क्यूँ सूत जी देवताओं को भागवद कथा रुपी अमृत से वंचित किया?
मंगला चरण
कस्तूरी तिलकं ललाट पटले वक्षस्थले कौस्तुभं, नासाग्रेवरमौक्तिकं करतले वेणुकरेकंकणम् । सर्वा गे हरिचन्दनं सुललितं कंठेच मुक्तावली, गोपस्त्री परिवेष्टितो बिजयते गोपाल चूडामणिः । फुल्लेन्दीवरकान्तिमिन्दुवदनं बह्तावतंसंप्रियं, श्रीवत्सांक मुदारकौस्तुभं पीताम्बरं सुन्दरम् । गोपीनांनयनोत्पलाचित तनु गोगो पसंघावृतं, गोविन्द कलवेणुवादनपरं दिव्यांग भूषं भजे ॥
श्रीमद्भागवत माहात्म्य का पहिला अध्याय
दो: भाखयो पद्मपुराण जस नारद भक्ति मिलाप । पट अध्यायन सो कह्यो, श्रीदेवऋषि नारद आप
एक समय नैमिष क्षेत्र में सुख पूर्वक बैठे बुद्धिमान श्री सूत जी को प्रणामकर के भगवदकथा रुपी अमृत रस
भक्ति का श्री नारद मुनि से मिलाप।। ज्ञान वेराज्ञ को चेत।।
यह वचन कहा- अज्ञान रुपी अन्धकार को दूर करने के अर्थ करोड़ों सूर्य के समान कान्ति वाले सूत जी हमरे कानों को रसायन रुपी सार का वर्णन अप किजीये। भक्ति और वेराज्ञ की प्राप्ति किस रोति से होती है और ज्ञान किस प्रकार बुद्धि को प्राप्त होता है और विष्णु भक्त किस प्रकार मोह माया को त्याग करते है। इस घोर कलयुग के आने से सन्सारी जीव असुर भाव को प्राप्त हो ग्ये हैं।आत्याव हम आपसे ये पूछते है कि कलेशों से दुःखित जीवों को पवित्र करने के अर्थं क्या करना योग है। जो कल्यणौँ भी परम-कल्याण रूप है, तथा पवित्र करने वाले को पवित्र करने वाला है, और निरन्तर श्री कृष्णा की प्राप्ति कराने वाला है, ऐसा साधन आप हमारे आगे कहिये। यह वचन सुनकर सूत जी बोले जी बोले-हे सौनक जी ! आपके मन में बहुत प्रीती है। इस कारण विचार कर संसार के भय को दूर करने वाला सम्पूर्ण सिद्धांतों का सार भूत तत्व जो भक्ति प्रभाव को बढ़ाने वाला,श्रीकृष्ण भगवान को प्राप्त करने का कारण है सो में आपके आगे वर्णन करता सावधान होकर सुनो।।
कालरूप सर्व से पसित होने के छात्र का नाम करने वाला भागवत शास्त्र कलियुग में श्री शुकदेव जी ने वर्णन किया है, मन को शुद्ध करने के निमित्त इससे बड़कर दूसरा कोई भी साधु नहीं है।। जन्मान्तर के पुण्य के प्रभाव से भागवत की प्राप्ति होती है।।क्यूँ सूत जी देवताओं को भागवद कथा रुपी अमृत से वंचित किया?
भृगी ऋषी के शाप से जिस समय राजा परीक्षित गङ्गा के तट पर जा बैठे, उस समय बड़े बड़े ऋषि मुनियों से युक्त महाराजा परीक्षित की सभा में व्यास-नन्दन श्री शुकदेव जी महाराज आये और श्रीमदभगवद की कथा कहना चाहते ही थे, कि
अमृत का भरा घड़ा लेकर देवता वहां आये, और अपना कार्य साधन करने में कुशल उन सब देवता ने शुकदेव जी को प्रणाम करके कहा कि हे महाराज । आप ही सबको कथा रुपी अमृत पिलाइये, और उसके बदले में यह अमृत का घट लीजिए । इस प्रकार बदला करने से राजा को आप अमृत पिलाइये और हम सब देवता लोग श्रीमद्भागवत रूपी अमृत को पियें।। देवताओं का यह वचन सुनकर कहाँ तो अमृत और कहाँ संसार में यह कथा ? कहां कांच ? कहाँ मणि ? यह विचार कर विष्णु रक्षित परीक्षित तथा परम भागवत श्री शुकदेव मुनि देवताओं की चतुराई पर बहुत हसे और उनको भगवान के अभक्त जानकर कथा रूप अमृत नहीं दिया।।श्रीमद भागवद कथा का महात्मय (सुख सागर)
सो श्रीमद्भागवत की कथा देवताओं को भी परम दुर्लभ है। श्रीमद्भागवत की कथा सप्ताह में सुनने वाले को सर्वथा मोक्षदायक है, यद्यपि यह भागवत-कथा वेव्स नारद ने ब्रह्माजी से सुनी है, परन्तु सप्ताह में श्रवण करने की विधि सनत्कुमार ने नारदजी से कही है। यह सुनकर शौनक जी बोले-लोक में विग्रह कराने वाले नारदजी दो घड़ी से अधिक एक स्थान में कभी नहीं रह सकते फिर एक स्थान में स्थिर होकर प्रीति पूर्वक सप्ताह परायण की विधि किस प्रकार सुनी, और सनत्कुमार व नारदजी का समागम कहाँ हुआ? सूत जी बोले-श्री शुकदेव मुनि ने मुझको अपना अन्तरङ्ग शिष्य समझ कर भक्ति रस को पुष्ट करने वाली जोगोप्य कथा कही है, वह कथा में तुम्हारे आगे वर्णन करता हूँ, सावधान होकर सुनो।।।नारद मुनि और भक्ति, वैराग्य, और ज्ञान का मिलाप।।
।।भक्ति का दुख को प्राप्त होना।। ।।कलयुग का सत्य।।
।।सनकादिक मुनीयों का नारद जी को ज्ञान।।
एक समय बद्रिकाश्रम में सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार ये चारों ऋषि सत्संग के अर्थ आये, वहां उन्होंने नारदजी को देखा, और उनसे बोले-ब्रह्मन् आप मन मलीन और उदास मुख में कैसे हो रहे हो ? श्रीनारदजी बोले कि मैं सम्पूर्ण लोकों में पृथ्वी को उत्तम जानकर पुष्कर, प्रयाग,काशी गोदावरी,तथाहरीहरक्षेत्र श्रीरङ्ग,सेतबन्धुरामेश्वर तीर्थों में चारों ओर विचरता फिरा।। परन्तु चित्त को सन्तोष करने वाली कोई कल्याण दायक बात नहीं देखने में न आई।। अधर्म के सखा कलियुग ने इस समय इस पृथ्वी को ऐसा पीड़ित कर रक्खा है कि सत्य,तप, शौच,दया का कहीं नाम नहीं रहा, सब लोग उदर भरने वाले वह तुच्छ तथा असत्य बोलने वाले रह गये है, इस कारण मन में अत्यन्त चिन्ता है। आलसी, मन्दमति,मन्दभौगी, रोग आदि से पीड़ित पाखण्ड निरत सन्त और विरक्त जान भी स्त्री धन रखते हैं। घर में स्त्री की ही प्रभुताई है,साला सम्मतिदता है।
लोभ से कन्याओं का विक्रय हो रहा है, स्त्री पुरुष में कलेश रहने लगा है। मुनियों के आश्रम, मठ, तीरथ और नदियों पर यवनों का अधिकार हो गया है देवताओं के स्थान को दुष्टों ने जहां तहाँ नष्ट कर डाले है। न कोई योगी है न सिद्ध है, और न काई उत्तम क्रिया वाला पुरुष है।। कालरुपी घोर अग्नी से सब सामान जलकर भस्म हो गये हैं । इस कलयुग में मनुष्य अन्न बेचकर, ब्राह्मण वेद बेचकर व स्त्रीयाँ लज्जा बेचकर जीवन यापन कर रहे। हैं। सो इस प्रकार इन सब कल्युगी दोषों को देखता हुआ मैं यमुना जी के तट पर आया जहां श्रीकृष्ण भगवान ने अनेक लीलायें की थी।। मुनियों ! वहाँ मैने बड़ा भारी आश्चर्य देखा कि एक युवा स्त्री महादुखी मन मारे बैठी सोच कर रही थी, और उस के समीप दो वृध्द पुरुष अचेत पड़े लम्बे-लम्बे श्वास ले रहे थे, और यह दोनों को सेवा करती और समझाती हुई उनके आगे रो रहो थी। वह अपने शरीर की रक्षा करने वाले को नेत्र पसार-पसार कर चारों ओर देख रही थी, सैकड़ों स्त्रियाँ उसके पवन करती थी और बारम्बार धैर्य देकर उसको समझा रही थी। यह कौतुक दूर से देखते ही में उस शोकाकुल स्त्री के समीप गया, मुझे देखते ही वह बाला उठी और विह्वल होकर यह वचन बोली। हे साधु ! क्षण मात्र ठहर कर मेरी चिन्ता दूर करो, तुम्हारा दरसण करने से लोगों के सब पाप दूर हो जाते हैं। नारदजी बोले कि उसके यह वचन सुनकर मैंने पूछा कि देवी तुम कोन हो! और ये जो दो अचेत पड़े हैं सो ये कौन हैं और कमल समान नेत्रों वाली स्त्रियाँ जो तुम्हारे समीप बैठी हैं सो ये कौन हैं ! और तुम्हारे दुःख का कारण है। वह विस्तार पूर्वक हमसे कहो। यह सुनकर बाला बोली कि मैं भक्ति हूँ, मेरा नाम जगत में विख्यात है। ये दोनों जो अचेत पड़े सो मेरे पुत्र ज्ञान, वैराग्य नाम वाले कुसमय के प्रभाव से वृद्ध हो और ये जो स्त्रीयाँ हैं वे गंगा आदि नदियाँ मेरी सेवा के अर्थ यहां आई हैं और यद्यपि देवता मेरी सुषूना करते हैं. तथापि मुझे कोई भी कल्याण का साधन नहीं देख पड़ता । है तपोधन इस समय चित लगाकर मेरी बात को सुनो मेरी कथा बहुत बड़ी है और इसे सुनकर
सुनकर आपको परम सुख प्राप्त होगा।
द्रविण देश में उत्पन्न होकर में कर्णाटक देश में वृद्धि को प्राप्त है फिर कुछ काल उपरान्त युवाहोकर दक्षिण देश में रही, वहां से गुजरात और महाराष्ट्र देश में पहुँची वहां वृद्ध हो गई। वहाँ घोर कलियुग के योग से लोगों द्वारा पाखंड खण्डित शरीर वाली में पुत्रों सहित दुर्बल हो गई। इस समय विचरते२ वृन्दावन में आई तो फिर पहिले समान ही युवा और सुन्दरी रूप वाली होगई हूँ। परन्तु ये मेरे दोनों पुत्र परिश्रम के मारे दुःखित और अचेत पड़े हैं। इस कारण इनके दुःख से मैं महा दुखित हो रही हूँ। हम तीनों सदा एक साथ रहते थे परन्तु इस विपरीतता के कारण बड़ा सङ्कट है। यदि माता वृद्ध होवे और पुत्र तरुण होवे तब तो ठीक ही है, परन्तु यह उलटी बात क्यों हुई ! हे योगेश्वर' हे बुद्धिमान् !
लोप
यह क्या कारण है ! वह मुझसे कहो। यह सुन नारदजी बोले- हे निष्पाप! ज्ञान दृष्टि से मैं तुम्हारा सब वृत्तान्त जानता हूँ, तुम किसी बात की चिन्ता मत करो, भगवान तुम्हारा कल्याण करेंगे। सूत जी ने कहा कि क्षण मात्र में विचार कर नारद मुनि बोले कि हे बाले ! मैं इसका कारण कहता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो, इस समय महाघोर कलियुग बर्त रहा है। इस कारण सदाचार, योग मार्ग और तप सब लोप हो गये हैं। और इसी कारण से मनुष्य पाप कर्म करने से असुर भाव को प्राप्त होगये हैं। इस कलियुग में साधु जन वल पाते हैं और असाधू जन प्रसन्न रहते हैं। अतएव इस समय में तो जो धैर्य धारण करे, वही धीर पण्डित अथवा बुद्धिमान है। इस कराल कलिकाल में शेषजी को भार रूप वाली पृथ्वी अब छूने और देखने योग्य नहीं रही है, और प्रतिवर्ष क्रम--क्रम से ऐसी ही होती जायगी, कहीं भी मङ्गल नहीं देख पड़ेगा और अब कोई भी मनुष्य न तो तुमको देखता है न तुम्हारे पुत्रों की ओर दृष्टि देता है। सब लोग पुत्र, स्त्री और धन आदि के अनुराग में अन्धे हो रहे हैं और तुम्हार आदर नहीं करते । इस कार तुम्हारी जर्जर अवस्था होगई अर्थात् तुम्हारा शरीर दुर्बल हो गया | वृन्दावन के संयोग से अब फिर तुम नवोन तरुण होगई हो, यह वृंदावन धन्य है कि जहां भक्ति सदएव आनन्द पूर्वक नृत्य करती है। इस वृंदावन में तेरे ये दोनों पुत्र ज्ञान और वराग्य वाह की ना होने के कारण वृध्दावस्था को त्याग नहीं करेंगे, किन्तु यद्यपि इनकी वृध्दावस्था निवृत नहीं हुई है तथापि दूसरे स्थानों की उपेक्षा ये यहां बहुत स्वस्थ रहेंगे। क्योंकि दूसरे स्थानों पर तो इन्हें निद्रा ही नहीं आती परन्तु यहां आने पर ये शन्ति पूर्वक अर्थात् सुखपूर्वक नेत्र मूँद कर सोये है
नारद मुनि के ये वचन सुनकर मुक्ति बोली कि-- है नारद जी! इस अपावन कलयुग को राजा परीक्षित ने क्यों स्थापित किया। और इसके पृवित हुए पीछे सबका सार बल कह चला गया।तथा परम दयालु हरि भगवान इस अधम रुप कलियुग को कसे देख सकते हैं।। कृपा करके मेरा यह संदेह दूर करो। नारदजी बोले कि हे बाले तुमने जो पूछा है वो मैं कहता हूँ, जिस दिन से श्री कृष्ण चन्द्र भगवान इस पृथ्वी को त्याग कर निज धाम को पधार गये उसी दिन से सम्पूर्ण साधनों का बाधक यह कलियुग इस संसार में आया। दिग्विजय के समय में राजा परीक्षित ने इस कलयुग को गौ रूप पृथ्वी और वृषभ रूप धर्म के पीछे मारने को इच्छा से बढ़ता हुआ देखा तब राजा परीक्षित ने इसको अपने शराणागत जानकर छोड़ दिया । यह कलियुग नाना प्रकार के अवगुण का धाम है परन्तु इसमें उत्तम है कि जिससे राजा परीक्षित ने इसको अपराधी जान करके भी छोड़ दिया, वह गुण है कि दूसरे युगों में जप, योग समाधि द्वारा भी जो फल प्राप्त होना दुर्लभ हो जाता वह फल इस कलयुग में भगवान का नाम भक्ति पूर्वक लेने से भली भान्ति प्राप्त हो जाता।। जिसमें केवल भक्ति ही साधन है और दान वैराय जिसमें नीरस है, इस अवगुण युक्त कलियुग में केवल एक शुभ गुण देखकर राजा परीक्षित ने कलयुगी के कल्याण के निमित्त इस कलयुग को स्थापित रखा है।। परन्तु कलियुग वासियों से साधारण कर्म भी नही हो सकता है।। इस कारण कलियुग ने सबका कर्म और धर्म नष्ट कर दिया, कुकर्मो के आचरण से सबका सार निकल गया,
ब्राह्मणों ने धन से लोभ से भगवत्सम्बन्धी कथा घर-घर में प्रत्येक भक्त के सन्मुख कहानी प्रारम्भ करता, इस कारण कथा का सार जाता रहा, और अति कुकर्मो, नास्तिक,नरक-अधिकारी लोग,कपट वेष धारण कर तीर्थ वास करने लगे, इस कारण तीर्थों का सार जाता रहा। तथा जिनक चित्त काम, क्रोध, लोम व मोह में व्याकुल हो रहे हैं, ऐसे लोग झूठा तप करने लगे, इस कारण तपस्या का सार जाता रहा, और मनके न जीतने तथा लोभ, दम्भ और पाखंड का आश्रय लेने से और शास्त्रों का अभ्यास न करने से ध्यान योग का फल जाता रहा। पंडिको को यह दशा है कि महिष के समान स्त्रियों के सग रमण कर पुत्र उत्पन्न करने में तो निपुण हैं, परन्तु मुक्ति साधन में मूर्ख है। सब सस्परदायों मे श्रे ष्ठ वैष्णव सम्प्रदाय है सो कहीं देखने में नहीं आता इस प्रकारस्थान में सब पदार्थो का सार जाता रहा। यह तो कलियुग का धर्म ही ठहरा इसमें दूसरे किसी का क्या दोष है। इस कारण पुण्डरीकाक्ष भगवान समीर स्थित होन पर भी सहन करते हैं । सूत जी बाले कि-हे शौनक नारद जी के यह वचन सुनकर भक्ति को बड़ा विस्मय हुआ।वह बोली कि हे देवर्षि । आप धन्य हो, मेरे भाग्य से हो इस स्थान पर आ गये हो आप सरीखे साधुओं का दर्शन लोक में संपूर्ण सिद्धियों का देन वाला है । हे ऋषि। आपको बारम्बार नमस्कार है। आप कृपा पूर्वक मेंरे पुत्रों को स्वस्थ कीजिये, मैं आपको बारंबार प्रणाम करती हूँ।༺═──इति पद्यपुरां श्रीमद भग्वद्पुराण प्रथम अध्याय समाप्तम ────────────═༻
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