श्रीमद भगवद पुराण चौदहवाँ अध्याय[स्कंध४] (वेणु का राज्याभिषेक )
विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]
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*प्रभात दर्शन*
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तेरा संगी कोई नहीं
सब स्वारथ बंधी लोइ,
मन परतीति न उपजै
जीव बेसास न होइ।।
भावार्थ:- कोई किसी का साथी नहीं है, सब मनुष्य स्वार्थ में बंधे हुए हैं, जब तक इस बात की प्रतीति-भरोसा मन में उत्पन्न नहीं होता, तब तक आत्मा के प्रति विशवास जाग्रत नहीं होता। अर्थात वास्तविकता का ज्ञान न होने से मनुष्य संसार में रमा रहता है। जब संसार के सच को जान लेता है और इस स्वार्थमय सृष्टि को समझ लेता है, तब ही अंतरात्मा की ओर उन्मुख होकर भीतर झांकता है !
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श्रीमद भगवद पुराण चौदहवाँ अध्याय[स्कंध४]
(वेणु का राज्याभिषेक )
दोहा- अंग सुमन जिमि वेनु को, राज्य मिला ज्यों आय।
चौदहवें अध्याय में, दिया वृतांत वताय।।
मेत्रैय जी द्वारा जब वेनु के शरीर से पृथु जन्म को कहा तो विदुर जी ने पूछा हे ब्रह्मन् ! राजा वेनु के किस कारण से अंग ने अपना राज्य छोड़ा और चुप चाप बन को चला गया। फिर वेणु को ब्राह्मणों ने किस कारण से श्राप दिया पश्चात क्यों उसके हाथों को मथ कर पृथु को प्रकट किया सो यह सब वृतांत मुझे बिधि पूर्वक सुनाइए।
मैत्रेय जी बोले-हे विदुर ! एक समय राजा अंग ने अश्वमेध यज्ञ किया था। उस यज्ञ में जब वेद वादी ब्राह्मणों ने देवताओं का आवाहन किया तो कोई भी देवता नहीं आया । यह बात देख कर आश्चर्य में हो ऋत्वज ब्राम्हण ने राजा से कहा हे राजन् ! देवता लोग तुम्हारे हवन किये हुये शाकल्य को गृहण नहीं करते हैं। यद्यपि श्रद्धा पूर्वक समर्पण किये हुये हवि पदार्थ में किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है। साथ हो जिन वेद मंत्रों से हवन कराया गया है वे ही शक्ति हीन नहीं हैं। अवश्य यहाँ देवताओं का कोई अपराध बन पड़ा है जिसके कारण वे अपने भाग को को ग्रहण नहीं कर रहे हैं। ऋत्वजों को यह बात सुनकर राजा ने मौन व्रत को भंग कर उदास हो कहा-हे सभासदो! क्या कारण है, मेरा क्या दोष है जिसके कारण देवता लोग तुम्हारे भाग का आकर ग्रहण नहीं कर रहे हैं। सो हे सभासदो! यह बताओ कि मैंने ऐसा क्या अपराध किया है । सभासदों ने कहा हे नृप नाथ ! यह सब आपके पूर्व जन्म का पाप है। जिससे आप ऐसे प्रतापी राजा होते हुये भी पुत्र हीन हो । अतः जब तक पुत्र वान नहीं होगे तब तक देवता लोग यज्ञ में नहीं आएगे और न आपका दिया अन्न ही ग्रहण करेंगे। अतः आप अब कोई ऐसा उपाय कीजिए कि जिससे आपके पुत्र उत्पन्न होवे तब सांसद के कहने पर पुत्र प्राप्ती के लिए राजा अंग ब्राह्मणों द्वारा विष्णु भगवान के हेतु पुरोडोस नामक भाग का हवन करने लगा, तब इस हवन के करने से देवता स्वरूप स्वर्ण माला पहिने हाथ में कलश में क्षीर लिये यज्ञ में से एक पुरुष निकला, तब वह क्षीर स्वर्ण कलश सहित ब्राह्मणों के कहने से राजा ने अपने हाथों में लेली। तत्पश्चात उस क्षीर को राजा ने सूंघकर अपनी स्त्री को देदी। तब हे विदूर जी! अंग की रानी उस खीर को खाकर पति संग से गर्भवती हुई। समय पूर्ण होने पर रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया । वह पुत्र बाल्यकाल से ही अपने नाना के समान हुआ। शूद्रों के समान कुरूप वाला तथा हर प्रकार से जन्म कुन्डली आदि के प्रकार से अशुभ लक्षण वाला हुआ। हे विदुर ! अंग की रानी सुनीथी के पिता का नाम मृत्यु था और वह अधर्म के अंग से पैदा था। इसी कारण से वेनु सभी काम बालक पन से ही अधर्म को करने लगा। क्योंकि साथी ने जिस समय उस खीर को खाया था उस समय अपने पिता और नाना का ध्यान किया था। यही कारण था कि बह वेनु अपने नाना के समान हुआ था यद्यपि इसका नाम वेनु नहीं था यह तो प्रजा ने इसके अत्याचारों कारण रख दिया था क्योंकि यह बन में आखेट के लिये जाता तो निरअपराध जीवों को मारता और प्रजा को मारता तथा भारी कष्ट पहुँचाता था। इसी कारण से जनता ने ही इसका नाम बेन रख दिया था। अपने पुत्र वेनु के इन पाप कर्मों के कारण राजा अंग बहुत दुखी हुआ। वह बार-बार अपने पुत्र वेनू को ऐसे नीच पाप कर्म करने से रोकने के लिये समझाता था । परन्तु वेनु ने अपने पिता के लाख समझाने पर भी अपनी नीच प्रकृति के कारण यह पाप करम न छोड़ें । जब अंग के समझाने पर भी वेनु न माना तो राजा अंग अपने मन में बहुत दुखी हुआ । वह अपने मन में सोचने लगा कि ऐसी संतान से तो सन्तान का न होना ही भला है। जिन लोगों के संतान नहीं है वह इस प्रकार घर में क्लेश न भोग कर भगवान का भजन तो करते हैं। परन्तु यह दुष्ट संतान का होना तो महा दुखदाई है। इससे तो लोक में अति निंदा होती है। अतः ऐसे पुत्र का त्याग कर देना ही उत्तम है। परन्तु पुत्र का त्याग किस प्रकार किया जाए। अंत में राजा अंग ने यह निश्चय किया कि वह चुपचाप रात को घर छोड़ कर कहीं चला जाय, और भगवान का भजन करे। ऐसा विचार कर राजा को एक दिन, रात को किसी को भी बिना कुछ बताये घर से निकल कर चला गया। जब प्रातः होते यह बात मालूम हुई कि राजा ने जाने कहाँ से वैराग्य उत्पन्न होने के कारण चुप चाप घर छोड़ कर चला गया है। तो सभासदों तथा मंत्रियों आदि ने राजा की बहुत दूर-दूर तक खोज की परन्तु राजा का अनेक बार खोजने पर भी कहीं पता न चला । तब ब्राह्मणों ने रानी सुनीथा को बुलाय मंत्री व प्रजा की असम्मति होने पर भी वेनु को राज्य तिलक करके सिंहासन पर बिठा दिया। हे विदुर ! जब वेनु राजा हो गया तो चोरों को भी पूर्ण स्वतंत्रता हो गई वे दिन रात प्रजा को दुख देने लगे। इधर यह राजा वेनु भी मदान्ध हुआ प्रजा को कष्ट देने लगा। यहां तक कि उसने प्रजा में हवन आदि होना तथा ब्राम्हणों का दान आदि देना भी बन्द करा दिया पश्चात उसने यहाँ तक दुख देना आरंभ कर दिया कि महात्माओं का अपमान करने लगा तथा कोई दान न दे, तथा कोई ब्राह्मण हवन न करे, इस प्रकार धर्म का निवारण (हानि) होने लगा। राजा वेनु के इस आचरण को देख मुनि लोग एकत्र हो विचार करने लगे कि, बड़े खेद को बात है कि लोक को इधर तो चोरों के कारण दुख हो रहा है, और इधर राजा के कारण दुख हो रहा है। हमने सोचा था कि सत्संगति में यह राजा सुधर जायगा यह सोच कर ही इसे राजा बनाया था सो यही अब प्रजा का नाश करना चाहता है। चलें पहले एक बार इसे चल कर समझायें, यदि फिर भी न मानेगा तो इसे शाप देकर नष्ट कर देंगे। ऐसा विचार कर मुनि लोग वेनु के पास आय नीति से समझाने लगे हे नृप! हम आपसे वह बात कहते हैं जिससे आपकी आयु, लक्ष्मी, कीर्ति की वृद्धि हो। प्रजा का कल्याण रूप धर्म नष्ट नहीं होना चाहिये। क्योंकि धर्म के मुख से राजा राज्य हीन हो धर्म भ्रष्ट हो जाता है। अतः इस लोक और परलोक को सुखी बनाने के लिये राजा का कर्तव्य है कि वह चोर तथा भ्रष्ट मंत्री आदि से प्रजा की रक्षा करे देवताओं का अपमान कभी नहीं करना चाहिये । मुनियों की बात सुन राजा वेनु ने कहा-तुम लोग मूर्ख हो जो अधर्म को धर्म मान रहे हो। जो लोग मन रूपी राजा का अपमान करते हैं वे लोग यूहि लोक एवं परलोक में दुख पाते हैं यदि ऐसा नहीं है तो बताओ कि मुझे छोड़ कर वह यज्ञ पुरुष कौन है। सो हे मुनियो ! इसलिये हमारा कहना मान कर जो यज्ञ तप आदि करो हमारे लिए करो मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं है । वेनू के यह निरादर भरे बचन सुन मुनियों को अति क्रोध हुआ। उन्होंने कहा-पापी को मारो, यह दुराचारी राजा दुष्ट है जो यज्ञेश्वर भगवान की निन्दा करता है, यह राजा सिंहासन पर बैठने योग्य नहीं है। क्रोधित ऋषि लोगों ने वेनू को अपने हुँकार शब्द से मार डाला । जब मुनि लोग वेनु को मार कर चले गये तो वेनु की माता सुनीथा ने वेनु को मृतक देह को यत्न पूर्वक तेल में रखवा दिया। जब बहुत दिन पश्चात वे मुनि लोग सरस्वती नदी में स्नान कर अग्निहोत्र कर्म से निश्चंत हो भगवान की कथा वर्णन करते थे। उस समय जगत को भय देने वाले उत्पात दिखाई पड़े । तब मुनियों ने उत्पात को देख कर विचार किया कि पृथ्वी पर इस समय राजा नहीं हैं इसी कारण चोरों का उपद्रव से प्रजा में भारी मार पीट होनेलगी तब मुनियों ने विचार किया कि बिना राजा के प्रजा की रक्षा हम लोग किसी प्रकार भी नहीं कर सकते हैं । ऐसा विचार कर वे राजा की स्थापना करने का विचार करने लगे। तब राजा बनाना निश्चय कर नगर में आये और मृतक वेनु की देह को मॅँगाय उसकी जाँघ को मथने लगे। जिसमें से एक छोटा सा पुरुष कौआ के समान काला था। जो प्रकृति में भी अति कुरूप था। वह आदमी शिर झुकाए दीन के समान मुनियों के सामने आय हाथ जोड़़ कर बोला-हे मुनियो ! मुझे क्या आज्ञा है। मुनियों ने कहा-हे निषीध ! तू बैठ जा। हे विदुर ! निषेध कहने पर ही उस पुरुष के वन्शजों की निषाद जाति कहलाती। वे सब नगर से बाहर रहते थे। पश्चात मुनियों ने राजा मनु के दूसरे अंगों को मथ कर किसी अन्य पुरुष के उत्पन्न करने की इच्छा की।
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