स्वामी सूर्यदेव जी की वॉल से
वाह क्या प्रश्न पूछा है,,,
अभी सप्ताह भर #आगरा में रहकर आया,, अपना काम है जहां जाएं वहां सुबह शाम पार्क में, मंदिर में या अन्य सड़क चौराहे पर लोगो को #वेद उपनिषद शास्त्रों आयुर्वेद आदि के प्रसंग सुनाना और जिज्ञासाओं का समाधान करना,,
तो यहां आगरा में भी जहां रुका था वहां सुबह सुबह लोग घूमने आते थे फिर एक घण्टा सत्संग शंका समाधान चलता था,, एक #आर्यसमाजी भाई ने पूछा--महाराज जी समाज बिल्कुल बिगड़ नहीं गया है??अरे जहां दान देना चाहिए वहां देते नहीं जहां नहीं देना चाहिए वहां देते रहते हैं,, आपके क्या विचार हैं??
मैंने पूछा स्पष्ट करिए कहाँ देना चाहिए और नहीं देते??कहाँ नहीं देना चाहिए और देते हैं??
उसने कहा कि #वृद्धआश्रमों में,,अनाथालयों आदि में देना चाहिए वहां नहीं देते और मंदिर में नहीं देना चाहिए वहां देते हैं,,अरे भगवान खुद सबको खिलाने वाले हैं देने वाले हैं उनको भला हम क्या दे सकते हैं??
मैं तुरन्त समझ गया कि यह सवाल इसकी बुद्धि की उपज नहीं है,,यह किसी #वामपंथी लिबरल #कुबुद्धिजीवी कीड़े का प्रश्न है जो उसने लोगो के दिमाग में प्लांट कर दिया है जो इनके दिमाग में भी आ गया है,,क्योंकि आर्यसमाजी लोग प्रबुद्ध होते थे,,धर्म रक्षा शास्त्ररक्षा,,बेबूझ जटिल विषयों पर शास्त्रार्थ करके उनका हल निकालना समाज को हमेशा आगे बढ़ने,,शत्रु को पहचानने की प्रेरणा देना इस समाज का मुख्य काम था,, आजकल के आर्यसमाजियों की तरह गाली गलौज करना और मंदिर मूर्ति के घोर विरोधी हो जाना, ऐसा लीचड़पन पहले नहीं था।
मैंने फिर पूछा--अच्छा ये बताओ, ईनाम किसको मिलना चाहिए या सेवा किसकी होनी चाहिए??
उसने कहा--जो समाज को कुछ अच्छा दे,, कुछ अलग दे, जो देश धर्म का नाम ऊपर उठाए।
मैंने कहा इसी में आपका जवाब है--ये लोग जो वृद्ध आश्रमों में पड़े हैं,, इन्होंने समाज को #धर्म को,, राष्ट्र को क्या दिया,, एक सड़ी गली संतान,,जो सिर्फ खाना और हगना जानती है,, जिसने समाज को नया तो दिया लेकिन वह नया #वृद्धआश्रम है,, क्योंकि पहले सिर्फ ब्रह्मचर्य आश्रम,, ग्रहस्थ आश्रम,,वानप्रस्थ आश्रम सन्यास आश्रम,, ये चार आश्रम होते थे,, इनकी घटिया कीड़े मकोड़े जैसी संतानों ने समाज को पांचवा आश्रम दिया वृद्ध आश्रम,,
सवाल करने वाले ने सवाल बदला,, कहने लगा--इन्हें क्या पता था ऐसी दुष्ट संतान जन्म ले लेगी,,मैंने कहा--बहुत सही,, बच्चे बड़े हुए तब तो पता चला कि दुष्ट हैं,, तब क्यों जीवन भर की कमाई,, जमीनें, घर, गहने सबकुछ देकर चले आए समाज पर बोझ बनने??क्यों नहीं अपनी जमीन अपना घर अपनी कमाई अपने गहने जेवर किसी #गौशाला गुरुकुल या मंदिर को दान किए??
इस पर सवाल करता सिर हिला रहा था कि बात तो आपकी सही है,,
मैंने कहा--#आयुर्वेद में तीन तरह की चिकित्सा हैं,, युक्ति व्यपाश्रय,, औषध व्यपाश्रय,, #देवव्यपाश्रय,, यानी कोई पीड़ा हो कष्ट हो तो युक्ति से दूर करो,,जैसे गर्मी लग रही है तो पेड़ के नीचे बैठ जाओ या पंखा चला लो या नहा लो,, भूख लगी है तो कुछ खा लो भूख की पीड़ा मिट जाएगी,, मोटे हो तो कसरत करके पतले हो जाओ पतले हो तो अच्छे खानपान और कसरत से मजबूत शरीर बना लो ये युक्ति है,,
युक्ति से बात न बने तो #औषध की शरण में जाओ,, शारारिक या मानसिक कोई व्याधि है तो औषध लो,,
बहुत लोग ऐसे देखे हैं जो चेक करवाते करवाते मर जाते हैं लेकिन बीमारी का पता नहीं लगता, या पता लग गया तो जीवनभर #दवाइयां खाते खाते मरते हैं ठीक नहीं होते,, उनके लिए सबसे ऊंची चिकित्सा,, देव व्यपाश्रय,, #देवताओं की शरण में जाओ,,
इसलिए हजारों लाखों ऐसे लोग मिल जाएंगे जो कहीं ठीक नहीं हो रहे थे और किसी #मंदिर में देव से स्वास्थ्य या संतान या शांति मांगी और मिल गई,,
तो जब इन चीजों को प्राप्त करने के लिए तुम डॉक्टर को हजारों #लाखों दे सकते हो और तड़प तड़प कर मरते हो उससे अच्छी और ऊंची चिकित्सा पद्धति जिसमें जीवनभर ठीक होकर सुख भोगते हो,, वहां मंदिर में क्या लाखों करोड़ों नहीं देने चाहिए,, मेरे हिसाब से तो जरूर देने चाहिए,, इसीलिए तो अपने #पूर्वजों ने मंदिरों को देवताओं को लेकर बहुआयामी योजनाएं बनाई थी,,
मैंने फिर पूछा-अब तो नहीं कहोगे कहाँ देना चाहिए और कहां नहीं??पता चल गया होगा??
पूछने वाला इसपर भी संतुष्ट नजर आया,, कहने लगा कि महाराज जी ऐसे तो कभी सोचा ही नहीं,,,बच्चों को कम्युनिस्टों के #वामपंथियों के लिबरलो के एजेंडे से बचाएं,, यह भी देश धर्म की बड़ी सेवा है,,
अपनी संस्कृति अपना गौरव। *सूर्यदेव*