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क्या आप जानते हैं कि... भारतीय एथेलेटिक्स टीम के साथ मॉन्ट्रियल ओलिंपिक (1976) में जाने के लिए टीम के कोच को अपना स्कूटर, अपना कीमती सामान बेचना पड़ा था। दोस्तों से उधार लेना पड़ा था...  
(74 वर्ष पुराना सरकारी जाला साफ करना ही होगा। भाग-5)  
भारत के इस महानतम एथलेटिक्स कोच की यह दर्दनाक शर्मनाक कहानी आप मित्रों को बताऊं उससे पहले यह जान लीजिए कि टोक्यो ओलिंपिक में नीरज चोपड़ा ने स्वर्णपदक क्यों जीता। तब आपको उस कोच की कहानी का मर्म पूरी तरह से समझ में आएगा।  
ध्यान रहे कि नीरज चोपड़ा ने 2016 में जब जूनियर विश्व रिकॉर्ड तोड़ा था उसके बाद से ही सरकार ने उनपर विशेष ध्यान दे दिया था। पिछले 5 सालों के दौरान नीरज चोपड़ा का लगभग पूरा समय समय विदेशों में प्रशिक्षण प्राप्त करते हुए ही व्यतीत हुआ है। उन को जेवलिन थ्रो के विश्व के सबसे महंगे और सर्वश्रेष्ठ कोचों क्लाउस बार्टोनिट्ज़, गैरी कैल्वर्ट, वर्नर डेनियल, की सेवाएं लगातार उपलब्ध कराई गईं हैं। 106 मीटर भाला फेंक कर एथलेटिक्स की दुनिया में किंवदंती बन चुके, जेवलिन थ्रो के दुनिया के सबसे महंगे कोच जर्मनी के उवे हॉन ही नीरज चोपड़ा के हेड कोच हैं। नीरज चोपड़ा ने 2018 से ही उनकी देखरेख में सर्वाधिक समय व्यतीत किया है। इसके अलावा उवे हॉन की टीम के सदस्य जेवलिन थ्रो के कोच तथा विश्वविख्यात बायोमैकेनिक्स विशेषज्ञ क्लाउस बार्टोनिट्ज़ टोक्यो ओलंपिक के दौरान नीरज चोपड़ा के साथ लगातार काम कर रहे थे। ऐसी संगत और मार्गदर्शन किसी खिलाड़ी को केवल तकनीकी रूप से ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी बहुत शक्तिशाली बना देता है। अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में निर्णायक क्षणों में खिलाड़ी की यह मानसिक शक्ति निर्णायक भूमिका का निर्वाह करती है। इनके अलावा नीरज चोपड़ा की प्रशिक्षण की तकनीकी भाषाई समस्या की बाधा दूर करने के लिए एक भारतीय कोच भी उनके साथ साये की तरह रहता था।  
पिछले 5 वर्षों के दौरान पूरी दुनिया में होने वाली विश्वस्तरीय अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में नीरज चोपड़ा को लगातार भेजा जाता रहा। परिणामस्वरूप नीरज चोपड़ा की लगन और परिश्रम का सर्वश्रेष्ठ स्वर्णिम परिणाम भी देश को मिला। (इसे समझने के लिए पोस्ट के पहले 2 कमेंट अवश्य देखिए।)  
हरियाणा के एक छोटे से गांव के मध्यमवर्गीय परिवार के पुत्र नीरज चोपड़ा के लिए यह सुविधाएं उपलब्ध करा पाना उनके परिवार के लिए असम्भव ही होता। नीरज चोपड़ा को जो सहायता सरकार से मिली उस सहायता से अतीत में वंचित रहे खिलाड़ियों को भी यदि ऐसी सहायता सुविधा मिली होती तो ओलिंपिक की एथलेटिक्स प्रतियोगिता में भारत को अब तक स्वर्ण समेत कई पदक मिल चुके होते। लेकिन ऐसा क्यों नहीं हुआ.? इसे समझने के लिए भारतीय एथलेटिक्स के महानतम कोच इलियास बाबर की यह व्यथा कथा जानिए।  
भारतीय सेना की राजपूताना रेजिमेंट में कार्यरत इलियास बाबर एथलेटिक कोच थे। अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में जाने वाली एथेलेटिक्स टीम के प्रशिक्षण के लिए NIS पटियाला में लगने वाले अल्पकालिक प्रशिक्षण शिविरों में वह टीम को प्रशिक्षण देते थे। मॉन्ट्रियल ओलिंपिक जाने वाली भारतीय टीम में 3 ऐसे खिलाड़ी शामिल थे जिनमें ओलिंपिक पदक जीतने की निश्चित संभावनाएं थी। इनमें 2 भारतीय सेना के खिलाड़ी थे। इन दोनों खिलाड़ियों को बाबर साहब ने सेना में अपनी देखरेख में तराशा था। इनके अलावा एक अन्य खिलाड़ी को पटियाला में लगे प्रशिक्षण शिविरों के दौरान वो प्रशिक्षित करते रहे थे। लेकिन मॉन्ट्रियल ओलिंपिक जाने वाली एथलेटिक्स टीम से बाबर साहब का नाम गायब था। अतः उन्होंने अपने पैसे से मॉन्ट्रियल जाने का फ़ैसला किया था। इसके लिए उन्होंने अपना कुछ कीमती सामान, अपना स्कूटर बेच डाला था पर पैसे पूरे नहीं हुए थे तो कुछ दोस्तों से उधार लेकर वो मॉन्ट्रियल पहुंचे थे। जबकि मॉन्ट्रियल गए उस भारतीय दल में सरकारी नौकरशाहों, भांति भांति की फेडरेशनों एसोसिएशनों के सफेद हाथियों की एक बड़ी फौज शामिल थी। सफेद हाथियों की उस फौज का खर्च सरकारी खजाने से ही लुटाया गया था।  
ऐसी तुगलकी सरकारी रीति नीति के चलते वह भारतीय एथेलेटिक्स टीम मॉन्ट्रियल ओलिंपिक से खाली हाथ वापस लौटी थी जिसे 2-3 पदक मिलने की संभावना शत प्रतिशत थी। अंत में उल्लेख कर दूं कि इलियास बाबर साहब को एशिया का सर्वश्रेष्ठ एथलेटिक्स कोच घोषित किया गया था। लेकिन साधन और सुविधाओं के अभाव में दुनिया का सबसे बेहतरीन कोच भी एक सीमा से आगे कुछ नहीं कर सकता। इलियास बाबर ने अपनी क्षमताओं के अनुरूप खिलाड़ियों को ओलिंपिक पदक जीतने की देहरी तक पहुंचा दिया था। लेकिन उस देहरी को पार करने के लिए उन्हीं साधनों और सुविधाओं की आवश्यकता होती है जो नीरज चोपड़ा को वर्तमान सरकार ने उपलब्ध करायी। अपना स्कूटर बेचकर मॉन्ट्रियल ओलिंपिक जाने वाले इलियास बाबर और ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले उनके मध्यमवर्गीय शिष्य एथलीटों के लिए ऐसे साधन और सुविधाएं केवल सपना ही बने रहे।  
कौन थे वो एथलीट जो आज से 45 साल पहले ही भारत के लिए ओलिंपिक पदक जीतने के द्वार पर पहुंच चुके थे,  उन्हें खाली हाथ वापस क्यों लौटना पड़ा.? इसका उल्लेख अगली पोस्ट में, जिसे पढ़कर जानकर आप क्रोध से उबल भी जाएंगे। अपना माथा भी पीट लेंगे।




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