श्रीमद भगवद पुराण नवां अध्याय [स्कंध४]ध्रुव चित्र।।अधर्म की वंशावली।।




श्रीमद भगवद पुराण नवां अध्याय [स्कंध४]  (ध्रुव चित्र)  दोहा-हरि भक्त ध्रुव ने करी जिस विधि हृदय लगाय।  सो नोवें अध्याय में दीनी कथा सुनाय ॥  श्री शुकदेव जी बोले-हे परीक्षित ! फिर मैत्रेय जी बोले हे विदुर जी ! इस प्रकार शिव पार्वती ने विवाह का प्रसंग कहकर हमने आपको सुनाया। अब हम तुम्हें ध्रुव चरित्र कहते हैं सो ध्यान पूर्वक सुनिये।  अधर्म की वंशावली।।   सनक, सनंदन, सनातन, सनत्कुमार, नारद जी, ऋभु, हंस, आरूणी, और यति आदि ब्रह्मा जी के पुत्रों ने नैष्टिक प्राचार्य होने के लिये गृहस्थाश्रम नहीं किया। अतः उनके द्वारा कोई वंशोत्पत्ति नहीं हुई। हे विदुर जी! बृह्मा जी का एक पुत्र अधर्म भी हुआ, उसकी मृषा नामा पत्नी से दम्भ नाम पुत्र और माया नाम कन्या उत्पन्न हुई। इन दोनों बहन भाई को पति पत्नी रूप बना कर मृत्यु ने गोद ले लिया। तब दम्भ की पत्नी माया से लोभ नाम का पुत्र और शठता नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई तब वे दोनों लोभ और शठता स्री पुरुष हुए। जिससे शठता में लोभ ने क्रोध नाम के पुत्र और हिंसा नाम की कन्या को उत्पन्न किया । तब वे दोनों भी पति पत्नी हुई। जिससे हिंसा नाम स्त्री में क्रोध ने काले नाम का सुत और दुरूक्ति नाम की कन्या को उत्पन्न किया। सो वे भी पति पत्नी रूप को प्राप्त हुये और उनने भय नाम का सुत और मृत्यु नाम की कन्या को उत्पन्न किया। तब भय ने अपनी मृत्यु नाम पत्नी से निरश्य नाम पुत्र और यातना नाम वाली कन्या को उत्पन्न किया। सो हे बिदुर ! हमने आपके सामने यह संक्षेप में प्रतिसर्ग वर्णन किया है।  जो कोई प्राणी इस अधर्म की वंशावली को सुनता है उसके शरीर का सब मल दूर हो जाता है। सो हे विदुरजी ! अब मैं आपके सामने वृह्माजी के अंश से उत्पन्न स्वायंभुव मनु के वंश का वर्णन करता हूँ।   यह हम वर्णन कर चुके हैं कि स्वायंभुव मनु ने अपनी शतरूपा नामा स्त्री से दो पुत्र उत्पन्न किये थे। जिनके नाम प्रियव्रत और उत्तानपाद हुआ। हे विदुर! यद्यपि प्रियब्रत बड़े थे और उत्तानपाद छोटे थे। परन्तु यहाँ हम पहिले उत्तानपाद के पुत्र धुव तथा उसके वंश का विवरण सुनाते हैं । पश्चात अगले स्कंध में प्रियव्रत के वंश का वृतान्त सुनाएंगे।   मनु जी के उत्तानपाद नाम पुत्र की दो स्त्रियाँ थीं। एक का नाम सुनीति था। यद्यपि सुनीति रानी बड़ी थी परन्तु राजा उत्तानपाद को अपनी छोटी रानी सुरुचि से अधिक स्नेह था । इन दोनों रानियों के दो पुत्र थे, जो सुनीति का पुत्र ध्रुव था और सुरुचि का पुत्र उत्तम था। लगभग ये दोनों ही उम्र में बराबर थे किन्तु ध्रुव कुमार उत्तम से कुछ बड़ा था इसी कारण से ध्रुव ही युवराज पद का अधिकारी था।   एक दिन राजा उत्तानपाद की गोद में उत्तम कुमार बैठा हुआ था कि तभी खेलो हुये ध्रुव कुमार भी वहाँ आ पहुँचा वह ध्रुव कुमार भी अपने पिता उत्तानपाद की गोद में बैठने का उपक्रम करने लगा। तब वहाँ सुरुचि रानी भी उपस्थित थी जिसने सौतिया डाह के कारण ध्रुव को उत्तानपाद राजा की गोद से उतार कर अभिमान युक्त ऐसे बचन कहे। हे ध्रुव! तुम राजा की गोद में और राज सिंहासन पर बैठने के योग्य नहीं हो । क्योंकि तुम मेरी कोख से उत्पन्न नहीं हुये हो। यदि तुझे पिता की गोद और सिंहासन पर ही बैठना है तो पहले विष्णु भगवान को तपस्या कर उसके पश्चात मेरी कोख से जन्म लेना तब तू इस सिंहासन और पिता की गोद में बैठना । तब अपनी सौतेली माता सुरुचि के यह दुर्वचन सुनकर क्रोध से व्याकुल हो रोता रोता वह ध्रुव अपनी माता सुनीति के पास आया। जब पुत्र अपने पास लम्बी-लम्बी स्वाँस लेता रोता हुआ आता देखा तो सुनीति ने अपने पुत्र को अति स्नेह से दौड़कर अपनी गोद में उठा लिया। वह धुव के इस प्रकार विकल होने का कारण जनाना चाहती थी। तब नगर निवासियों से उसे अपनी सौति के द्वारा ध्रुव के साथ जो बर्ताव किया था और जो कुछ खोटे बचन कहे थे वह सब बताया। जिसे सुन कर सुनीति को अति दुख हुआ वो अपने नेत्रों से आँसू बहाने लगी और अपने पुत्र से इस प्रकार कहने लगी-हे पुत्र ! छोटी रानी सत्य ही कहती है। क्योंकि यदि तुमने पूर्व जन्म में नारायण की तपस्या की होती तो मेरी कोख से कभी जन्म नहीं लेता। जिस परमात्मा के चरणार विन्दों का ध्यान मोक्ष के लिये करते। यदि भी उन भगवान श्री नारायण जी का भजन करें तो अवश्य तुम भी उत्तम के समान पद को प्राप्त हो जाता। सो हे पुत्र! तू भगवान श्री नारायण का भजन ध्यान करे तो अवश्य तेरी अभिलाषा पूरी होगी। इस प्रकार अपनी माता के बचनों को सुनकर ध्रुव जी ने अपनी बुद्धि से क्रोध को रोककर मन को शांत किया और पुर को छोड़ वन की ओर भगवान श्री नारायण जी का भजन करने के लिये चल दिया।   मैत्रेयजी बोले-हे विदुर ! जब ध्रुव जी बन को चले तो नगर से बाहर निकलते ही ध्रुव की इच्छा को जान कर नारद जी आए। उन्होंने ध्रुव के सिर पर अपना पाप नाशक हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और इस प्रकार बोले-हे ध्रुव! कहाँ जाते हो, तब ध्रुव जी ने सारा वृतान्त कह सुनाया जिसे सुनकर नारदजी को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे कि क्षत्रियों में कितना अधिक स्वाभिमान और तेज होता है सो इस पाँच वर्ष के ध्रुव से साक्षात जाना जा सकता है। क्यों कि पाँच वर्ष का एक क्षत्रिय पुत्र अपनी सौतेली माता के कटु बचनों को सहन नहीं कर सका है, और बन में उन भगवान को खोजने जा रहा है कि जिन्हें शेष महेश योगी जी अनन्तकाल तक ध्यान धरते हैं तब भी बड़ी कठिनता से प्राप्त कर पाते हैं। ऐसा विचार आश्चर्य से कर नारद जी ने ध्रुव से इस प्रकार बचन कहे। हे ध्रुव ! अभी तुम बालक हो, खेलने की अवस्था है, और बालक को यदि कोई मान अपमान के वचन कहे तो उसे उसका बुरा नहीं मानना चाहिये। तुम जिस माता के कहने से परमात्मा को प्राप्त करने जाते हो, उस ईश्वर को मुनि लोग तीव्र योग साधन करने पर भी अनेकों जन्मों में खोज पाते हैं। अतः अपनी हठ त्याग कर घर को वापिस जाओ, क्योंकि तुम्हारा यह हठ निष्फल ही है। योग साधन का समय वृध्दावस्था होती है अतः उस आयु में यह प्रयत्न करोगे तो अवश्य ईश्वर को प्राप्त कर सकेंगे । अन्यथा इस अवस्था में उस ईश्वर को पाना तुम्हारे लिये अत्यन्त कठिन कार्य है ।   नारद जी के यह बचन सुन कर ध्रुव जी बोले-  दो०-दुख सुख से हत चित्त हो, जो नर करे निवास। हितकर ये उपदेश है उनको करि विश्वास॥  किन्तु न मेरे चित्त ये, चढ़े आपका ज्ञान। हूँ क्षत्री का बालक सह न सकूं अपमान ॥  सो हे वृह्मन ! मेरा हृदय मेरी विमाता के बचन रूपी बाणों से विधा पड़ा है। सो हे ब्रह्मा के प्रिय पुत्र नारद जी ! मुझे आप वह मार्ग बताइये जिससे मेरा यह मनोरथ कि त्रिभुवन के उत्तम पद को प्राप्त हो सकू वह मार्ग बताइये। आप ब्रह्मा के अंग से उत्पन्न हो अवश्य मुझे वह मार्ग बता सकते हो । वृथा आप मुझे उस मार्ग पर फंसाने का प्रयत्न मत कीजिये कि जिस संसारी मार्ग में अन्य पंचभूत से ग्रसित प्राणी भटकते फिरते हैं।   ध्रुव जी के इन दृढ़ बचनों को सुनकर नारदजी अति प्रसन्न हुये और बोले-हे राजकुमार । तुम्हारी माता ने तुम्हें जो मार्ग बतलाया है वह निश्चय ही तुम्हें मोक्ष का देने वाला है इस लिये भगवान वासुदेव से मिलाने वाले उस मार्ग पर चलकर भगवान वासुदेव के चरणारविन्द में मन लगाकर आराधना करो। हे पुत्र! इसलिये मैं तुम्हें वह मार्ग बताता हूँ जिसके द्वारा चलने पर तुम अवश्य उस भगवान नारायण को प्राप्त कर सकते। हे पुत्र! सुनो    दोहा-यमुना तट एक अति पवित्र, है मधुवन शुभ धाम।  तहाँ विराजें निश दिवस, श्री कृष्ण घनश्याम ।।   हे ध्रुव ! तुम उसी स्थान पर जाओ अर्थात यमुना तट पर मधुबन नामक क्षेत्र में जाय निवास करो। वहाँ नित्य यमुना जल से स्नान करके प्राणायाम विधि से मन के मेल को दूर करो। भगवान कृष्ण के मंगल स्वरूप का ध्यान करते हुये विद्वानों के अनुसार पूजन करके   द्वादशाक्षर मत्र-ॐ नमो भगवते वासुदेवाय   का उच्चारण करके मंत्र स्वरूप भगवान का भजन करो। इस प्रकार उन भगवान श्री नारायण जी का काया वाणी, मन, निष्कपट भाव से भजन करने वाले पुरुष को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, इन चारों में से जो फल अवश्य नारायण जी की से प्राप्त होता है। तब नारद जी द्वारा शिक्षा प्राप्त कर ध्रुव जी ने नारद जी की परिक्रमा की और प्रणाम करके भगवान वासुदेव की भक्ति के निमित्त यमुना तट पर बसे मधुबन क्षेत्र की ओर चल दिये।    मैत्रेय जी बोले-हे बिदुरजी! ध्रुव जी तो बन में तप करने के लिये नारदजी की दीक्षा के अनुसार चले गये, और इधर नारद जी वहाँ से चलकर राजा उत्तानपाद के यहाँ राज्य भवन में पहुंचे। जहां राजा उत्तानपाद ने नारद जी को अध्यर् आदि दे सत्कार कर उच्च आसन पर स्नेह भक्ति से बिठाया। तब आसन पर विराजमान हो प्रसन्न मन हो नारदजी ने राजा से कहा-हे राजन आप इतने उदास क्यों हैं, क्या कोई विशेष कारण है जो इस प्रकार मुख सूख रहा है, कहीं आपके धर्म अर्थ काम का नाश तो नहीं हो गया है। तब नारदजी कहने लगे-हे मुने ! मैंने एक बड़ा भारी अपराध किया है, कि अपनी एक स्त्री तथा उसके पाँच वर्ष के पुत्र को घर से बाहर निकाल दिया है। सो वृह्मन वह महाज्ञानी बालक बन को चला गया है। इसी कारण से मेरा मन मलीन और अत्यन्त दुखी हो रहा है कि कहीं उस श्रम से थके भूख से मलिन हुये बालक को भेड़िया आदि न खा जायें।   तब नारदजी बोले- आप अपने उस पुत्र को चिन्ता मत करो, उसके तो भगवान हरि हर समय रक्षक हैं । शीघ्र ही वह ध्रुव नाम बालक लौट कर आयेगा । क्योंकि तुम राजमद अहंकार तथा स्त्री के वश होने के कारण यह बात नहीं जानते हो कि वह बालक ध्रुव जगत में बहुत ही होनहार बालक है। उसके प्रताप का यश शीघ्र ही सम्पूर्ण जगत में मिलेगा । वह ध्रुव उस तप में समर्थ होगा कि जिसको संपूर्ण लोक पाल भी समर्थ नहीं हैं, सो वह ध्रुव शीघ्र ही अपनी मनोकामना पूर्णकर आपके यश को बढ़ाता के द्वारा हुआ शीघ्र ही आवेगा।    मैत्रेय जी बोले-हे विदुर ! इस प्रकार राजा उत्तानपाद को जब नारद ने वृतान्त सनाया तो उसे कुछ धैर्य हुआ। नारदजी हरि गुनगान करते चले गये, और राजा अपनो स्त्री के वशीभूत होने का खेद करता हुआ ध्रुव की चिन्ता करने लगा।    इधर ध्रुव का वृतान्त सुनो कि बह जब नारद जी के बचन मानकर चला तो यमुना के तट पवित्र मधुबन क्षेत्र में आया, और यमुना के किनारे ही नित्य भगवान की पूजा कर तप करने लगे।   ध्रुव जी का तप वर्णन।।  ध्रुव ने पहिले महीने में प्रत्येक तीन रात के उपरान्त के थके फूल या वेर का भोजन करके अपने शरीर और अवस्था के अनुसार भगवान का पूजन करते हुये तप किया। फिर दूसरे महीने के छठवें दिन तृण आदि पत्तों का भोजन करता जो कि स्वयं ही पेड़ों से टूट कर गिर जाते थे। उन्हें खा कर भगवान का पूजन करके तप करने लगा। पश्चात तीसरे माह में नौ दिन पश्चात फल फूल का आहार करके भगवान का पूजन कर तप करने लगा। चौथे महीने में प्रत्येक बारहवें दिन में केवल पवन भक्षण करके ही भगवान का पूजन करते हुये तप करने लगा। तदनन्तर पांचवें महीने में ध्रुव ने स्वास को रोक कर एक पाँव से खड़े होकर तप करना आरम्भ कर दिया। तब धुरबजी परमेश्वर में ऐसे लीन हो गये कि उन्हें हर ओर श्री भगवान कृष्ण ही कृष्ण दिखाई पड़ने लगे। जब इस प्रकार का उग्र तपकर ध्रुव जी ने स्वाँस को भी रोक लिया तो समस्त पृथ्वी कॉपने लगी और प्राण तत्व रुक गये। तब देवता घर के तप तेज से भयभीत हो भगवान श्री नारायण की शरण में पहुंचे। वे प्रार्थना कर भगवान से कहने लगे- हमने अाज तक सम्पूर्ण प्राणियों के प्राण रुकना नहीं देखा था । हे शरणागत वत्सल ! इस आपत्ति से हमारा उद्धार कीजिये । तब श्री भगवान बोले-हे देवता! तुम इस प्रकार भय मत करो तुम्हारे भय का कारण राजा उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव है उसने अपने तप के द्वारा बिश्व रूप की एकता को प्राप्त होना चाहा है, सो तुम हर प्रकार उस ध्रुव नाम बालक को मनाने का प्रयत्न करो तो तुम्हें इस भय से छुटकारा मिलेगा।

श्रीमद भगवद पुराण नवां अध्याय [स्कंध४]


(ध्रुव चित्र)

दोहा-हरि भक्त ध्रुव ने करी जिस विधि हृदय लगाय।

सो नोवें अध्याय में दीनी कथा सुनाय ॥


श्री शुकदेव जी बोले-हे परीक्षित ! फिर मैत्रेय जी बोले हे विदुर जी ! इस प्रकार शिव पार्वती ने विवाह का प्रसंग कहकर हमने आपको सुनाया। अब हम तुम्हें ध्रुव चरित्र कहते हैं सो ध्यान पूर्वक सुनिये।

अधर्म की वंशावली।।


सनक, सनंदन, सनातन, सनत्कुमार, नारद जी, ऋभु, हंस, आरूणी, और यति आदि ब्रह्मा जी के पुत्रों ने नैष्टिक प्राचार्य होने के लिये गृहस्थाश्रम नहीं किया। अतः उनके द्वारा कोई वंशोत्पत्ति नहीं हुई। हे विदुर जी! बृह्मा जी का एक पुत्र अधर्म भी हुआ, उसकी मृषा नामा पत्नी से दम्भ नाम पुत्र और माया नाम कन्या उत्पन्न हुई। इन दोनों बहन भाई को पति पत्नी रूप बना कर मृत्यु ने गोद ले लिया। तब दम्भ की पत्नी माया से लोभ नाम का पुत्र और शठता नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई तब वे दोनों लोभ और शठता स्री पुरुष हुए। जिससे शठता में लोभ ने क्रोध नाम के पुत्र और हिंसा नाम की कन्या को उत्पन्न किया । तब वे दोनों भी पति पत्नी हुई। जिससे हिंसा नाम स्त्री में क्रोध ने काले नाम का सुत और दुरूक्ति नाम की कन्या को उत्पन्न किया। सो वे भी पति पत्नी रूप को प्राप्त हुये और उनने भय नाम का सुत और मृत्यु नाम की कन्या को उत्पन्न किया। तब भय ने अपनी मृत्यु नाम पत्नी से निरश्य नाम पुत्र और यातना नाम वाली कन्या को उत्पन्न किया। सो हे बिदुर ! हमने आपके सामने यह संक्षेप में प्रतिसर्ग वर्णन किया है।
जो कोई प्राणी इस अधर्म की वंशावली को सुनता है उसके शरीर का सब मल दूर हो जाता है। सो हे विदुरजी ! अब मैं आपके सामने वृह्माजी के अंश से उत्पन्न स्वायंभुव मनु के वंश का वर्णन करता हूँ।


यह हम वर्णन कर चुके हैं कि स्वायंभुव मनु ने अपनी शतरूपा नामा स्त्री से दो पुत्र उत्पन्न किये थे। जिनके नाम प्रियव्रत और उत्तानपाद हुआ। हे विदुर! यद्यपि प्रियब्रत बड़े थे और उत्तानपाद छोटे थे। परन्तु यहाँ हम पहिले उत्तानपाद के पुत्र धुव तथा उसके वंश का विवरण सुनाते हैं । पश्चात अगले स्कंध में प्रियव्रत के वंश का वृतान्त सुनाएंगे।

मनु जी के उत्तानपाद नाम पुत्र की दो स्त्रियाँ थीं। एक का नाम सुनीति था। यद्यपि सुनीति रानी बड़ी थी परन्तु राजा उत्तानपाद को अपनी छोटी रानी सुरुचि से अधिक स्नेह था । इन दोनों रानियों के दो पुत्र थे, जो सुनीति का पुत्र ध्रुव था और सुरुचि का पुत्र उत्तम था। लगभग ये दोनों ही उम्र में बराबर थे किन्तु ध्रुव कुमार उत्तम से कुछ बड़ा था इसी कारण से ध्रुव ही युवराज पद का अधिकारी था।

एक दिन राजा उत्तानपाद की गोद में उत्तम कुमार बैठा हुआ था कि तभी खेलो हुये ध्रुव कुमार भी वहाँ आ पहुँचा वह ध्रुव कुमार भी अपने पिता उत्तानपाद की गोद में बैठने का उपक्रम करने लगा। तब वहाँ सुरुचि रानी भी उपस्थित थी जिसने सौतिया डाह के कारण ध्रुव को उत्तानपाद राजा की गोद से उतार कर अभिमान युक्त ऐसे बचन कहे। हे ध्रुव! तुम राजा की गोद में और राज सिंहासन पर बैठने के योग्य नहीं हो । क्योंकि तुम मेरी कोख से उत्पन्न नहीं हुये हो। यदि तुझे पिता की गोद और सिंहासन पर ही बैठना है तो पहले विष्णु भगवान को तपस्या कर उसके पश्चात मेरी कोख से जन्म लेना तब तू इस सिंहासन और पिता की गोद में बैठना । तब अपनी सौतेली माता सुरुचि के यह दुर्वचन सुनकर क्रोध से व्याकुल हो रोता रोता वह ध्रुव अपनी माता सुनीति के पास आया। जब पुत्र अपने पास लम्बी-लम्बी स्वाँस लेता रोता हुआ आता देखा तो सुनीति ने अपने पुत्र को अति स्नेह से दौड़कर अपनी गोद में उठा लिया। वह धुव के इस प्रकार विकल होने का कारण जनाना चाहती थी। तब नगर निवासियों से उसे अपनी सौति के द्वारा ध्रुव के साथ जो बर्ताव किया था और जो कुछ खोटे बचन कहे थे वह सब बताया। जिसे सुन कर सुनीति को अति दुख हुआ वो अपने नेत्रों से आँसू बहाने लगी और अपने पुत्र से इस प्रकार कहने लगी-हे पुत्र ! छोटी रानी सत्य ही कहती है। क्योंकि यदि तुमने पूर्व जन्म में नारायण की तपस्या की होती तो मेरी कोख से कभी जन्म नहीं लेता। जिस परमात्मा के चरणार विन्दों का ध्यान मोक्ष के लिये करते। यदि भी उन भगवान श्री नारायण जी का भजन करें तो अवश्य तुम भी उत्तम के समान पद को प्राप्त हो जाता। सो हे पुत्र! तू भगवान श्री नारायण का भजन ध्यान करे तो अवश्य तेरी अभिलाषा पूरी होगी। इस प्रकार अपनी माता के बचनों को सुनकर ध्रुव जी ने अपनी बुद्धि से क्रोध को रोककर मन को शांत किया और पुर को छोड़ वन की ओर भगवान श्री नारायण जी का भजन करने के लिये चल दिया।

मैत्रेयजी बोले-हे विदुर ! जब ध्रुव जी बन को चले तो नगर से बाहर निकलते ही ध्रुव की इच्छा को जान कर नारद जी आए। उन्होंने ध्रुव के सिर पर अपना पाप नाशक हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और इस प्रकार बोले-हे ध्रुव! कहाँ जाते हो, तब ध्रुव जी ने सारा वृतान्त कह सुनाया जिसे सुनकर नारदजी को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे कि क्षत्रियों में कितना अधिक स्वाभिमान और तेज होता है सो इस पाँच वर्ष के ध्रुव से साक्षात जाना जा सकता है। क्यों कि पाँच वर्ष का एक क्षत्रिय पुत्र अपनी सौतेली माता के कटु बचनों को सहन नहीं कर सका है, और बन में उन भगवान को खोजने जा रहा है कि जिन्हें शेष महेश योगी जी अनन्तकाल तक ध्यान धरते हैं तब भी बड़ी कठिनता से प्राप्त कर पाते हैं। ऐसा विचार आश्चर्य से कर नारद जी ने ध्रुव से इस प्रकार बचन कहे। हे ध्रुव ! अभी तुम बालक हो, खेलने की अवस्था है, और बालक को यदि कोई मान अपमान के वचन कहे तो उसे उसका बुरा नहीं मानना चाहिये। तुम जिस माता के कहने से परमात्मा को प्राप्त करने जाते हो, उस ईश्वर को मुनि लोग तीव्र योग साधन करने पर भी अनेकों जन्मों में खोज पाते हैं। अतः अपनी हठ त्याग कर घर को वापिस जाओ, क्योंकि तुम्हारा यह हठ निष्फल ही है। योग साधन का समय वृध्दावस्था होती है अतः उस आयु में यह प्रयत्न करोगे तो अवश्य ईश्वर को प्राप्त कर सकेंगे । अन्यथा इस अवस्था में उस ईश्वर को पाना तुम्हारे लिये अत्यन्त कठिन कार्य है ।

नारद जी के यह बचन सुन कर ध्रुव जी बोले-

दो०-दुख सुख से हत चित्त हो, जो नर करे निवास।
हितकर ये उपदेश है उनको करि विश्वास॥
किन्तु न मेरे चित्त ये, चढ़े आपका ज्ञान।
हूँ क्षत्री का बालक सह न सकूं अपमान ॥


सो हे वृह्मन ! मेरा हृदय मेरी विमाता के बचन रूपी बाणों से विधा पड़ा है। सो हे ब्रह्मा के प्रिय पुत्र नारद जी ! मुझे आप वह मार्ग बताइये जिससे मेरा यह मनोरथ कि त्रिभुवन के उत्तम पद को प्राप्त हो सकू वह मार्ग बताइये। आप ब्रह्मा के अंग से उत्पन्न हो अवश्य मुझे वह मार्ग बता सकते हो । वृथा आप मुझे उस मार्ग पर फंसाने का प्रयत्न मत कीजिये कि जिस संसारी मार्ग में अन्य पंचभूत से ग्रसित प्राणी भटकते फिरते हैं।

ध्रुव जी के इन दृढ़ बचनों को सुनकर नारदजी अति प्रसन्न हुये और बोले-हे राजकुमार । तुम्हारी माता ने तुम्हें जो मार्ग बतलाया है वह निश्चय ही तुम्हें मोक्ष का देने वाला है इस लिये भगवान वासुदेव से मिलाने वाले उस मार्ग पर चलकर भगवान वासुदेव के चरणारविन्द में मन लगाकर आराधना करो। हे पुत्र! इसलिये मैं तुम्हें वह मार्ग बताता हूँ जिसके द्वारा चलने पर तुम अवश्य उस भगवान नारायण को प्राप्त
कर सकते। हे पुत्र! सुनो


दोहा-यमुना तट एक अति पवित्र, है मधुवन शुभ धाम।
तहाँ विराजें निश दिवस, श्री कृष्ण घनश्याम।।


हे ध्रुव ! तुम उसी स्थान पर जाओ अर्थात यमुना तट पर मधुबन नामक क्षेत्र में जाय निवास करो। वहाँ नित्य यमुना जल से स्नान करके प्राणायाम विधि से मन के मेल को दूर करो। भगवान कृष्ण के मंगल स्वरूप का ध्यान करते हुये विद्वानों के अनुसार पूजन करके

द्वादशाक्षर मत्र-ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


का उच्चारण करके मंत्र स्वरूप भगवान का भजन करो। इस प्रकार उन भगवान श्री नारायण जी का काया वाणी, मन, निष्कपट भाव से भजन करने वाले पुरुष को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, इन चारों में से जो फल अवश्य नारायण जी की से प्राप्त होता है। तब नारद जी द्वारा शिक्षा प्राप्त कर ध्रुव जी ने नारद जी की परिक्रमा की और प्रणाम करके भगवान वासुदेव की भक्ति के निमित्त यमुना तट पर बसे मधुबन क्षेत्र की ओर चल दिये।


मैत्रेय जी बोले-हे बिदुरजी! ध्रुव जी तो बन में तप करने के लिये नारदजी की दीक्षा के अनुसार चले गये, और इधर नारद जी वहाँ से चलकर राजा उत्तानपाद के यहाँ राज्य भवन में पहुंचे। जहां राजा उत्तानपाद ने नारद जी को अध्यर् आदि दे सत्कार कर उच्च आसन पर स्नेह भक्ति से बिठाया। तब आसन पर विराजमान हो प्रसन्न मन हो नारदजी ने राजा से कहा-हे राजन आप इतने उदास क्यों हैं, क्या कोई विशेष कारण है जो इस प्रकार मुख सूख रहा है, कहीं आपके धर्म अर्थ काम का नाश तो नहीं हो गया है। तब नारदजी कहने लगे-हे मुने ! मैंने एक बड़ा भारी अपराध किया है, कि अपनी एक स्त्री तथा उसके पाँच वर्ष के पुत्र को घर से बाहर निकाल दिया है। सो वृह्मन वह महाज्ञानी बालक बन को चला गया है। इसी कारण से मेरा मन मलीन और अत्यन्त दुखी हो रहा है कि कहीं उस श्रम से थके भूख से मलिन हुये बालक को भेड़िया आदि न खा जायें।

तब नारदजी बोले- आप अपने उस पुत्र को चिन्ता मत करो, उसके तो भगवान हरि हर समय रक्षक हैं । शीघ्र ही वह ध्रुव नाम बालक लौट कर आयेगा । क्योंकि तुम राजमद अहंकार तथा स्त्री के वश होने के कारण यह बात नहीं जानते हो कि वह बालक ध्रुव जगत में बहुत ही होनहार बालक है। उसके प्रताप का यश शीघ्र ही सम्पूर्ण जगत में मिलेगा । वह ध्रुव उस तप में समर्थ होगा कि जिसको संपूर्ण लोक पाल भी समर्थ नहीं हैं, सो वह ध्रुव शीघ्र ही अपनी मनोकामना पूर्णकर आपके यश को बढ़ाता के द्वारा हुआ शीघ्र ही आवेगा।


मैत्रेय जी बोले-हे विदुर ! इस प्रकार राजा उत्तानपाद को जब नारद ने वृतान्त सनाया तो उसे कुछ धैर्य हुआ। नारदजी हरि गुनगान करते चले गये, और राजा अपनो स्त्री के वशीभूत होने का खेद करता हुआ ध्रुव की चिन्ता करने लगा।


इधर ध्रुव का वृतान्त सुनो कि बह जब नारद जी के बचन मानकर चला तो यमुना के तट पवित्र मधुबन क्षेत्र में आया, और यमुना के किनारे ही नित्य भगवान की पूजा कर तप करने लगे।

ध्रुव जी का तप वर्णन।।


ध्रुव ने पहिले महीने में प्रत्येक तीन रात के उपरान्त के थके फूल या वेर का भोजन करके अपने शरीर और अवस्था के अनुसार भगवान का पूजन करते हुये तप किया। फिर दूसरे महीने के छठवें दिन तृण आदि पत्तों का भोजन करता जो कि स्वयं ही पेड़ों से टूट कर गिर जाते थे। उन्हें खा कर भगवान का पूजन करके तप करने लगा। पश्चात तीसरे माह में नौ दिन पश्चात फल फूल का आहार करके भगवान का पूजन कर तप करने लगा। चौथे महीने में प्रत्येक बारहवें दिन में केवल पवन भक्षण करके ही भगवान का पूजन करते हुये तप करने लगा। तदनन्तर पांचवें महीने में ध्रुव ने स्वास को रोक कर एक पाँव से खड़े होकर तप करना आरम्भ कर दिया। तब धुरबजी परमेश्वर में ऐसे लीन हो गये कि उन्हें हर ओर श्री भगवान कृष्ण ही कृष्ण दिखाई पड़ने लगे। जब इस प्रकार का उग्र तपकर ध्रुव जी ने स्वाँस को भी रोक लिया तो समस्त पृथ्वी कॉपने लगी और प्राण तत्व रुक गये। तब देवता घर के तप तेज से भयभीत हो भगवान श्री नारायण की शरण में पहुंचे। वे प्रार्थना कर भगवान से कहने लगे- हमने अाज तक सम्पूर्ण प्राणियों के प्राण रुकना नहीं देखा था । हे शरणागत वत्सल ! इस आपत्ति से हमारा उद्धार कीजिये । तब श्री भगवान बोले-हे देवता! तुम इस प्रकार भय मत करो तुम्हारे भय का कारण राजा उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव है उसने अपने तप के द्वारा बिश्व रूप की एकता को प्राप्त होना चाहा है, सो तुम हर प्रकार उस ध्रुव नाम बालक को मनाने का प्रयत्न करो तो तुम्हें इस भय से छुटकारा मिलेगा।
WAY TO MOKSH🙏. Find the truthfulness in you, get the real you, power up yourself with divine blessings, dump all your sins...via... Shrimad Bhagwad Mahapuran🕉


विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]

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श्रीमद भागवद पुराण [introduction]


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• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]


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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]


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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]

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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]

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