ध्रुव को हरि दर्शन होना तथा अपने राज्य को प्राप्त होना।।अध्याय १० [स्कंध ४]
श्रीमद भागवद पुराण दसवां अध्याय [स्कंध ४]
(ध्रुव को हरि दर्शन होना तथा अपने राज्य को प्राप्त होना)
दो -हरि दर्शन से ध्रुव लियो, जैसे शुभ वरदान।
सौ दसवें अध्याय में, कीनी कथा व्खान।।
शुकदेव जी बोले-हे परीक्षित ! इस प्रकार ध्रुव कथा को सुनाते हुये मैत्रेय जी ने विदुर जी से कहा-हे विदुर ! भगवान श्री नारायण देवताओं को समझा कर स्वयं तो अंतर्ध्यान हो गये, और संपूर्ण देवता लोग हरि चर्चा करते हुये स्वर्ग लोक को चले गये। तब भगवान राम अपने लोक में विराजमान हो ध्रुव को देखने का विचार करने लगे। उन्होंने देवताओं के कष्ट को दूर करने के लिये अपने चतुर्भुज रूप से गरुड़ पर सवारी करके मधुवन में आये ध्रुव को दर्शन दिया। जब ध्रुव ने अपने हृदय में गरुड़ पर सवार हुये भगवान चतुर्भुज रूप नारायण का दर्शन किया तो वह अति प्रसन्न हुआ परन्तु अपनी समाधि को लगाये रखा। वह नेत्र बंद किये पर्वत समाधि लगाये भगवान गरुड़ध्वज के दर्शन करने लगा जब भगवान यह माना कि यह ध्रुव बालक इस प्रकार मेरे दर्शन करने पर भी अपनी समाधि न खोलेगा तो वे तुरन्त ध्रुव के हृदय से अंतर्ध्यान हो गये। जब ध्रुव ने अपने हृदय में श्री नारायण को न देखा तो वह चौंक पड़ा, और तुरन्त उसने अपने नेत्र खोल दिये। तब उसने अपने सामने साक्षात रूप में चतुर्भुज भगवान विष्णु को देखा । तब वह अति प्रसन्न हुआ और भगवान को अति विभोर हो प्रणाम किया। तब अनेक प्रकार से भगवान की स्तुति करता हुआ भगवान के दर्शन करने लगा। अनेक प्रकार स्तुति करता हुआ वह बालक ध्रुव भगवान को बारम्बार नमस्कार करने लगा। तब भगवान अति प्रसन्न हो ध्रुव जी से कहने लगे- हे राजकुमार! तुम्हारे हृदय के मनोरथ को मैं भली प्रकार जानता हूँ। सो है ध्रुव जी ! मैं तुम्हें वह मंगल पद प्रदान करता हूँ जो दूसरे को किसी दुख से भी नहीं मिला है। जिस ध्रुव स्थान को अब तक कोई भी नहीं जा सका, उस में गृह नक्षत्र तारा आदि ज्योतिष चक्र लगा हुआ है। जो कि त्रिलोकी के नाश होने पर भी विनाश को प्राप्त नहीं होता है। जो कि ऐसे स्थानों को धर्म, अग्नि, कश्यप, इंद्र, वनवासी मुनि, सप्तऋषि यह सब तारा रूप से परिक्रमा करते हुये उस स्थान के चारों ओर चक्कर लगाते हैं। मैं तुम्हें उसी ज्योतिष चक्र को मैंडी में लगे हये वृषभचक्र समान के स्थित के ऊपर कल्पवासियों ने कल्पना किया है। अब तुम अपने नगर को जाओ, अब तुम्हारा पिता तुम्हें राज्य देकर बन को चला जाएगा। तब तुम धर्म के अनुसार सारे भूमंडल पर छत्तीस हजार वर्ष तक एक छत्र राज्य करोगे। तुम्हारा भाई उत्तम जब शिकार खेलते समय वन में मृत्यु को प्राप्त होगा तब तुम्हारे उस भाई को देखन के लिये उसकी माता वन को जयेगी, और वहां अकस्मात अग्नि से वन में लग जाने से वह भी वहीं अपने प्राण त्याग देगी। तब तुम अनेक यज्ञ कर मेरा पूजन कर मुझे स्मरण करते हुये बहुत समय तक धरा पर राज्य करोगे। इस प्रकार भगवान विष्णु ध्रुव को अपना पद दिखाय वही से अंतर्ध्यान हो अपने लोक को चले गये। तब ध्रुवजी भी भगवान का दर्शन कर हरि वियोग से दुखी हो अपन नगर की ओर चल दिया। भवन से चल कर ध्रुव जी जब अपने नगर में पहुँचे तो एक दूत के द्वारा राजा उत्तानपाद को यह समाचार प्राप्त हुआ कि आपका कुमर ध्रुवआया है तब दूत द्वारा यह समाचार सुनने पर भी राजा को यह विश्वास न हुआ कि वास्तव में ध्रुव लौट कर आया है। क्योंकि उसके मन में तो यह विचार था कि बालक ध्रुव भगवान की तपस्या करने गया है सो वह इतनी शीघ्र भगवान के दर्शन किये बिना क्यों लौट आवेगा। जब राजा इस प्रकार विचार करता था, तभी महर्षि नारद जी आये। उसने राजा से कहा-हे राजन् ! दूत की बात सत्य है, ध्रुव अपना तप पूरा करके भगवान विष्णु के दर्शन कर ईश्वर की आज्ञानुसार हो यहाँ लौट कर आया है। सो अब तुम्हारा यहाँ बैठा रहना उचित नहीं है, शीघ्र ही आदर सहित अपने पुत्र को घर में ले आओ। नारद जी द्वारा ध्रुव जी का आगमन सुन राजा उत्तानपाद को विश्वास हो गया, वह अति प्रसन्न हुआ। उसने मोतियों को माला उस संदेश देने वाले दूत को उपहार में दी जब नगर की प्रजा ने यह सुना कि ध्रुव जी भगवान के दर्शन प्राप्त कर वापिस आये हैं, तो सभी नगर निवासी राजा के साथ आदर से ध्रुव जी को लिवाने के लिये चल दिये। उस समय राजा की दोनों रानियां भी पाल के में बैठ कर ध्रुव की अगवानी के लिये चलीं और साथ में उत्तम कुमार भी गया। जब उपवन के निकट ध्रुव जी को आते हुये राजा ने देखा तो वह भी अपने रथ से उतर पड़ा, और नंगे पाओं चल कर शीघ्र ही ध्रुव जी के निकट पहुँचा राजा के मन में अत्यंत उत्कन्ठा थी वह वेगपूर्ण श्वास लेता हुआ ध्रुव से भुजा पसार कर मिला। फिर अपने पुत्र के शिर को बारम्बार सूंघ कर अपने नेत्रों से निकलने वाले आँसुओं को शीतलता से भिगोकर स्नान कराया। ध्रुव जी ने प्रथम तो अपने पिता उत्तानपाद के चरण स्पर्श कर प्रणाम किमा, पश्चात सुरुचि माता के चरणों में शिर झुका कर तथा चरण स्पर्श कर प्रणाम किया। जिस पर सुरुचि ने ध्रुव को उठाकर हृदय से लगा लिया और कहा-हे पुत्र ! जुग-जुग जियो । ध्रुव ने कहा हे माता ! यह सब आपके ही कहने से प्राप्त हुआ है । तब अन्य सब आये हुये प्रजाजनों को भी यथायोग्य नमस्कार किया तब अपनी माता सुनीति के चरण स्पर्श कर प्रणाम किया। अपने पुत्र से मिलकर अपने हृदय को ताप को शांत किया, और उसके नेत्रों से प्रेमाश्ररूं बहने लगे। तथा कुचों से दूध टपकने लगा। उस समय सुनीति रानी की सब लोग बड़ाई करने लगे । कहते थे कि सुनीती का अहो भाग्य है जोकि बहुन दिन से गुप्त हुआ पुत्र फिर से प्राप्त हुआ है । तत्पश्चात उत्तम और ध्रुव परस्पर देह स्पर्श और हृदय से मिलन होने के कारण दोनों के नेत्रों से आँसुओं को धारा बहने लगी। फिर राजा ने धुरबजी तथा उत्तम कुमार को हाथी पर बिठाकर अपने पुर में प्रवेश किया। ध्रुव को मार्ग में देखकर नगर की सभी स्त्रियां सरसों, दही, अक्षत, फूल, फल दूध आदि वस्तुएं थालों में रख बिखेरती हुई धुरवजी के दर्शन करने को आई। वे मधुर गीत गाती और सुनीती की तथा धुरव की प्रशंसा करती थीं। जब नगर में आय ध्रुव जी ने प्रथम अपनी माता के घर में प्रवेश किया और सुख पूर्वक रहने लगे। धुरवजी के प्रभाव को कानों से सुन कर तथा आँखो से देखकर उत्तानपाद बहुत प्रसन्न हुए। कुछ समय बीत जाने पर एक दिन राजा उत्तानपाद ने अपने मन में विचार किया कि अब धुरव राज्य करने योग्य हो गया है सो अब हमें भी उचित हैं कि राज्य धुरव को देकर बन में जाय भजन करूं ऐसा विचार कर राजा ने अपने सांसदों के सामने यह विचार प्रगट किया, जिसका अनुमान सभी सभासदों ने किया । तब राजा ने शुभ मुहूर्त में एक दिन धुरव का राजतिलक कर सिंहासन पर बिठाया, और स्वयं कुछ दिन और रहने के उपरान्त बन में भगवान श्री हरि नारायण का भजन करने के लिए चला गया। राजा ध्रुव का ऐसा प्रभाव हुआ कि वह ऐसी राजनीति से राज्य करने लगा कि सम्पूर्ण प्रजा प्रसन्नता से रहने लगी उत्तम को ध्रुव ने राज्य काज का बहुत भार सौंपा रखा था। वह भी बड़ी प्रसन्नता के साथ धुरवजी के समस्त प्रदेशों का पालन किया करता था तथा राज्य के समस्त कार्यों को बड़ी तत्परता के साथ प्रजा हित के लिये किया करता था। एक दिन धुरव का छोटा भाई उत्तम अपने साथ सैनिक लेकर बन में शिकार खेलने के लिये गया। उस समय बन में भ्रमण करने के विचार से उसकी माता सुरुचि भी साथ में गई थी । वहाँ बन में वह हिमालय की ओर गया था, सो एक सुन्दर स्थान पर डेरा डाल लिया। सुरुचि को वही छोड़कर उत्तम अपने कुछ सैनिकों के साथ आखेट करने को आगे बढ़ चला गया। वह उस स्थान पर जा पहुंचे जहां पर कुवेर का बिहार स्थल था। वहाँ पर अनेकों यक्ष सैनिक रक्षा के लिये रहते थे। तब उस स्थल पर उत्तम के सैनिकों आदि ने मल मूत्र त्यागा जिसके कारण यक्ष रक्षकों ने उत्तम से उस स्थान में आने के लिये हटका। तब उत्तम ने भी उन्हें खरी-खोटी सुनाई जिससे यक्षों ने उत्तम पर आक्रमण कर दिया। यक्षों की संख्या हजारों लाखों की थी और उत्तम के साथ गिने चुने हजार पांच सौ ही सैनिक थे। जिस कारण से उस युद्ध में उत्तम के अनेकों सैनिक मर गये तथा उत्तम भी मारा गया। तब इधर तो उत्तम के साथ के कुछ सैनिक भाग कर धुरवजी के समीप आये और यक्षों के द्वारा उत्तम के वध का वृत।न्त कह सुनाया उधर सुरुचि ने जब उत्तम को कई दिन तक आया न देखा तो वह अपने पुत्र को देखने के लिये बन में खोज करती हुई अकेली ही कुछ सैनिकों को साथ लेकर चली गई। वहाँ वन में अनायास आग लग जाने के कारण सुरुचि की मृत्यु हो गई, और उसके साथ में जो दो चार अंग रक्षक गय थे उनमें से एक दो सैनिक बचकर आये। जिन्होंने ध्रुव जी को सुरुचि की मृत्यु का समाचार दिया। इधर उत्तम की मृत्यु का समाचार भी ध्रुव जी को प्राप्त हो चुका था। सो हे! विदुर ! धुरवजी ने अपने भाई उत्तम की मृत्यु का बदला लेने को निश्चय कर यक्ष की अल्कापुरी पर चढ़ाई करने का निश्चय कर लिया और कुवेर को जीत कर भाई का बदला लेना चाहा। ध्रुव जी ने अपनी सेना को तैयार कर हिमालय की ओर प्रस्थान किया और कुछ ही दिन में अलकापुरी को जा घेरा। तब महाबाहु ध्रुव ने अपना शंख बजाया, जिसकी ध्वनि सुनकर यक्षों का स्त्रियाँ अति भयभीत हुई। इधर इस शंख ध्वनि को सुन कर कुबेर के महा बलवान यक्ष सैनिक भी युद्ध के लिये तेयार हो गये। जिनमें उपदेव, महाभट, गुह्यक, राक्षस और गन्धर्व उस शंख ध्वनि को सहन न करके अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र ले धुरवजी से युद्ध करने के लिये अपनी उस हिमालय की गुफाओं में बसी अल्कापुरी से बाहर निकल आये। तब महारथी ध्रुव ने अपना धनुष हाथ में लेकर जितने यक्ष लड़ने को आये थे उन सब में एक ही साथ प्रत्येक में तीन-तीन वाण मारे । तो वो सब बाण उन यक्षों के मस्तकों में लगे। जिसे देखकर वे शत्रु यक्ष भी धुरवजी के इस शौर्य की प्रशंसा करने लगे। तब बल करके अति क्रोधित हो यक्षों ने भी धुरवजी के ऊपर अपने वाणों की वर्षा की जिसे धुरवजी ने अपने वाणों से विफल करके फिर एक साथ छः छै वाण साथ-साथ चलाये। अनन्तर मोह दण्ड, खंड, फांसी शूल, फरसा, शक्ति, तोमर,विचित्र परों वाले बाणों को वे यक्ष सैनिक अति क्रोध करके धुरवजी के समक्ष चलाने लगे एक लाख तीस हजार यक्षों ने धुरवजी के ऊपर एक साथ आक्रमण किया। इस प्रकार अस्त्र-शस्त्र और बाणों की झड़ी देखने को देवता लोग भी अपने विमानों में बैठ कर आ गये। उस समय विमानों पर चढ़कर युद्ध को देखने वाले सभी सिद्धिजन हा-हा कार करने लगे। तब धुरवजी ने अपने धनुष को नकारते हुये शस्त्र के समस्त छोड़े हुये अस्त्र-शस्त्रों को काट-काटकर धराशायी कर दिया। ध्रुव द्वारा छोड़े हुये बाण उन यक्षों के कबचों को तोड़-तोड़ कर उनके शरीर में घुसने लगे। जिससे अनेकों यक्ष धराशायी हो गये, और कुछ अपने प्राणों की रक्षा के लिये इधर-उधर छुपने तथा भागने लगे। उस समय हजारों मनुष्य तथा यक्ष आहत हुये रणभूमि में पड़े थे। अन्त में धुरवजी के सामने वे यक्ष युद्ध में न ठहर सके और अपने प्राण बचाने के लिये अपनी अलकापुरी की गुफाओं में जा जाकर छिप गये। जब संग्राम में ध्रुव के सामने एक भी यक्ष न रहा तो उन्होंने अपने सारथी से पूछा कि हे सारथी ! तेरी क्या इच्छा। है, मैं अल्कापुरी में जाऊ अथवा नहीं जाऊँ। तव धुरवजी के सारथी ने कहा-हे नाथ ऐसी भूल करने की इच्छा मत करो। यह यक्ष लोग बड़े मायावी होते हैं, अतः ऐसी भूल करने पर पछताना होगा। तब वे यक्षों द्वारा दूसरी बार आक्रमण करने की संभावना से और अपने सारथी के कहने को मान कर वहीं पर ठहरे रहे। यह इस प्रकार ठहरे हुये थे कि तभी अनायास समुद्र के शब्द के समान शब्द सुनाई देने लगा। सब दिशाओं से आँधी आने के समान धूल उड़ने लगी। बड़े वेग के साथ वायु बहने लगी, तत्पश्चात क्षण में ही सम्पूर्ण आकाश बनावटी मेघों से छा गया। जिसके कारण बहुत दूर-दूर तक उस स्थल में अंधेरा छा गया। सहसा बिजली चमकने, और बादलों के गरजने का भयानक शब्द हुआ तथा कुछ समय उपरान्त आकाश से रुधिर की धार, खकार आदि गन्दे पदार्थ पीव, विष्ठा, मूत्र, चर्बी, मांस आदि की वर्षा होने लगी। कभी हाड़, चाम तथा धड़, शिर भी बरसने लगे। पश्चात आकाश में एक बड़ा भारी पर्वत बन गया जिसमें से गदा,परिध, खड़ग, मूसल, तथा पत्थरों की घोर वर्षा होने लगी। अनेक प्रकार के सर्प बिच्छू ये सब बरसने लगे। तथा हाथी, शेर आदि हिंसक जीव चारों ओर से प्रकट हो धुरवजी की ओर बढ़ने लगे। कभी ऐसा प्रतीत होता मानो समुद्र प्रचंड लहरें लेता हुआ उमड़ कर समस्त पृथ्वी को डुबाता हुआ चला आ रहा है। यह क्रूर माया यक्षों ने दुख देने के लिए रची थी। जब धुरवजी को अति दुख दिखाने के लिए यक्षों ने यह अपनी घोर दुखदाई माया का प्रदर्शन किया तो उस दुस्तर माया से बचने के लिए धुरवजी को चेतावनी तथा प्रयत्न बताने के निमित्त सप्तऋषि वहाँ आए उन्होंने ध्रुव जी से कहा-हे धुरव यदि तुम इस यक्षों को दुस्तर माया से बचना चाहते हो तो भगवान विष्णु का स्मरण करो। तो सप्त ऋषियों का यह बचन मानकर ध्रुव जी ने आचमन कर अपने धनुष पर नारायण अस्त्र का संधान किया। तब उस नारायण अस्त्र का ध्रुव जी द्वारा धनुष पर संधान करते ही वह आसुरी माया क्षण-मात्र में नाश हो गई। उस नारायण अस्त्र के संधान से ध्रुव जी के धनुष में से हंसों के समान पंख वाले वाण निकल-निकल कर यक्षों को छेदने लगे। जिससे अनेकों यक्ष धराशायी होने लगे जो शेष रहते वह फिर ध्रुव जी के ऊपर अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर प्रहार करते तथा इधर-उधर दौड़ते थे। परन्तु क्षण-मात्र में ही वे लोग ध्रुव जी के वाणों से कटकर गिर जाते थे। जब बहुत यक्ष मारे गये और ध्रुव जी द्वारा यक्षों का अधिक विनाश होते देखा तो सप्त ऋषियों के सहित स्वायंभुव मनु आये और ध्रुव जी को यह उपदेश दिया कि, हे पुत्र ! बस करो, यह क्रोध नरक का द्वार है तथा पाप का रूप है, इस कारण तुम अपने क्रोध का त्याग करो जिस क्रोध के कारण तुमने इतने निरपराधी यक्षों को मारा है। हे पुत्र ! यह कर्म हमारे कुल के योग्य पुरुष-- तुम्हारे लिये नीमित नहीं है। हे भक्त-वत्सल ध्रुव! तुमने एक यक्ष के अपराध करने के कारण भाई की मृत्यु का बदला लेने के लिये दुखी होकर हजारों यक्षों को मार डाला है। सो हे ध्रुव! जो सज्जन साधु पुरुष भगवान श्री नारायण के भक्त हैं, उनको यह मार्ग नहीं है। इस तरह अनेक प्रकार से मनु जी ने ध्रुव जी को उपदेश किया। तब अपने पितामह मनु के कहने पर ध्रुव ने युद्ध बन्द कर दिया तथा उन्हीं के कहने पर कुबेर की स्तुति भी की। तब स्वयं कुवेर जी ने आकर ध्रुव जी से कहा-हे क्षत्रीय पुत्र! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। क्योंकि तुमने अपने पितामह के कहने से दुस्त्यज वैर-भाव को त्याग कर युद्ध को बन्द किया है। न तो तुमने यक्षों का वध किया है और न तुम्हारे भाई का यक्षों ने वध किया है। यह सब प्राणियों के जीवन मरण में काल ही समर्थ है। अब तुम मुझसे मन चाहा वर मांग लो। कुवेर न जब ध्रुव जी से वर मागने को कहा तो ध्रुव जी ने यह वर माँगा कि, हे कुबेरजी! श्री भगवान नारायण ने हमारी अविचल स्मृति बनी रहे। तब कुवेर जी ने ध्रुव जी को यह वरदान दिया और देखते ही देखते वहाँ से अन्तर्धान हो गये तब ध्रुव जी भी अपनी सेना को साथ लिए अपने नगर को लौट आए ।
विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
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श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
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• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
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