श्रीकील्हदेवजी महाराजका जीवन-चरित श्री भक्तमाल गाथा टीवी सीरियल भक्तों के चरित्र #श्रीनाभादासजीचरित्र


जिस प्रकार गंगाजीके पुत्र श्रीभीष्मपितामहजीको मृत्युने नष्ट नहीं किया, उसी प्रकार स्वामी श्रीकील्हदेवजी भी साधारण जीवोंकी तरह मृत्युके वशमें नहीं हुए, बल्कि उन्होंने अपनी इच्छासे प्राणोंका त्याग किया। कारण कि आपकी चित्तवृत्ति दिन-रात श्रीरामचन्द्रजीके चरणारविन्दोंका ध्यान करनेमें लगी रहती थी। आप मायाके षड्विकारोंपर विजय प्राप्त करनेवाले महान् शूरवीर थे। सदा भगवद्भजनके आनन्दमें मग्न रहते थे। सभी प्राणी आपको देखते ही नतमस्तक हो जाते थे और आप सभी प्राणियोंमें अपने इष्टदेवको देखकर उन्हें सिर झुकाते थे। सांख्यशास्त्र तथा योगका आपको सुदृढ़ ज्ञान था और योगकी क्रियाओंका आपको इतना सुन्दर अनुभव था कि जैसे हाथमें रखे आँवलेका होता है। ब्रह्मरन्ध्रके मार्गसे प्राणोंको निकालकर आपने शरीरका त्याग किया और अपने योगाभ्यासके बलसे भगवद्रूप पार्षदत्व प्राप्त किया। इस प्रकार श्रीसुमेरुदेवजीके सुपुत्र श्रीकील्हदेवजीने अपने पवित्र यशको पृथ्वीपर फैलाया, आप विश्वविख्यात सन्त हुए ॥ ४० ॥ 

जिस प्रकार गंगाजीके पुत्र श्रीभीष्मपितामहजीको मृत्युने नष्ट नहीं किया, उसी प्रकार स्वामी श्रीकील्हदेवजी भी साधारण जीवोंकी तरह मृत्युके वशमें नहीं हुए, बल्कि उन्होंने अपनी इच्छासे प्राणोंका त्याग किया। कारण कि आपकी चित्तवृत्ति दिन-रात श्रीरामचन्द्रजीके चरणारविन्दोंका ध्यान करनेमें लगी रहती थी। आप मायाके षड्विकारोंपर विजय प्राप्त करनेवाले महान् शूरवीर थे। सदा भगवद्भजनके आनन्दमें मग्न रहते थे। सभी प्राणी आपको देखते ही नतमस्तक हो जाते थे और आप सभी प्राणियोंमें अपने इष्टदेवको देखकर उन्हें सिर झुकाते थे। सांख्यशास्त्र तथा योगका आपको सुदृढ़ ज्ञान था और योगकी क्रियाओंका आपको इतना सुन्दर अनुभव था कि जैसे हाथमें रखे आँवलेका होता है। ब्रह्मरन्ध्रके मार्गसे प्राणोंको निकालकर आपने शरीरका त्याग किया और अपने योगाभ्यासके बलसे भगवद्रूप पार्षदत्व प्राप्त किया। इस प्रकार श्रीसुमेरुदेवजीके सुपुत्र श्रीकील्हदेवजीने अपने पवित्र यशको पृथ्वीपर फैलाया, आप विश्वविख्यात सन्त हुए ॥ ४० ॥   श्रीकील्हदेवजी महाराजका जीवन-चरित संक्षेपमें इस प्रकार है-   श्रीकील्हदेवजी महाराज श्रीपयहारी श्रीकृष्णदासजी महाराजके प्रधान शिष्योंमेंसे एक थे। श्रीपयहारीजीके परमधामगमनके बाद गलतागादी (जयपुर) के महन्त आप ही हुए। आप दिव्यदृष्टिसम्पन्न परम वैष्णव सिद्ध सन्त थे। कहते हैं कि भक्तमाल ग्रन्थके रचनाकार श्रीनाभादासजी महाराजके नेत्र क्या, नेत्रके चिह्न भी नहीं थे, श्रीकील्हदेवजीने अपने कमण्डलुके जलसे उनके नेत्र-स्थानको धुला, जिससे उनके बाह्य चक्षु प्रकट हो गये। कहते हैं कि एक बार श्रीकील्हदेवजी मथुरापुरी आये हुए थे और श्रीयमुनाजीमें स्नानकर एकान्तमें समाधिस्थ हो भगवद्ध्यान करने लगे। उसी समय बादशाहके दिल्लीसे मथुरा-आगमनकी सूचना मिली। सेना तुरंत व्यवस्थामें लग गयी, रास्ता साफ किया जाने लगा, सब लोग तो हट गये, परंतु ध्यानावस्थित होनेके कारण श्रीकील्हदेवजी महाराजको बाह्य जगत की कुछ खबर ही नहीं थी; वे समाधिमें स्थिर होकर बैठे थे। किसी सिपाही ने जाकर बादशाह को बताया कि हुजूर ! एक हिन्दूफकीर रास्तेमें बैठा है और हमारे शोर मचानेपर भी नहीं उठ रहा है। उसने फौरन हुक्म दिया कि उस काफिरके माथे में लोहे की कील ठोंक दो। हुक्म मिलते ही दुष्ट सिपाहियों ने लोहे की एक कील लेकर कील्हजीके माथेमें ठोंकना शुरू किया। परंतु आश्चर्य ! कील्हदेवजी तो वैसे ही शान्त, निर्विकार बने रहे, परंतु उनके माथेका स्पर्श  करते ही वह लोहेकी कील गलकर पानी हो गयी ! यह आश्चर्य देख सिपाही भागकर बादशाहके पास गये। बादशाहको भी यह विचित्र घटना सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ, उसे लगा कि मैंने बादशाहतके नशेमें चूर होकर किसी सिद्ध सन्तका अपमान कर दिया है और इसका दण्ड भी भोगना पड़ सकता है, अतः भागता हुआ जाकर श्रीकील्हदेवजी महाराजके चरणोंमें गिर पड़ा और बार-बार क्षमा माँगने लगा। थोड़ी देर बाद जब कील्हदेवजीकी समाधि टूटी और वे अन्तःजगत से बाह्य जगत् में आये तो उन्हें इस घटनाका ज्ञान हुआ। श्रीकील्हदेवजी महाराज तो परम सन्त थे, उनके मनमें क्रोधके लिये कहीं स्थान ही नहीं था, उन्होंने बादशाहको तुरंत क्षमा कर दिया। बादशाह यद्यपि श्रीकील्हदेवजी महाराजसे प्रभावित तो बहुत हुआ, परंतु मुसलमान मुल्ला-मौलवियोंके निरन्तर सम्पर्कमें रहनेसे उसने हिन्दुओंका धर्म परिवर्तनकर उन्हें मुसलमान बनानेका अभियान चला रखा था। अब हिन्दुओंने मिलकर श्रीकील्हजीकी शरण ली और धर्मरक्षा करनेकी प्रार्थना की। श्रीकील्हदेवजीने सबको आश्वासन दिया और स्वयं बादशाहके दरबारमें गये। बादशाहने श्रीकील्हदेवजीके चरणोंमें प्रणाम किया और आगेसे ऐसा न करनेकी शपथ ली। श्रीकील्हदेवजी महाराज दिव्यदृष्टिसम्पन्न थे, जिस समय आपके पिता श्रीसुमेरुदेवजीका भगवद्धामगमन हुआ, उस समय आप श्रीमथुराजीमें विराजमान थे और आपके समीप ही राजा मानसिंह बैठे थे। आपने जब आकाशमार्गसे विमानस्थ पिताजीको भगवद्धाम जाते देखा तो उठकर प्रणाम किया और पिताने भी इन्हें आशीर्वाद दिया। इनके अतिरिक्त अन्य किसीको इनके पिता नहीं दिखायी दिये, इसीलिये राजा मानसिंहको बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने श्रीकील्हजीसे पूछा कि प्रभो! आप क्यों उठे और हाथ जोड़कर किसे प्रणाम किया ? श्रीकील्हजीने उन्हें पिताजीके परमधामगमनकी बात बतायी। मानसिंहको बहुत आश्चर्य हुआ; क्योंकि श्रीकील्हदेवजीके पिताजीका शरीर छूटा था गुजरातमें और श्रीकील्हदेवजी थे मथुरामें-ऐसेमें श्रीकील्हदेवजीको पिताका दर्शन कैसे हुआ, यह मानसिंहके लिये आश्चर्यकी बात थी। उन्होंने तुरंत ही अपने दूतोंको गुजरात भेजकर सत्यताकी जानकारी की। श्रीकील्हदेवजीकी बात अक्षरशः सत्य प्रमाणित हुई, इससे राजा मानसिंहको इनपर बहुत ही श्रद्धा हो गयी। उनके संतत्वकी एक दूसरी घटना इस प्रकार है-एक बारकी बात है, आप अपने आराध्य प्रभु श्रीसीतारामजी महाराजकी सेवा कर रहे थे। आपने माला निकालनेके लिये पिटारीमें जैसे ही हाथ डाला, वैसे ही उसमें   श्रीकील्हदेवजी महाराज सिद्ध सन्त थे, भविष्यकी बातें जान लेनेकी उनमें सामर्थ्य थी। जब उन्हें भगवद्धाम जाना हुआ तो पहलेसे ही सन्तोंके पास इस आशयका सन्देश भेज दिया और सन्तोंसे संकीर्तन करनेको कहा। संकीर्तन सुनते हुए ही आपने ब्रह्मरन्धसे अपने प्राणोंका उत्क्रमण किया।


श्रीकील्हदेवजी महाराजका जीवन-चरित संक्षेपमें इस प्रकार है-


 श्रीकील्हदेवजी महाराज श्रीपयहारी श्रीकृष्णदासजी महाराजके प्रधान शिष्योंमेंसे एक थे। श्रीपयहारीजीके परमधामगमनके बाद गलतागादी (जयपुर) के महन्त आप ही हुए। आप दिव्यदृष्टिसम्पन्न परम वैष्णव सिद्ध सन्त थे। कहते हैं कि भक्तमाल ग्रन्थके रचनाकार श्रीनाभादासजी महाराजके नेत्र क्या, नेत्रके चिह्न भी नहीं थे, श्रीकील्हदेवजीने अपने कमण्डलुके जलसे उनके नेत्र-स्थानको धुला, जिससे उनके बाह्य चक्षु प्रकट हो गये। कहते हैं कि एक बार श्रीकील्हदेवजी मथुरापुरी आये हुए थे और श्रीयमुनाजीमें स्नानकर एकान्तमें समाधिस्थ हो भगवद्ध्यान करने लगे। उसी समय बादशाहके दिल्लीसे मथुरा-आगमनकी सूचना मिली। सेना तुरंत व्यवस्थामें लग गयी, रास्ता साफ किया जाने लगा, सब लोग तो हट गये, परंतु ध्यानावस्थित होनेके कारण श्रीकील्हदेवजी महाराजको बाह्य जगत की कुछ खबर ही नहीं थी; वे समाधिमें स्थिर होकर बैठे थे। किसी सिपाही ने जाकर बादशाह को बताया कि हुजूर ! एक हिन्दूफकीर रास्तेमें बैठा है और हमारे शोर मचानेपर भी नहीं उठ रहा है। उसने फौरन हुक्म दिया कि उस काफिरके माथे में लोहे की कील ठोंक दो। हुक्म मिलते ही दुष्ट सिपाहियों ने लोहे की एक कील लेकर कील्हजीके माथेमें ठोंकना शुरू किया। परंतु आश्चर्य ! कील्हदेवजी तो वैसे ही शान्त, निर्विकार बने रहे, परंतु उनके माथेका स्पर्श  करते ही वह लोहेकी कील गलकर पानी हो गयी ! यह आश्चर्य देख सिपाही भागकर बादशाहके पास गये। बादशाहको भी यह विचित्र घटना सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ, उसे लगा कि मैंने बादशाहतके नशेमें चूर होकर किसी सिद्ध सन्तका अपमान कर दिया है और इसका दण्ड भी भोगना पड़ सकता है, अतः भागता हुआ जाकर श्रीकील्हदेवजी महाराजके चरणोंमें गिर पड़ा और बार-बार क्षमा माँगने लगा। थोड़ी देर बाद जब कील्हदेवजीकी समाधि टूटी और वे अन्तःजगत से बाह्य जगत् में आये तो उन्हें इस घटनाका ज्ञान हुआ। श्रीकील्हदेवजी महाराज तो परम सन्त थे, उनके मनमें क्रोधके लिये कहीं स्थान ही नहीं था, उन्होंने बादशाहको तुरंत क्षमा कर दिया।

बादशाह यद्यपि श्रीकील्हदेवजी महाराजसे प्रभावित तो बहुत हुआ, परंतु मुसलमान मुल्ला-मौलवियोंके निरन्तर सम्पर्कमें रहनेसे उसने हिन्दुओंका धर्म परिवर्तनकर उन्हें मुसलमान बनानेका अभियान चला रखा था। अब हिन्दुओंने मिलकर श्रीकील्हजीकी शरण ली और धर्मरक्षा करनेकी प्रार्थना की। श्रीकील्हदेवजीने सबको आश्वासन दिया और स्वयं बादशाहके दरबारमें गये। बादशाहने श्रीकील्हदेवजीके चरणोंमें प्रणाम किया और आगेसे ऐसा न करनेकी शपथ ली। श्रीकील्हदेवजी महाराज दिव्यदृष्टिसम्पन्न थे, जिस समय आपके पिता श्रीसुमेरुदेवजीका भगवद्धामगमन हुआ, उस समय आप श्रीमथुराजीमें विराजमान थे और आपके समीप ही राजा मानसिंह बैठे थे। आपने जब आकाशमार्गसे विमानस्थ पिताजीको भगवद्धाम जाते देखा तो उठकर प्रणाम किया और पिताने भी इन्हें आशीर्वाद दिया। इनके अतिरिक्त अन्य किसीको इनके पिता नहीं दिखायी दिये, इसीलिये राजा मानसिंहको बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने श्रीकील्हजीसे पूछा कि प्रभो! आप क्यों उठे और हाथ जोड़कर किसे प्रणाम किया ? श्रीकील्हजीने उन्हें पिताजीके परमधामगमनकी बात बतायी। मानसिंहको बहुत आश्चर्य हुआ; क्योंकि श्रीकील्हदेवजीके पिताजीका शरीर छूटा था गुजरातमें और श्रीकील्हदेवजी थे मथुरामें-ऐसेमें श्रीकील्हदेवजीको पिताका दर्शन कैसे हुआ, यह मानसिंहके लिये आश्चर्यकी बात थी। उन्होंने तुरंत ही अपने दूतोंको गुजरात भेजकर सत्यताकी जानकारी की। श्रीकील्हदेवजीकी बात अक्षरशः सत्य प्रमाणित हुई, इससे राजा मानसिंहको इनपर बहुत ही श्रद्धा हो गयी। उनके संतत्वकी एक दूसरी घटना इस प्रकार है-एक बारकी बात है, आप अपने आराध्य प्रभु श्रीसीतारामजी महाराजकी सेवा कर रहे थे। आपने माला निकालनेके लिये पिटारीमें जैसे ही हाथ डाला, वैसे ही उसमें   श्रीकील्हदेवजी महाराज सिद्ध सन्त थे, भविष्यकी बातें जान लेनेकी उनमें सामर्थ्य थी। जब उन्हें भगवद्धाम जाना हुआ तो पहलेसे ही सन्तोंके पास इस आशयका सन्देश भेज दिया और सन्तोंसे संकीर्तन करनेको कहा। संकीर्तन सुनते हुए ही आपने ब्रह्मरन्धसे अपने प्राणोंका उत्क्रमण किया।




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