ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
#हम_ये_क्यूं_नहीं_कर_सकते_?
उपनिषद' में आया है-
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
यहाँ जिस पूर्ण की बात हो रही है उसमें ऋषि ईश्वर को देखता है पर मैं इस पूर्ण को 'हिंदुत्व' से निरूपित करता हूँ और मैं ऐसा इसलिये करता हूँ क्योंकि इस पूर्ण से कुछ भी जुड़ गया या इस पूर्ण से कुछ निकल गया तो भी इसका स्वरुप आज तक परिवर्तित नहीं हुआ। इस महासागर से न जाने कितने पंथ निकले, इसके अंदर से कितने मत चल पड़े, कम से कम छह दर्शन विकसित हुये पर इससे न तो इसका मूल स्वरुप बदला और न ही इससे निकलने वाले मत-पंथों और दर्शनों की मूल चिंतन में विकृति आई।
'हिंदुत्व' का मूल दर्शन क्या है? क्यों मैं इसे ही उपनिषद में प्रयुक्त "पूर्ण" के अंदर रखता हूँ? 'हिंदुत्व' का मूल दर्शन है कि 'हरेक रास्ता सत्य की ओर जाता है' और इन सारे रास्तों के समन्यवक का नाम है हिंदुत्व। इसलिये आस्था हमारे धर्म का आधार नहीं है, हमारे धर्म का आधार है 'अनुभूति', जो इसे सबसे अलग कर विशिष्ट बना देता है।
जिन लोगों ने अपने आँखों पर 'सेमेटिक दृष्टि' का चश्मा लगा रखा है उन्हें ये बात समझ नहीं आती। उन्हें लगता है कि बुद्ध आये, महावीर आये, नानक आये तो इन्होनें हिंदुत्व के एक हिस्से को काट दिया और इससे अलग हो गये। दोष इनका भी नहीं है, ईसा यहूदियों में सुधारक बन कर आये थे, इन्होनें उन्हें 'नया मजहब' लाने वाला कहकर सलीब दे दी। इसी आधार पर ये हिन्दू धर्म, बुद्ध-जैन मत और महावीर और बुद्ध आदि को भी देखतें हैं। इसलिये इनको आजतक ये समझ नहीं आया कि बुद्ध कोई नवीन धर्म प्रचारक नहीं थे बल्कि इसी "जितने राहें, उतने दर्शन" वाली हिंदुत्व की प्रयोगशाला के एक विद्यार्थी थे जिन्होनें मानव-मात्र की पीड़ा को दूर करने का रास्ता सुझाया और सूत्र हिंदुत्व से लिये।
स्वामी विवेकानंद ने इसी बात को स्पष्ट करते हुये 'शिकागो धर्मसभा' में कहा था कि "हिन्दू धर्म किसी सिद्धांत में आस्था रखने का प्रयास या संघर्ष नहीं है, बल्कि एक अनुभूति है, दर्शन है और दिव्य होना है"।
इसी दिव्यता की प्राप्ति कर पूर्ण होने की प्रक्रिया में अलग-अलग मत-पंथ हमारे यहाँ जन्में। सबसे अपनी समझ और अपनी रीति से अपने लिये आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग तलाशा। इसी प्रक्रिया में शैव, वैष्णव, शाक्त पूजा-पद्धतियाँ चल पड़ी, फिर बुद्ध और जैन मत चला और आगे जाकर इसी धारा से सिख, मीमांसा मत आदि बने। फिर आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, स्वामीनारायण सम्प्रदाय, बल्लाभाचार्यी, माध्वाचार्यी, निरंकारी आदि बने। अब इन मत और पंथों के श्रद्धा पुरुष अगर विश्व में कृति और यश प्राप्त करते हैं तो क्या वो पूर्ण हिंदुत्व को और पूर्ण नहीं करते? क्या उनकी चिंतना में कोई ऐसी विकृति आई जो इन्हें हिंदुत्व के बृहत आयाम से अलग करती हो? क्या इन्होनें कुछ ऐसा विशिष्ट तलाश किया जो हिंदुत्व के तने से निःसृत न होती हो? क्या इन्होनें अपने सम्प्रदाय में दीक्षित करने के लिये किसी के गले काटे? खून बहाया? माँ-बेटियों की इज्ज़तें लूटी?
अगर ये नहीं हुआ तो फिर इनको आपने हिंदुत्व की परिधि से अलग करके कैसे देख दिया?
बुद्ध कब हिंदुत्व की धारा से अलग हुये? तिब्बत की गुफाओं से होते हुये चीन के अंदर-अंदर से लेकर पूरा का पूरा दक्षिण-पूर्व एशिया और उधर अफगानिस्तान होते हुये अरब-स्थान तक पूरे मध्य-पूर्व में फ़ैली बुद्ध की प्रतिमायें, अलग-अलग स्तंभों पर उकेरे गये बुद्ध के उपदेश क्या हिंदुत्व के विचारों का ही प्रस्फुटन नहीं है? अगर नहीं है तो कोई इसे साबित करे। हिंदुत्व के शलाका पुरुष विनायक दामोदर सावरकर जब अपनी कालजयी कृति "मोपला" में ये लिखतें हैं कि "एक समय इसी भारत भूमि में बोधिवृक्ष की शीतल छाया तले बुद्धत्व प्राप्त करके गौतम ने अखिल विश्व के प्राणी के प्रति दया की भावना से द्रवित होकर इन्हीं शब्दों का उच्चारण किया था-
"भिक्षुओं ! जाओ दशों दिशाओं में जाओ, अमृतत्व का यह संदेश देकर भयतप्त जीवों को शांति प्रदान करो"तो क्या सावरकर सिद्धार्थ गौतम बुद्ध को हिंदुत्व के असीम वर्तुल से अलग करके देख रहे थे?
आपने हिंदुत्व की पूर्णता को समझा ही नहीं है, इसलिये आपको बुद्ध और हिंदुत्व अलग दिखतें हैं, हमने समझा है इसलिये हम बुद्धमत को हिंदुत्व की ही एक धारा मानते हैं और स्वीकार करतें हैं। इसलिये अगर हम बुद्ध का नाम लेते हैं तो एक तरह से हम हिंदुत्व का ही प्रचार करतें हैं।
हमारे जैसे सामान्य हिन्दू भी अपने बचपन से इसी भाव को आत्मसात करते आयें हैं, इस प्रार्थना के साथ:-
यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो च
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः ।
अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः
सोऽयं वो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ।।
"जिसकी उपासना शैव 'शिव' मानकर करते हैं । वेदान्ति जिसे 'ब्रह्म' मानकर उपासते हैं, बौद्ध जिसे 'बुद्ध' और तर्क-पटु नैयायिक जिसको 'कर्ता' मानकर आराधना करते हैं, एवं जैन लोग जिसे 'अर्हत' मानकर तथा मीमांसक जिसे 'कर्म' बताकर पूजते हैं, वही त्रयलोकी हरि हमको मनोवाञ्छित फल प्रदान करें।"
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