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Showing posts from July, 2020

श्री हरि नारायण का अस्तित्व।। देह का निरमाण।।

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श्रीमद भागवद  पुराण * दसवां अध्याय* [स्कंध २] (श्री शुकदेवजी द्वारा भागवतारम्भ) दोहा-किये परीक्षत प्रश्न जो उत्तर शुक दिये ताय । सो दसवें अध्याय में बरयों गाथा गाय ।। ।।स्कंध २ का आखिरी अध्याय।। हरि देह निर्माण श्री शुकदेवजी बोले-हे परीक्षत! इस महापुराण श्रीद्भागवत में दश लक्षण हैं सो इस प्रकार कहे हैं-सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, अति, मन्वन्तर, ईशानु कथा, निरोध, मुक्ति, और आश्रय। अब सर्गादिकों के प्रत्येक का लक्षण कहते हैं-हे राजन् ! पृथ्वी, जल, वायु आकाश में पंच महाभूत और शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये पाँच पंचन्मात्रा तथा नाक, कान, जिभ्या, त्वचा, नेत्र यह पांच ज्ञानेन्द्रिय और चरण, हाथ, वाणी, लिङ्ग, गुदा ये पाँच कर्मेन्द्रिय तथा अहंकार महा तत्व इन सब गुणों के परिणाम से अर्थात विराट भगवान द्वारा (से) उत्पन्न जो मूल सृष्टि है उसे स्वर्ग कहते हैं। और जो स्थावर जंगम रूप बृह्माजी से हुई उसे विसर्ग कहते हैं। ईश्वर द्वारा रचित मर्यादाओं का पालन करना स्थान कहलाता है। अपने भक्त पर की जाने वाली अनुग्रह को पोष्णा कहते हैं। मन्वन्तर श्रेष्ठ धर्म को कहते है, अति कर्म वासना को कहते हैं, ईशानु क...

किन चार श्लोकों द्वारा हुई सम्पूर्ण भागवद पुराण की रचना

श्रीमद्भगवद पुराण* नवा अध्याय*[सकन्ध २] दोहा: इस नौवें अध्याय में, कहें शुकदेव सुनाय । विष्णु चरित्र जिमि रूप से हरिने किये बनाय ।। ब्रह्मा विष्णु सृष्टि रचना हेतू संवाद अनेक रूप धारी ईश्वर माया द्वारा अनेक रूप वाला प्रतीत होता हैं। मनुष्य माया के भवर में फंस कर रमण करता हुआ कहता है कि यह मेरा है वह मेरा है यह मैं हूँ वह वह है तो केवल ईश्वर में ही रमण करता है तब वह मोह माया लोभ ममता को त्याग कर देता है अहंकार दूर हो जाता है तो केवल ईश्वर में ही पूर्णरूप से स्थित रहता है यही मोक्ष है। श्रीशुकदेवजी बोले-हे परीक्षत । जब आदि शक्ति निरंकार परमेश्वर को नाभि से कमल का फूल निकला तो उस में वृह्माजी उत्पन्न हुये। उस समय वृह्माजी ने यह जानना चाहा कि वह किस स्थान से उत्पन्न हुये हैं। जब वह अनेक प्रयत्न करने पर भी यह न जान सके कि वह कहां और कैसे उत्पन्न हुये हैं तो मन मारकर उसी कमल के फूल पर बैठे रहे। तब निरंकार ईश्वर द्वारा वृम्हाजी को चेतना प्राप्त हुई जिसमें तन्हें उस निरंकार भगवान का यह आदेश मिला कि वह सृष्टि की रचना करें। तब जगत के गुरु वृम्हा ने जगत सृष्टि रचने का विचार करने लगे। परन्तु वहअन...

श्रीमद भागवद पुराण महात्मय।। राजा परीक्षित-शुकदेव संवाद।।

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परीक्षित के किन वाक्यों से प्रेरित हो कर श्रीशुकदेव जी ने श्रीमदभगवद पुराण सुनाया।। * आठवाँ अध्याय* स्कंध २ (भगवान की लीला अवतार वर्णन') दो० प्रश्न परोक्षत ने किये, विष्णु चरित्रहित जोय । या अष्टम अध्याय में, भष्यो शुक मुनि सोय ॥ Parikshit shukdev samwad इस वृतान्त को श्रवण कर राजा परिक्षत ने कहा हे वृह्मन् श्री शुकदेव जी ! हे महा मुनि ! भगवान के अवतारों की कथा सुन कर मेरा मन बहुत प्रसन्न हुआ है। आपके द्वारा वर्णित कथा में वृह्मा जी के प्रेरे हुये, नारद जी ने जिस जिसको जिस प्रकार उपदेश किया सो कहिये । हे वृम्हन् ! निर्गुण भगवान का पंच महाभूत देह धारण करना अपनी इच्छा से है? अथवा कर्म आदि के कारण देह धारण करते हैं! इसमें आप जो भी यथार्थ जानते हैं सो मेरे सम्मुख प्रकट करिये । वृह्मा जी जिस परमात्मा को नाभी से उत्पन्न हुये हैं उस विराट भगवान का अवयव और स्वरूप और उस लौकिक पुरुष का अवयव स्वरूप समान ही है तो लौकिक पुरुष में, बिराट पुरुष को जो स्थिति कही गई है वह हमारी बुद्धि मैं नहीं आई है सो आप वह सब समझाकर कहो कि जिस प्रकार विराट पुरुष के नाभी से वृह्मा हुआ जिसने परमात्मा के स्वरूप को द...

बृह्मा द्वारा कर्मों के अनुसार भगवान नारायण के २४ अवतारों का वर्णन।।

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श्रीमद्भागवद्पूराण [स्कन्ध २] सातवां अध्याय* (भगवान का लीला अवतार वर्णन) दो-धारण होय अवतार जो जिन कर्म रूप आधार । सो सप्तम अध्याय में वरणू भेद विचार ।। वृह्मा जी बोले-हे नारद ! अब प्रथम हम तुम्हारे सामने बाराह अवतार का सारांश में वर्णन करते हैं। भगवान की आज्ञानुसार जब मैंने पृथ्वी का निर्माण किया तो वह कमल के पत्ते पर किया था जिसे हिरणाक्ष्य नाम का राक्षस उसे पाताल में उठा कर ले गया। तब मैंने नारायण जी से प्रार्थना की कि पृथ्वी को हिरणाक्ष्य ले गया है अब मनुष्य आदि प्राणी कहाँ रहेंगे।। तो भगवान श्री नारायण ने पृथ्वी का उद्धार करने के लिये बाराह अवतार धारण कर अपनी दाड़ों से हिरणाक्ष्य का पेट फाड़ कर मार डाला और अपनी दाड़ों पर पृथ्वी को रख कर लाये तब यथा स्थान पर रखा था । अब यज्ञावतार कहते है कि रुचिनाम प्रजापति की अकुती नाम स्त्री से सुरज्ञ नाम पुत्र हुआ जिसने इन्द्र होकर त्रिलोकी का संकट दूर किया तब स्वायम्भुव मनु ने स्वयज्ञ का नाम हरि रखा वही यज्ञ भगवान नाम से अवतार हुये। अब कपिल अवतार कहते हैं-कदम नाम ऋषि को स्त्री देवहूती से नौ कन्या तथा एक पुत्र हुआ पुत्र का नाम कपिल हुआ जिसने अपनी...

विभिन्न अंग से विभिन्न जीव व लोकों की उत्पति।।

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श्रीमद भागवदपुराण छठवा अध्याय स्कंध २ (पुरुष की विभूति वर्णन) प्रभू श्री हरि का विराट रूप।। दोहा-जिमि विराट हरि रूप को, अगम रूप कहलात।। सो छटव अध्याय में दीये भेद बतालाय ।। Brahma dwara virat roop ka varnan ब्रह्माजी बोले-हे पुत्र! भगवान के मुख से बाणी और अग्नि की उत्पत्ति है। विराट भगवान के सातों धातु के गायत्रीादि छन्दों का उत्पत्ति स्थान है। देवताओं का अन्न हव्य और पितरों का अन्न कव्य है और इनका उत्पत्ति स्थान मनुष्यों का अन्न भगवान की जिभ्या है यही सम्पूर्ण रसों का कारण है। समस्त पवन और प्राण का स्थान ईश्वर की नासिका है, तथा अश्वनी कुमार, औषधि वह मोह प्रमोद भी यही उत्पत्ति का स्थान भगवान की नासिका ही है। नेत्र रूप और तेज के उत्पत्ति स्थान हैं वर्ग और सूर्य का स्थान परमेश्वर के नेत्र गोलक हैं भगवान के कान तीर्थ और दिशा का स्थान है, कर्ण गोलक को आकाश और शब्द का उत्पत्ति स्थान जानना चाहिये । विराट भगवान का शरीर वस्तु के साराशों का उत्पत्ति स्थान है। रोम वृक्ष है जिनसे यज्ञ सिद्ध होता है। केश मेघ, दाड़ी बिजली, हाथ पांव नख क्रमशः पत्थर व लोहे के विराट भगवान के उत्पत्ति स्थान हैं। भगवान ...

विष्णु में ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है।।

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श्रीमद्भागवद्पूराण अध्याय ५ [स्कंध २] दो०- जिस प्रकार सृष्टि रची पूर्ण वृम्ह करतार ।सो पंचम अध्याय में, कहते कथा उचार ।। ब्रह्मा नारद संवाद श्री शुकदेव जी बोले हे-राजा परीक्षत ! एक बार प्राचीन काल में नारद जी अपने पिता ब्रह्मा जी के पास पहुंचे, परन्तु तिसकाल में वे नारायण के भजन में समाधिस्थ हुये बैठे थे। तब अपने पिता को इस प्रकार ध्यान मग्न हुए देख कर नारद जी अपने हृदय में विचार ने लगे कि संपूर्ण सृष्टि के रचयिता तो वृह्मा जी है फिर यह इस प्रकार किसका ध्यान कर रहे है क्या इनसे परे भी कोई और शक्ति है। इस प्रकार विचार कर नारद सोच में पड़ गये, कुछ समय पश्चात जब वृह्मा जी ने ध्यान छोड़ा तो नारद जी ने उन्हें दंडवत् करके पूछा -हे पितामह ! आपको ध्यान स्थ देख कर मुझे बड़ी चिन्ता हुई क्यों कि आपही तो संपूर्ण शृष्टि को रचकर इस प्रकार संहार करते हो जिस प्रकार मकड़ी अपने मुख से स्वय जाला बनाकर फिर स्वयं ही खा जाती है। अत: इस समय अपको ध्यानस्त देख कर मुझे प्रतीत हुआ कि आपसे भी अधिक शक्ति वाला कोई और है जिसके आदेश पर ही आप सृष्टि का निर्माण एवं विनाश आदि कर्म करते हो अन्यथा आपको ध्यान करने की क्या ...

क्या है विष्णु भगवान का सर्वदेवमय स्वरूप।।

श्रीमद भागवद पुराण अध्याय २३ [स्कंध ५] (ज्योतिष चक्र अवस्थिति का वर्णन) दो०-वर्णनध्रुव स्थान का, विधिवत कह्यौ सुनाय । रूप विष्णु कर व्योम मधि तेसईवे अध्याय॥ शुकदेव जी बोले-हे राजन् ! उन सप्त ऋषियों से तेरह लाख योजन ऊपर विष्णु पद है। जहाँ ध्रुव जी स्थिति हैं, जिनकी चाल कभी नहीं रुकती है। सब नक्षत्रों गृह आदि तारागणों को बाँध रखने वाला एक थम्भ रूप ईश्वर द्वारा बनाये हुये ध्रुव जी सर्वदा प्रकाश मान रहते हैं। यह गृह आदि नक्षत्र काल चक्र के भीतर व बाहर जुड़े हुये ध्रुव का अवलंबन किये हुए हैं, जो पवन के घुमाये हुये कल्प पर्यन्त चारों ओर घुमते रहते हैं । कुछ विज्ञानों का मत है कि यह ज्योतिष चक्र शिशुमार रूप में भगवान वासुदेव की योग धारणा से टिका हुआ है शिर नीचा किये कुन्डली मार कर बैठे इस ज्योतिष स्वरूप शिशुमार की पूछ के अग्रभाग में ध्रुव जी हैं, उनसे निकट नीचे की ओर लाँगूर पर वृह्मा जी और अग्नि, इन्द्र, धर्म, ये स्थिर हैं । पूछ की मूल में श्वाता, विधाता, स्थिर हैं। सप्त ऋषि कटि पर स्थित हैं। चक्र की दाहिनी कुक्षि पर अभिजित आदि पुनर्वसु पर्यन्त उत्तर चारी चौदह नक्षत्र हैं। दक्षिण चारी पुष्प ...

श्रीमदभगवाद्पुराण किसने कब और किसे सुनायी।।

श्रीमद्भागवद्पूरण अध्याय ४ [स्कंध २] (श्री शुकदेवजी का मंगला चरण) दोहा-सृष्टि रचना हरि चरित्र, पूछत प्रश्न नृपाल । वो चौथे अध्याय में, कीया वर्णन हाल । सूतजी बोले-श्री शुकदेवजी के वचन सुनकर राजा परीक्षित ने श्रीकृष्ण के चरणों में चित्त को लगा दिया और ममता उत्पन्न कारक स्त्री, पुत्र, पशु, बन्धु, द्रव्य, राज्य का त्याग कर दिया। परीक्षत ने कहा-हे सर्वज्ञ! आपका कथन परम सुन्दर है हरि कथा श्रवण करने से हमारे हृदय का अज्ञान रूप तिमिर नाश को प्रप्त हुआ है। अब मेरी जिज्ञासा है कि जिसका विचार वृह्मादिक करते हैं, ऐसे जगत को वे परमेश्वर किस प्रकार पालन करते और संहार करते हैं वह सब कहिये। क्योंकि मुझे सन्देह है कि एक ही ईश्वर ब्रह्मादिक अनेक जन्मों को धारण कर लीला करते हुए माया के गुणों को एक ही काल में अथवा क्रम से धारण करते हैं सो इन सबका उत्तर आप मुझसे यथार्थ वर्णन कीजिये। श्री शुकदेवजी बोले-हे भारत ! परम पुरुष परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ, जो कि ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, रूप धारण करते हुये समस्त प्राणियों के घट में विराजमान रहते हैं, उस परमात्मा का मार्ग किसी को अवलोकन नहीं हो पाता है सो प्र...

शुकदेव जी द्वारा विभिन्न कामनाओं अर्थ देवो का पूजन का ज्ञान।। श्रीमद्भागवद्पूराण महात्मय अध्याय ३ [स्कंध २]

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* तीसरा अध्याय *स्कंध २ (देव पूजन के अभीष्ट फल लाभ का उपाय वर्णन) दो० पूजन कर जिन देवकौ, जैसौ ले फल पाय । सो द्वतीय अध्याय में, वर्णत है सब गाय ।। श्री शुकदेव जी परीक्षत राजा से बोले -हे नृपेन्द्र ! जैसा आपने हमसे पूछा वैसा हमने यथावत वर्णन किया है। मृत्यु को प्राप्त होने वाले बुद्धिमान मनुष्य को हरि भगवान की कीर्ति का श्रवण कीर्तन करना ही अत्यन्त श्रेष्ठ हैं। परन्तु अन्य अनेक कामों के फल प्राप्त करने के लिये अन्य देवताओं का पूजन भी करे, बृह्मा का पूजन करने से बृह्मतेज की वृद्धि होती है, इन्द्र का पूजन करने से इन्द्रियों को तृष्टता होती है। दक्ष आदि प्रजापतियों का पूजन करने से संतान को बृद्धि होती है । लक्ष्मी की कामना से देवी दुर्गा का पूजन करना चाहिये, और अग्नि देव का पूजन कर ने से तेज बढ़ता है, यदि धन की कामना हो तो वस्तुओं का पूजन करे। बलबान मनुष्य वीर्यवृद्धि की इच्छा करतो वह ग्यारह रुद्रों का पूजन करे। अदिति का पूजन करनाअन्न आदि भक्ष्य पदार्थों को कल्पना वाले मनुष्य को करना चाहिये। यदि स्वर्ग प्राप्ती की इच्छा होतो बारह आदित्यों की पूजा करे। विश्वदेवों के पूजन करने से राज्य की का...

कैसे करते हैं ज्ञानीजन प्राणों का त्याग।। श्रीमद भगवद पुराण महात्मय अध्याय २[स्कंध २]

* दूसरा अध्याय * स्कंध २ ( योगी के क्रमोत्कर्ष का विवरण) दोहा: सूक्ष्म विष्णु शरीर में, जा विधि ध्यान लखाय । सो द्वितीय अध्याय में वर्णीत है हरषाय ॥ श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! पदम योनी श्रीब्रह्माजी महाराज प्रलय के अंत में प्रथम श्रृष्टि को भूल गये थे, किन्तु श्री हरि ने प्रसन्न हो उन्हें पीछे धारण शक्ति प्रदान की जिससे वह पुनः रचना कर सके। स्वर्ग इत्यादि नाना कल्पना में मनुष्य ने बुद्धि को व्यर्थ चिन्ताओं में ग्रसित कर रखा है । जिस प्रकार मनुष्य स्वप्न में केवल देखता है और भोग नहीं सकता उसी प्रकार स्वर्ग आदि प्राप्त होने पर भी मनुष्य असली सुख को नहीं भोग सकता है। इसी कारण बुद्धिमान जन केवल प्राण मात्र धारण के उपयुक्त विषयों का भोग करते हैं। जब कि वे संसार के क्षणिक भोगों में नहीं पड़ते हैं। जबकि भूमि उपलब्ध है तो पलंग की आवश्यकता क्या है। दोनों वाहु के होने सेतोषक (तकिये) की आवश्यकता क्या है, और पेड़ों की छाल हैं तो भाँति-भाँति के वस्त्रों की क्या आवश्कता है। अंजलि विद्यमान है तो गिलास (पत्र) को जल पीने को क्या आवश्कता है । पेड़ों में फल लगना मनुष्य के भोजन के लिये ही है और...

परीक्षित राजा के जन्म कर्म और मुक्ति की कथा।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का सप्तम आध्यय [स्कंध १] (परीक्षित जन्म कथा) दो:अवस्थामा जिमि हने सोवत द्रोपदी लाल। सो सप्तम अध्याय में वर्णों चरित्र रसाल ।७। शौनक जी पूछने लगे कि हे सूतजी! इस प्रकार नारद मुनि के अभिप्राय को सुनने वाले वेदव्यास ने नारद मुनि के गये पीछे क्या किया? सूतजी बोले-हे ऋषीश्वरो! सरस्वती नदी के पश्चिमतटपर आश्रम था उसको शम्याप्रास कहते हैं वह ऋषि लोगों के यज्ञ को बढ़ाने वाला है। उस आश्रम में तपोमूर्ति वेद व्यास अपने मन को स्थिर करके नारदजी के उपदेश का ज्ञान करने लगे। भक्ति योग करके अच्छे निर्मल हुए निश्चय मन में पहले तो परमेश्वर को देखा फिर तिन्हों के अधीन रहने वाली माया को देखा। श्रीपरमेश्वर की भक्ति करना यही साक्षात अनर्थ शान्त होने का उपाय है। इसके नहीं जानने वाले मनुष्यों के कल्याण करने वाले विद्वान् वेदव्यास जी ने भागवत संहिता सुनना आरंभ किया। जिस भागवत संहिता के सुनने से सन्सरि जिवों के शोक, वृद्धावस्था दूर होते हैं। उसे वेद व्यास जी ने आत्मज्ञानी शुकदेवजी को पढ़ाया।सूतजी कहने लगे, हे! ऋषिवरों जो कि आत्माराम मुनि हैं, वे किसी ग्रन्थ को पढ़ने की इष्छा...

नारद द्वारा हरि कीर्तन को श्रेस्ठ बतलाकार वेद व्यास के शोक को दूर करना।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का पंचम आध्यय [स्कंध १] दोहा-जेहि विधि बखो व्यसो नारद कथा उचार। सो पंचम अध्याय में वर्णी कथा अपार ।। नारद द्वारा वेद व्यास जी को ज्ञानोप्देश सूतजी कहने लगे कि हे शौनक! श्रीवेदव्यासजी को खिन्न मन देखकर नारदमुनि बोले-हे महाभाग! तुम आज कोई सोच करते हुए मालूम होते हो सो ये बात क्या है, हमसे कहो।व्यासजी बोले-महाराज ? मैने चारों वेद तथा पुराण बनाये, मेरे मन में सन्तोष नहीं हुआ है। आप ब्रह्माजी के पुत्र और गम्भीरबोध बाले हो इसलिये मेरा सन्देह दूर कीजिये। नारदजी बोले-हे वेदव्यासजी! तुमने जैसे विस्तार पूर्वक धर्म आदिकों का वर्णनकिया तैसे मुख्य भाव करके विष्णु भगवान की महिमा नहीं गायी, भक्ति बिना सब शास्त्र वचन की चतुराई मात्र ही हैं।वहीं कर्मों की रचना मनुष्यों के पापों को नष्ट करनेवाली होती है कि जिसमें श्लोक-श्लोक में चाहे सुन्दर पद भी न होवे परन्तु अनन्तभगवान के यज्ञ से चिन्हित हुए नाम हो ! उन्हीं काव्यों को साधुजन बक्ता मिलने से सुनते हैं, श्रोता मिलने से गाते हैं, नहीं तो आपही उच्चारण करते हैं। हे महाभाग ! आप परमेश्वर केगुणानुवाद व लीलाओं को अखिल जगत के बन्ध...

देवर्षि नारद मुनि अपने पूर्व जन्म जी कथा वेद व्यास जी को कहना।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का छटवाँ आध्यय [स्कंध १] दोहा-कहयो व्यास सों जन्म को नारद जैसो हाल ।। सोई षट अध्याय में वर्णी कथा रसाल।। देवऋषि नारद का जीवन सार सूत जी बोले कि ऋषीश्वर! वेदव्यास भगवान इस प्रकार मुनि के जन्म व कर्मो को सुनकर बोले, हे मुनि! आपको ज्ञान देने वाले वे साधु महात्मा जब चले गये तब बालक अवस्था में वर्तमान तुम क्या करते भये ? तुमने किस बर्ताव से अपनी पिछली उमर पूरी करी और काल आया तब बह शरीर किस तरह छोड़ा? हे नारद! काल तो सब बातको नष्ट करने वाला है, फिर आपको पूर्वजन्म की स्मृति दूर कैसे नहीं हुई । नारदजी बोले जिस समय मुझको ज्ञान देने वाले साधु महात्मा चले गये, बालक अवस्था वाले मैंने यह आचरण धारण किया। मेरी माता को एक ही पुत्र था, इसलिये वह मुझसे अत्यन्त स्नेह रखती थी। एक समय मेरी माता रात्रि में घर से बाहर चलकर गौ दोहन को जाती थी तब एक सर्प ने उसके पैर को डस लिया। तब मैं उसी समय मेरी मरी हुई माँ के मुख देखने को भी न गया और ईश्वर में मन लगाकर उत्तर दिशा में चल दिया। भूख और प्यास से व्याकुल होगया फिर वहाँ पर एक नदी में स्नान कर उस जल का आचमन किया व जलपान किया तब मेरा खे...

व्यास मुनि का नारद में सन्तोष होना और भागवत बनाना आरम्भ करना

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का चतुर्थ आध्यय [स्कंध १] दोहा: जिमि भागवद पुराण को रच्यो व्यास मुनि राब।  सो चौथे अध्याय में कही कथा समझाया। शौनक जी कहने लगे-हे उत्तम वक्ता ! हे महाभागी जोकि शुकदेव भगवान जी ने कहा है उस पुष्प पवित्र शुभ भागवत की कथा को आप हमारे आगे कहिये। भागवद कथा किस युग में फिर शुकदेव तो ब्रह्म योगीश्वर, समदृष्टि वाले, निर्विकल्पएकान्त में रहने वाले हस्तिनापुर कैसे चले गये और राजऋषि परीक्षित का इस मुनि के साथ ऐसा सम्वाद कैसे हो गया कि जहाँ यह भागवत पुराण सुनाया गया ? क्योंकि वह शुकदेव मुनितो गृहस्थीजनों के घर में केवल गौ दोहन मात्र तक यानी जितनी देरी में गौ का दूध निकल जावे इतनी ही देर तक उसगृहस्थाश्रम को पवित्र करने को ठहरते थे। हे सूतजी? अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित राजा को उत्तम भक्त कहते हैं । इसलिये परीक्षित जन्म कर्म हमको सुनाइये । पांडवों के मान को बढ़ाने वाला वहचक्रवर्ती परीक्षित राजा अपने सम्पूर्ण राज्य के ऐश्वर्य को त्याग,मरना ठान कर गङ्गाजी के तट पर किस कारण से बैठा? सूतजी कहने लगे-हे ऋषीश्वरों! भागवद कथा किस युग में द्वापर युग के तीसरे परिवर्तनके अन्त मे...

भगवान विष्णु के २४ अवतार।।

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श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का तीसरा आध्यय [स्कंध १] दोहा: कृत्य विष्णु अवतार धरि कीन्हे जोग अपार।। सो तीजे अध्याय में कथा कही सुख्सार।। श्री सूतजी महाराज कहने लगे-परब्रह्म परमात्मा ने पहिले सृष्टि के आदि में सृष्टि रचने की इच्छा करके महत्व अहंकार पाँच तन्मात्रा इन्हों से उत्पन्न हुई, जो शोडष कला अर्थात पंच (५) महाभूत और ग्यारह (११) इन्द्रिय इन्हों से युक्त हुए पुरुष के रूप को धारण किया। वही भगवान प्रलयकाल में जब सब जगह एकर्ण व जल ही जल फैल जाता है, तब उस समय अपनी योग निद्रा से शेषशैया पर सोते हैं। योगनिद्रा यानी अपनी समधि में स्थिर रहते हैं। तब उनकी नाभि में कमल का फूल उपन्न होता है। उसी कमल में प्रजापतियों का पति ब्रह्मा उपन्न होता है जो जल में सोते हैं, उन परमेश्वर के स्वरूप कहते हैं, कि जिसके अलग-अलग अङ्गों की जगह ये सब लोक कल्पित किये जाते हैं। हजारों पैर जांघ, भुजा, मस्तक नेत्र, कान, नाक, और हजारों मुकुट तथा चमकते हुए उत्तम हजारों कुण्डलों से शोभित ऐसा अद्भुत उनका रूप है। इस रूपको दिव्य दृष्टि वाले ज्ञानी पुरुष ही देखते हैं ! सभी अवतार उस परमेश्वर के रूप से होते हैं। इस परम पुरुष ...