पितृपक्ष
#पितृपक्ष
हिंदू संस्कृति संसार की एकमात्र संस्कृति है जिसमें न तो किसी को ऊँचा माना गया और न नीचा।
सभी जीव माता प्रकृति की समान संतान हैं और इसी भावना के अनुरूप हिन्दू धार्मिक कर्मकांडों में मानव समाज का ही नहीं बल्कि प्रत्येक जीव के कल्याण की कामना व प्रयत्न किये गए।
नाग जैसे खतरनाक जीव को नागपंचमी पर पूजने से लेकर पितृपक्ष में काकबलि के माध्यम से कौए जैसे निकृष्ट विष्ठाभोजी जीवों को पितृआत्मा को तृप्ति का माध्यम मानकर भोजन अर्पित करना इस सभ्यता को वह उदात्त स्वरूप प्रदान करता है जिसके नजदीक मानवता को अभी आना बाकी है।
जन्मनाजातिगतश्रेष्ठता के अंतर्गत किसी जाति विशेष को ऊँचा या नीचा मानने का मैं भी विरोधी हूँ लेकिन विशुद्ध 'जाति विद्वेष' में श्राद्धपक्ष के दौरान ब्राह्मणभोज के आधार पर मान्यताओं का मजाक उड़ाना और उनका विरोध करना गलत है।
चूँकि प्राचीनकाल में ब्राह्मण को स्ववरेण्य दरिद्रता में रहना था। अतः समाज ने प्रत्येक मांगलिक अवसर व धार्मिक पर्व पर ब्राह्मणों को भोजन, वस्त्र व दक्षिणा की व्यवस्था बनाई।
वर्तमान में चूंकि यह व्यवस्था अब नहीं है तो आप चाहें तो किसी सच्चरित्र विद्वान या दरिद्र को भोजन वस्त्र दे सकते हैं लेकिन पूरी परंपरा में केवल नकारात्मकता देखना और वैज्ञानिक पहलू देखने की 'हीन भावना' अंततः आपसे आपकी हर परंपरा, हर पहचान को छीन लेगी।
मेरे मित्र के अनुभव से एक उल्लेख।।
मुझे आज भी याद है कि पिताजी जो स्वयं संस्कृत के विद्वान हैं, एक परात में, तिल, शर्करा आदि मिश्रित कर कुशाग्र गुच्छ से जनेऊ को अंगुष्ठ में लेकर मंत्रों के साथ पितरों को तृप्त करते थे और मैं अपार कौतूहल से उन्हें देखता था।
मुझे इस क्रिया में इतनी निष्ठा थी कि एक दिन भगोने में इसी क्रिया की नकल कर रहा था और पिता हंस पड़े पर उन्होंने टोका नहीं कि पिता के जीवित रहते यह नहीं किया जाता क्योंकि बालमनोविज्ञान में दक्ष मेरे पिता जानते थे कि मेरा बालसुलभ विश्वास टूट जायेगा।
चूंकि दादाजी स्वर्गवासी थे अतः मेरे पास जानने का कोई माध्यम नहीं था कि उनतक जल पहुँचा या नहीं लेकिन जैसे ही पिता, 'मातृ' शब्द का उच्चारण करते, चौकन्ना मैं दौडकर दादी के पास जाता बिना ये जाने कि पिता मेरी दादी नहीं बल्कि अपनी दादी व अन्य मातृपूर्वजों को स्मरण कर रहे हैं और फिर मैं दादी को झकझोर कर पूछता,
"दादी अब प्यास तो नहीं लग रही?"
वह अपने पोपले मुँह से हँस पड़तीं और कहतीं-
"अब नहीं लग रही।"
मैं परम संतुष्ट होकर अगाध विश्वास के साथ फिर दत्तचित्त हो पूर्ण श्रद्धा के साथ निमीलित नेत्रों में पितरों का तर्पण कर रहे अपने पिता को निहारता।
एक बार दादी को मजाक सूझा और कह दिया,"ना, अभी भी प्यास लग रही है।"
मैं झटपट दौड़कर पिता के पास आया जो तर्पण पूर्ण कर चुके थे लेकिन मैं जिद पर अड़ गया कि उन्हें फिर से तर्पण करना चाहिए क्योंकि दादी को अभी भी प्यास लग रही है।
पिता ने बिना नानुच किये विधि को पुनः दुहराया।
आप सोचकर दिखिये इन चंद मिनिटों के निवेश से एक पिता ने क्या हासिल किया था जो संभवतः कई शास्त्रों के अध्ययन से भी प्राप्त न होता।
आप परंपराओं को पालन करें परम्पराएं आपकी हिंदू पहचान सुरक्षित रखेंगी वरना आप के यहाँ राम नहीं औरंगजेंब पैदा होंगे और आप शाहजहां बनकर दो बूँद पानी के लिए जीवित अवस्था में ही तरसेंगे।
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