A lot of cuisines to eat...still Indian roti at it's best. ....साधारण रोटी की महिमा।

A lot of cuisines to eat...still Indian roti at it's best. ....साधारण रोटी की महिमा।  

भारत के विशाल क्षेत्र में भोजन के साथ रोटी खाई जाती है। कई लोग इस "साधारण" से दिखने वाले व्यंजन को चपाती या फुलका भी कहते है। चाहे गेंहू के आटे का फुलका हो, चने की मिस्सी रोटी; जवार एवं बाजरे का रोटला;  मक्के एवं मड़ुआ की चपाती; या फिर बाटी या लिट्टी।  इन सभी की पाक विधि भी अत्यधिक सरल है; ताम-झाम से दूर।  बस आवश्यकतानुसार किसी भी अन्न का पिसा आटा लिया; उसे किसी बर्तन या केले के पत्ते पर पानी मिलाकर सान लिया। छोटे-छोटे गोले बनाएं। एक गोले को हथेली पर चपटाकर दोनों हथेलियों पे अल्टा-पलटा; मनचाही मोटाई एवं गोलाई वाली रोटी का आकार दिया।  फिर सीधे लकड़ी, कोयला या फिर कंडे की आग पर डाल दिया। आग पर एक-दो बार अल्टा-पलटा और रोटी-चपाती-फुलका-बाटी तैयार।  आधुनिक समय में चकला-बेलन, चिमटा, तवा, गैस इत्यादि के आगमन से रोटी बनाने में कुछ उपकरण जुड़ गए है।  लेकिन अगर कोई भी उपकरण ना हो, तो केवल पानी, आटा, बड़ा पत्ता एवं आग से काम चल जाता है।  आग से तुरंत निकली हुई उस रोटी पर घी-मक्खन लगाइये, या फिर सादी खाइए और खिलाइए।  साथ में 56 व्यंजन हो, या फिर कच्ची प्याज, हरी मिर्च हो, तब भी रोटी में वही स्वाद मिलेगा।  क्षेत्रानुसार रोटी कड़क हो सकती है; या फिर एकदम मुलायम। सतह पर अच्छी तरह से काले-भूरे गोले बने हो या फिर एक हल्का सा गुलाबी रंग। बीच में गर्म भाप भर जाए या फिर एकदम समतल रहे। क्षेत्र बदला; रूप-रंग बदला; आकर-प्रकार-स्वाद बदला। नहीं बदला तो बस बनाने की विधि।  दस हजार वर्ष  पहले जब कृषि का आविष्कार हुआ था, और हमारे पूर्वजों ने ज्वार-बाजरा-चना-गेहूँ इत्यादि की खेती की शुरुआत की, तब से भारतीय समाज में रोटी ऐसे ही बनाई और खाई जा रही है।  एक पल के लिए सोचिये।  सौ वर्ष पूर्व हमारे पूर्वज व्यापार, सामाजिक कार्य एवं उत्सव, युद्ध इत्यादि के लिए बैलगाड़ी, घोड़े या फिर तांगे पर निकलते थे। ना आधुनिक होटल, ना ही रेस्टोरेंट होते थे। जैसे ही सूर्यास्त होने को आया, वही डेरा डाल दिया। तब रोटी बनाने की यही साधारण सी तकनीकी उनको तृप्त रखती थी।  रोटी पर यह विचार इसलिए आया क्योंकि अभी पढ़ा कि टर्की में मंहगाई इतनी बढ़ गयी है कि वहां की सरकार को बनी-बनाई रोटियां बाजार भाव से अत्यधिक कम (सब्सिडी) दामों पर बेचना पड़ रहा है। सरकारी दुकानों से एक रोटी को लगभग सात रुपये में बेचा जा रहा है, जबकि बाजार भाव 25 रूपए है। ऐसी सरकारी दुकानों के बाहर प्रतिदिन लंबी लाइन लग रही है, जबकि प्राइवेट बेकरी वाले दिवालिया हुए जा रहे है।  कारण यह है कि गेंहू खाने वाले अधिकतर देशो में रोटी बनाने की प्रक्रिया थोड़ी भिन्न एवं जटिल है। इन देशो में मैदा के सने आटे में खमीर उठाया जाता है जिसमे कुछ घंटे से लेकर एक दिन तक लग सकता है। तद्पश्चात उस आटे को हाथ से लंबी-मोटी या फिर बड़े कटोरे जैसी ब्रेड या फिर तंदूरी रोटी से कुछ मोटी ब्रेड का आकार दिया जाता है।  कुछ घंटे फिर उस ब्रेड में खमीर उठने दिया जाता है। फिर उसे एक धधकते हुए तंदूर में, जिसमे तापमान 250 डिग्री सेल्सियस से अधिक मेंटेन रखा जाता है - उसमे कुछ मिनट से लेकर आधे घंटे तक ब्रेड को पकाया जाता है। ब्रेड निकलने के बाद उसे कुछ देर ठंडा होने देते है क्योकि गरम होने के कारण अंदर से ब्रेड अभी भी पक रही होती है।  तंदूर भी इतना बड़ा होता है जो आधुनिक फ्लैट के बाथरूम जितनी जगह ले लेता हैं। अधिक तापमान के लिए उसमे अत्यधिक लकड़ी, कोयला या फिर गैस की सप्लाई करनी पड़ती है।  फिर उस ब्रेड को बेचा जाता है।  चाहे खाड़ी के देश हो, यूरोप हो या अमेरिका, सभी जगह ब्रेड बाजार से खरीद कर खाई जाती है। प्रतिदन भोजन के समय ब्रैड को चाकू से काटकर या फिर हाथ से तोड़कर एक प्लेट में रख देते है और फिर उसे परोसा जाता है।  लेकिन इस जटिलता के कारण अधिकतर घरो में नियमित रूप से ब्रेड नहीं बनती है।  हमें अपने पूर्वजो की प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने रोटी पकाने की प्रक्रिया को इतना आसान रखा कि वह असाधारण रोटी हर घर में प्रतिदिन बनाई जाती है। परिवार के साथ दाल-भात-तरकारी के साथ खाई जाती है।  चाहे ईंट भट्टे पे या किसी निर्माण स्थल पर काम करने वाला मजूर हो, या मंदिर में भजन गा रहे भक्त, साधू-संत; छह ईंट जोड़कर एक साधारण से चूल्हे पर या कुछ कंडे जलाकर  वह प्रतिदिन ताज़ी रोटी बनाते है।  एक साधारण रोटी में भी सनातनी अंतर्दृष्टि व्याप्त है।



भारत के विशाल क्षेत्र में भोजन के साथ रोटी खाई जाती है। कई लोग इस "साधारण" से दिखने वाले व्यंजन को चपाती या फुलका भी कहते है। चाहे गेंहू के आटे का फुलका हो, चने की मिस्सी रोटी; जवार एवं बाजरे का रोटला;  मक्के एवं मड़ुआ की चपाती; या फिर बाटी या लिट्टी।

इन सभी की पाक विधि भी अत्यधिक सरल है; ताम-झाम से दूर।  बस आवश्यकतानुसार किसी भी अन्न का पिसा आटा लिया; उसे किसी बर्तन या केले के पत्ते पर पानी मिलाकर सान लिया। छोटे-छोटे गोले बनाएं। एक गोले को हथेली पर चपटाकर दोनों हथेलियों पे अल्टा-पलटा; मनचाही मोटाई एवं गोलाई वाली रोटी का आकार दिया।  फिर सीधे लकड़ी, कोयला या फिर कंडे की आग पर डाल दिया। आग पर एक-दो बार अल्टा-पलटा और रोटी-चपाती-फुलका-बाटी तैयार।

आधुनिक समय में चकला-बेलन, चिमटा, तवा, गैस इत्यादि के आगमन से रोटी बनाने में कुछ उपकरण जुड़ गए है।  लेकिन अगर कोई भी उपकरण ना हो, तो केवल पानी, आटा, बड़ा पत्ता एवं आग से काम चल जाता है।

आग से तुरंत निकली हुई उस रोटी पर घी-मक्खन लगाइये, या फिर सादी खाइए और खिलाइए।  साथ में 56 व्यंजन हो, या फिर कच्ची प्याज, हरी मिर्च हो, तब भी रोटी में वही स्वाद मिलेगा।

क्षेत्रानुसार रोटी कड़क हो सकती है; या फिर एकदम मुलायम। सतह पर अच्छी तरह से काले-भूरे गोले बने हो या फिर एक हल्का सा गुलाबी रंग। बीच में गर्म भाप भर जाए या फिर एकदम समतल रहे। क्षेत्र बदला; रूप-रंग बदला; आकर-प्रकार-स्वाद बदला। नहीं बदला तो बस बनाने की विधि।

दस हजार वर्ष  पहले जब कृषि का आविष्कार हुआ था, और हमारे पूर्वजों ने ज्वार-बाजरा-चना-गेहूँ इत्यादि की खेती की शुरुआत की, तब से भारतीय समाज में रोटी ऐसे ही बनाई और खाई जा रही है।

एक पल के लिए सोचिये।  सौ वर्ष पूर्व हमारे पूर्वज व्यापार, सामाजिक कार्य एवं उत्सव, युद्ध इत्यादि के लिए बैलगाड़ी, घोड़े या फिर तांगे पर निकलते थे। ना आधुनिक होटल, ना ही रेस्टोरेंट होते थे। जैसे ही सूर्यास्त होने को आया, वही डेरा डाल दिया। तब रोटी बनाने की यही साधारण सी तकनीकी उनको तृप्त रखती थी।

रोटी पर यह विचार इसलिए आया क्योंकि अभी पढ़ा कि टर्की में मंहगाई इतनी बढ़ गयी है कि वहां की सरकार को बनी-बनाई रोटियां बाजार भाव से अत्यधिक कम (सब्सिडी) दामों पर बेचना पड़ रहा है। सरकारी दुकानों से एक रोटी को लगभग सात रुपये में बेचा जा रहा है, जबकि बाजार भाव 25 रूपए है। ऐसी सरकारी दुकानों के बाहर प्रतिदिन लंबी लाइन लग रही है, जबकि प्राइवेट बेकरी वाले दिवालिया हुए जा रहे है।

कारण यह है कि गेंहू खाने वाले अधिकतर देशो में रोटी बनाने की प्रक्रिया थोड़ी भिन्न एवं जटिल है। इन देशो में मैदा के सने आटे में खमीर उठाया जाता है जिसमे कुछ घंटे से लेकर एक दिन तक लग सकता है। तद्पश्चात उस आटे को हाथ से लंबी-मोटी या फिर बड़े कटोरे जैसी ब्रेड या फिर तंदूरी रोटी से कुछ मोटी ब्रेड का आकार दिया जाता है।  कुछ घंटे फिर उस ब्रेड में खमीर उठने दिया जाता है। फिर उसे एक धधकते हुए तंदूर में, जिसमे तापमान 250 डिग्री सेल्सियस से अधिक मेंटेन रखा जाता है - उसमे कुछ मिनट से लेकर आधे घंटे तक ब्रेड को पकाया जाता है। ब्रेड निकलने के बाद उसे कुछ देर ठंडा होने देते है क्योकि गरम होने के कारण अंदर से ब्रेड अभी भी पक रही होती है।

तंदूर भी इतना बड़ा होता है जो आधुनिक फ्लैट के बाथरूम जितनी जगह ले लेता हैं। अधिक तापमान के लिए उसमे अत्यधिक लकड़ी, कोयला या फिर गैस की सप्लाई करनी पड़ती है।

फिर उस ब्रेड को बेचा जाता है।  चाहे खाड़ी के देश हो, यूरोप हो या अमेरिका, सभी जगह ब्रेड बाजार से खरीद कर खाई जाती है। प्रतिदन भोजन के समय ब्रैड को चाकू से काटकर या फिर हाथ से तोड़कर एक प्लेट में रख देते है और फिर उसे परोसा जाता है।

लेकिन इस जटिलता के कारण अधिकतर घरो में नियमित रूप से ब्रेड नहीं बनती है।

हमें अपने पूर्वजो की प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने रोटी पकाने की प्रक्रिया को इतना आसान रखा कि वह असाधारण रोटी हर घर में प्रतिदिन बनाई जाती है। परिवार के साथ दाल-भात-तरकारी के साथ खाई जाती है।

चाहे ईंट भट्टे पे या किसी निर्माण स्थल पर काम करने वाला मजूर हो, या मंदिर में भजन गा रहे भक्त, साधू-संत; छह ईंट जोड़कर एक साधारण से चूल्हे पर या कुछ कंडे जलाकर  वह प्रतिदिन ताज़ी रोटी बनाते है।

एक साधारण रोटी में भी सनातनी अंतर्दृष्टि व्याप्त है।



Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉 For queries mail us at: shrimadbhagwadpuran@gmail.com. Suggestions are welcome! Find the truthfulness in you, get the real you, power up yourself with divine blessings, dump all your sins...via... Shrimad Bhagwad Mahapuran🕉

Comments

Popular posts from this blog

Astonishing and unimaginable facts about Sanatana Dharma (Hinduism)

राम मंदिर उद्घाटन: 30 साल की चुप्पी के बाद 22 जनवरी को अयोध्या में प्रतिज्ञा समाप्त करेंगी सरस्वती अग्रवाल

PM Awaas yojna registration: यहाँ से करें शीघ्र आवेदन