हिन्दू वेदनाओं की अंतहीन कथा।।

#हिन्दू_वेदनाओं_की_अंतहीन_कथा


मुझे यात्राओं से चिढ़ है और मंदिरों में दर्शनों के लिये लगी भीड़ मुझे कभी भी पसंद नहीं थी पर पिछले कुछ वर्षों से एक एहसास ने मुझे बदल कर रख दिया। अब न जाने क्यों मुझे लगता है कि हमारे जितने शक्ति-पीठ हैं, जितने ज्योतिर्लिंग हैं, जितने और दूसरे तीर्थ हैं मुझे उन सबका दर्शन करने के लिये अपने रिटायर होने और बूढ़े होने का इंतज़ार नहीं करना है बल्कि जल्द से जल्द उन सब जगहों पर माथा टेकना है। मुझे जल्दी इसलिये है कि कल शायद वो भी हमारी पहुँच से बहुत दूर हो जायेंगे।


ऐसा एहसास इसलिये नहीं है कि मैं किसी गहरे निराशावाद का शिकार हूँ बल्कि इसलिये है क्योंकि पिछले कुछ सौ वर्षों के अनुभव और इतिहास ने मुझे ऐसा बना दिया है। लगभग हर पचास-सौ सालों में टूटता और सिमटता भारत तथा भग्नावशेष में बदलते मंदिर इसी बात की गवाही दे रहे है।


भारतवर्ष का कटा-फटा मानचित्र देखकर मुझे जितनी पीड़ा होती है इसका बखान शायद शब्दों में कर पाना मेरे लिये असंभव है। ये पीड़ा तब और बढ़ जाती है जब मैं इन्टनेट पर कभी-कभी पाकिस्तान-अफगानिस्तान-मयांमार और बांग्लादेश घूमने चला जाता हूँ। यहाँ का हरेक शहर, हर नदी और हर पहाड़ मुझे एक अजीब से अपराध-बोध से ग्रस्त कर देता है कि लाखों सालों से हमारे पूर्वजों ने जिस भूमि के कण-कण को एक तीर्थ रूप में विकसित किया था उसे हम बदनसीब एक-एक कर अपनी आँखों के सामने पराया होते देखने पर विवश हैं। जिस भूमि के कण-कण को शंकर मानने का संस्कार हमें मिला था आज वो हमारे पास है ही नहीं।

हिन्दू-कुश पर्वतों से निकलकर पाकिस्तान के ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा इलाके में बहने वाली एक नदी है जिसका नाम है स्वात। इस स्वात नदी का वर्णन ऋग्वेद में सुवस्तु नाम से मिलता है। हिन्दुकुश पर्वतों से ही निकलने वाली एक नदी और है 'काबुल' जिसे वैदिक काल में कुभा कहा जाता था। कहने की जरूरत नहीं है कि वेदों में वर्णित ये नदियाँ अब हमारी नहीं हैं। कश्मीर और पंजाब में प्रवाहमान झेलम नदी वेदों में वितस्ता नाम से जानी गई है, यह नदी भारत और पाकिस्तान दोनों में 725 किलोमीटर तक बहती है और ये नदी जिस चेनाब नदी की सहायक नदी है उस चेनाब का पौराणिक नाम है चंद्रभागा। वही चंद्रभागा जिसके तट पर कृष्ण पुत्र सांब ने सूर्य की उपासना कर अपना कुष्ठ रोग ठीक किया था। ऐसी ही एक नदी है सतलुज जिसे वेदों में शतद्रु कहा गया है, जिस सिन्धु नदी के तट पर वेदों की पवित्र ऋचाएं गाई गयी थी उसका एक बड़ा हिस्सा आज हमारे पास नहीं है। महाभारत में वर्णित इरावदी नदी आज बर्मा की होकर हमसे अलग हो चुकी है जो कभी हमारी थी।


हमारे पास आज वो 'मूलस्थान' नहीं है जहाँ कृष्ण के पुत्र सांब ने भगवान सूर्य का एक विशाल मंदिर बनवाया था, क्योंकि अब वो मुल्तान हो चुका है और हम इतने बदनसीब कि उस मुल्तान शहर का नाम केवल इस वजह से जानतें हैं कि वीरेन्द्र सहवाग ने वहां तिहरा शतक जड़ा था। हमारे पास अब कुशपुर और लवपुर भी नहीं है जिसे भगवान राम के पुत्र कुश और लव ने बसाया था जो दुर्भाग्य से आज कसूर और लाहौर में परिणत हो गया है।

जब ये सब सोचने जाता हूँ तो दिल भर आता है कि क्या कभी मैं इस जन्म में या अगले जन्मों में हिंगलाज भवानी के दर्शनों को जा सकूँगा? क्या कभी हिंगोल नदी के जल को स्पर्श कर सकूँगा? क्या कभी ढाकेश्वरी देवी की संतानों को ये सौभाग्य मिलेगा कि वो अपनी माँ के दर्शन बिना वीजा-पासपोर्ट के कर सकेंगे? क्या हममें कभी कोई आदि शंकराचार्य जन्म लेगा जो कटासराज और मुल्तान के सूर्य मंदिर का उद्धार करे? वो दिन कब आयेगा जब शारदा-पीठ जाने के लिये हमें किसी कॉरिडोर के एहसान का रास्ता नहीं लेना पड़ेगा? क्या कभी हम सिंधु सागर में विलीन होती पवित्र सिन्धु नदी का मनोरम दृश्य किसी शाम सिन्धु सागर के तट पर बैठकर हम देख पायेंगे? क्या कभी वो दिन आयेगा जब दुनिया को अभय और शांति का आश्वासन देती बुद्ध प्रतिमाएं उसी प्रतिष्ठा के साथ बामियान में दिखाई देंगी?

लालकृष्ण आडवाणी जी को एकबार लद्दाख जाने का अवसर मिला था, जिस गेस्ट हाउस में वो ठहराये गये थे उसके पीछे उन्हें किसी नदी के बहने की कलकल ध्वनि सुनाई दी, आडवाणी जी ने पूछा कि ये कौन सी नदी है? जबाब मिला - "सिन्धु"

ये शब्द सुनते ही बिना जूता-चप्पल पहले और सुरक्षा की चिंता किये आडवाणी जी नंगे पांव सिन्धु की ओर दौड़ पड़े और जाकर उसके जल को प्रणाम किया।

नंगे पांव पवित्र सिन्धु नदी के जल के आचमन का जो सौभाग्य आडवाणी जी को मिला था उसी सौभाग्य की आकांक्षा हर हिन्दू को अपने हर तीर्थ, हर नदी और अतीत के हर चिन्ह से हो यही इस पोस्ट का हेतू है।


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