आपके पास ऐसा कौन सा दस्ताबेज है जिससे पता चलता हो कि - मारे गए मुसलमानो के सीने पर गोली लगी थी उस सभा में उस सभा में आम जनता थी जो कुछ नेताओं के भाषण सुनने आई थी किसी पुलिस या सेना का आमने सामने सीधा मुकाबला करने वाले लोग नहीं . जब अंधाधुंध गोली चली वे आम लोग उससे बचने के लिए भागे ही थे.

जाहिर सी बात है जब वे भागे होंगे उनकी पीठ ही पुलिस की तरफ रही होगी. सैकड़ों लोग तो कुएं में कूद गए थे.  क्या यह किसी अखबार में भी छपा था ?अब थोड़ी सी बात खान अब्दुल गफ्फार खान की भी कर लेते हैं. जिस बर्ष अमृतसर में जलियांवाला बाग़ काण्ड हुआ था उस बर्ष (1919 में)  पेशावर में फौजी कानून (मार्शल ला) लागू किया गया.

उस समय  खान अब्दुल गफ्फार खान ने अंग्रेजों के सामने मुसलमनो की तरफ से एक शांति  प्रस्ताव प्रस्तुत किया मगर अंग्रेजों ने इसे राजद्रोह मानकर जेल में बंद कर दिया. जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने "खुदाई खिदमतगार" नाम का एक सामाजिक संगठन बनाया जो कुछ समय बाद राजनैतिक संगठन में बदल गया. उन्होंने आजादी की लड़ाई में नहीं बल्कि खिलाफत आन्दोलन में हिस्सा लिया.




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