पुरंजन का स्त्रीत्व को प्राप्त होना तथा ज्ञानोदय में सुक्ति लाभ

देवी त्वं निर्मिता पूर्वमर्चितासि मुनीश्वरैः। नमो नमस्ते तुलसी पापं हर हरिप्रिये। जय श्री राम🙏   श्रीमद भागवद पुराण अध्याय २८ [स्कंध ४]  ( पुरंजन का स्त्रीत्व को प्राप्त होना तथा ज्ञानोदय में सुक्ति लाभ)  दोहा-भये पुरंजन नारि तब, नारि मोह वश आय । सो वर्णित कीनी कथा, अट्ठाईस अध्याय ।।   नारदजी बोले हे राजन् ! पीछे हम वर्णन कर चुके हैं कि मृत्यु ने नाग की बहिन बनकर पति पाने को कहा था सो वही मृत्यु नाम की कन्या प्रज्वर की सहायता से पुरंजन की नगरी में प्रवेश कर गई और उसने उसकी नगरी के सब दरवाजों को खोल दिया। तब उन फाटकों के खुलने से वे शत्रु सैनिक नगर में प्रवेश कर गये और प्रजा को अनेक प्रकार की पोड़ा पहुँचाने लगे। जब पुर जन ने अपनो नगरी की प्रजा को पीड़ित देखा तो वह अभिमानी पुरंजन राजा कुटुंब की ममता से व्याकुल होकर अनेक प्रकार के तापों से पीड़ित होने लगा । उस काल कन्या के संसर्ग से राजा पुरंजन अत्यन्त कांति हीन हो गया। जिसके कारण यवनों और गधर्वो ने राजा पुरंजन का सभी ऐश्वर्य हर लिया। उस अवस्था में राजा पुरंजन का साथ उसके पुत्र तथा स्त्री एवं पुत्रों ने भी छोड़ दिया। इस प्रकार राजा पुरंजन अपने आप को काल कन्या से ग्रसित और अपने उस पांचाल नगर को शवरओं द्वारा दुखित देख कर बड़ी चिन्ता में पड़ गया। परन्तु वह अपने उस दुख को दूर करने का कोई उपाय न मिला, जिससे वह उसका छुटकारा पा सकता। जब काल कन्या और गंर्धवो तथा यवनों के द्वारा उपद्रव करने को राजा पुरंजन सहन न कर सका तो उसने अपनी उस पांचाल नगरी को छोड़ दिया । तब भय के भाई प्रज्वार ने अपने भाई को सहायता करने के लिये आकर कि पुरंजन की पाँचाल नगरी को जला दिया । जब काल कन्या से घेरी हुई पुरंजन की पाँचाल नगरी के सब द्वार यवनो और गंधवों द्वारा रोके जाने पर प्रज्वार ने नगरी को आग लगा दी। तो पुर के वह लोग और कुटवियों और स्त्री तथा पुत्रों सहित पुरंजन विलाप करने लगा। तब नगरी के जलने के कारण उसकी रक्षा करने वाला नाग भी जलने लगा सो वह भी अपने-आप को बचाने के स्थ लिये नगरी से निकल कर भागने का प्रयत्न करने लगा । जब राजा पुरंजन अपनी कुमति से बंधा हुआ स्त्री पुत्रों के वियोग व्याकुल हुआ इस लोक को परित्याग करने लगा तो वह अपने मन में विचार करने लगा कि, जब मैं इस लोक को छोड़कर चला जाउँगा तो मेरे जाने के पश्चात् यह मेरी अनाथा पतिब्रता स्ती के अपने छोटे-छोटे बालकों के साथ किस प्रकार निर्वाह करेगी । इतने में जब पुरंजन ऐसा सोच करता था तभी यवन राज के यवन आकर पुरंजन को बाँधकर पशु के समान खींचते हुये अपने यवन राजा के घर की ओर चल दिये। उस समय पुरंजन के सभी कुटम्बी जन अति शोका कुल होकर हा हा कार करते हुये उसके पीछे-पीछे दौड़े। जब इधर यवनों तथा गंधर्वो ने पुरंजन की नगरी के रक्षक पाँच शिर वाले नाग को अत्यंत तंग किया और कष्ट पहुंचाया तो वह नाग भी उस नगरी को त्याग कर चल दिया। तब उस नाग के जाते ही वह नगरी नष्ट होकर पंच तत्वमयी हो गई जब वे यवन के दूत पुरंजन को बाँध कर धसीटते हुये ले जाते थे उस समय भी पुरंजन को अपने पूर्व मित्र अविज्ञात की यदि नहीं आई। जिन पशुओं को राजा पुरंजन ने अपने लोकिक सुख और अभिमान के वश यज्ञ आदि करने के निमित्त मारा था। उसी प्रकार उसी की सी निर्दयता की तरह पैने कुल्हाड़ों से पुरंजन को क्रोध पूर्वक देखते हुये काटने लगे। इस प्रकार सौ वर्ष तक नर्क भोग कर स्त्री में चित्त रखने के कारण वह राजा पुरंजन दुसरे जन्म में स्त्री का जन्म लेकर प्रकट हुआ। यह विदर्भ के राजा सिंह के घर जाकर कन्या हुआ। तब दक्षिण देश का प्रसिद्ध राजा जिसका नाम पाण्डव था वह सब राजाओं को युद्ध में जीत कर ले गया, ओर उसके साथ उसने अपना विवाह कर लिया उस समय पुरंजन का नाम वेदर्भी हुआ। राजा पाण्डव ने अपनी उस वेदर्भी नाम भार्या में एक मनोहर कन्या को उत्पन्न किया जो कमल के पत्रों के समान नेत्र वाली थी। इसके अतिरिक्त सात पुत्रों को उत्पन्न किया जो द्रविड़ देश के पालन करने वाले हुये । इन्हीं सात पुत्रों के पुत्रों आदि से कालान्तर में सारा मन्वन्तर भर गया राजा पाण्डव की कन्या का नाम श्यामा हुआ। उस श्यामा नाम कन्या का विवाह उसके पिता ने अगस्त्य मुनि के साथ कर दिया पुलस्त्य ऋषि ने उस श्यामा नाम वाली भार्या में हृढ़च्युत नाम का एक पुत्र उत्पन्न किया। उस हृढ़च्युत का इध्मवाह नाम का एक सुन्दर पुत्र हुआ तब राजा पाण्डव ने अपनी पृथ्वी के भाग करके अपने पुत्रों में बाँट दिया। तब स्वयं अपना परलोक सुधार ने के लिये भगवान की आराधना करने के लिये कुलाचल पर्वत पर गया जब राजा कुलाचल पर्वत पर जाने को हुआ तो उसकी वेदर्भी स्त्री भी सब का मोह बंधन तोड़ कर अपने पति के साथ चलने के लिये तैयार हो गई। तब वह राजा अपनी स्त्री को साथ से कुलाचल पर्वत पर हरि स्मरण करने का विचार ले पहुँवा। वहाँ पर चंद्रवसा, तामूनरणी, वटोदका नाम वाली गंभोर नदियाँ वह रही थी। उन नदियों के पवित्र जल में स्नान करके उन दोनों ने अंतः करण के मल को धो डाला। तब वह राजा कंद मूल फल आदि खाकर तप करने लगा वह राजा अपने तप के कारण सर्दी, गर्मी, वायू, वर्षा, क्षुधा, प्यास, प्रिय, अप्रिया, सुख, दुख, इन सब को जीत कर समदर्शी हो गया। जप तप, विद्या, यम, नियम, इन सबको करने से राजा ने अपनी सभी वासनाओं को भस्म कर दिया और इंद्रियाँ, पवन, अंतःकरण इन को वश में करके आत्मा को वृह्म रूप समझने लगा। पश्चात उसने सौ वर्ष तक खड़े होकर निरंतर ईश्वर का ध्यान करते हुये तप किया। भगवान वासुदेव में निरंतर अपनी सुदृढ़ लगन रखने के कारण राजा को अपनी देह आदि काभी कुछ ज्ञान नहीं रहा । है राजन। तब वह राजा आत्मा को परम बृह्म मानता हुआ अतः करण की वृत्ति रूप ज्ञान को भी त्याग कर जीवन मुक्त हो गया। इधर अपने पति की नित्य सेवा करने वाली पतिनी वेदर्भी जब अपने पति की सेवा करती रही और जब अपने पति के चरणों को स्पर्श किया तो उसे अपने पति के चरणों में गर्मी न मालुम हुई। तिस से उसने जाना कि वह अब पति हीन हो चुका है। सो वह अत्यंत सोच कर पति बिछोह के कारण विलाप कर रोने लगी। पश्चात उसने जंगल से काष्ठ एकत्रित करके चिता बना कर तैयार की और उसके ऊपर अपने पति की मृतक देह को रखा और स्वयं भी अपने पति के साथ भस्म होने के लिये चिता पर बैठ गई ।  नारद जी बोले-हे राजन् ! जिस समय वह वेदर्भी नाम वाली स्त्री जो कि पूर्व जन्म पुरंजन था वह चिता पर बैठी थी उस समय उसका पूर्व मित्र अविज्ञात उसके निकट आया । उसने कहा रोने वाली ! तू कौन स्त्री है और यह इस चिता पर सोने वाला कौन पुरुष है तथा तथा इस से तेरा क्या संबंध है? क्या तू मुझे जानती है कि मैं तेरा मित्र अविज्ञात हूँ, तूने श्रृष्टि के समय मुझ में स्थिर होकर नाना प्रकार के सुख भोगे थे। तू पंच महाभूत के जाल में फंस कर मुझे छोड़ कर पृथ्वी के सुख भोगों की इच्छा करके चला गया था। जब तू पृथ्वी पर सुख की कामना से विचरने गया था, तब तूने एक स्त्री तथा उसकी रची हुई नगरी जिस में पाँचवन¹ और नौद्वार² और उसका एक रक्षक³ तथा तीन कोट⁴, छ व्यापारी⁵ और पाँच हार्ट⁶ थी। ऐसी नगरी में जाकर उस नगरी की स्वामिन स्त्री का दास बन गया था उस स्त्री के उस वैभव के कारण ही मोह जाल में फंस कर उसके साथ रमण करता रहा जिसे कारण से हे मित्र ! तू अपने वास्तविक स्वरूप की स्मृति को भूल गया था। सो हे मित्र ! तेरी यह सब दशा उस स्त्री की संगति में फंसने के कारण से ही हुई है। पहले जन्म में तू अपने आपको पुरुष मानता था और इस जन्म में अपने आपको स्त्री समझता है सो वह सब तेरी इसी मोह माया में फैसने के कारण से हैं सो हे मित्र ! तू ऐसा मत समझ यह सब मेरे द्वारा रची हुई माया के कारण ही है हे मित्र हम तुम दोंनों मानसरोवर वासी हंस है मेरी माया के वश में होकर तू अपनी उड़ान को भूल गया है। ऐसा मत समझ जो मैं हूँ वही तू है तू मेरा ही प्रतिविब है । यह सब तू अविद्या के कारण से ही समझता है।   नारद जी समझाते हुये राजा प्राचीन वर्हि से कहते हैं कि हे राजन ! वह मित्र जो अविज्ञात के नाम वाला है वह ईश्वर है पुरंजन जीव है अर्थात् परमात्मा जीवात्मा से कहता है ऐसा समझना चाहिये। क्योंकि अविज्ञात के समझाने पर पुरंजन पुनः वृह्म को प्राप्त हुआ मानसरोवर जो कहा गया है वह हृदय को कहा गया है और स्वयं को तथा पुरंजन को अविज्ञत ने हंस कहा है सो जीव तथा परमात्मा को ही कहा है। हे राजा प्राचीन वर्हि ! इस प्रकार मेंने तुम्हें आत्म ज्ञान कराने के लिये ही राजा पुरंजन का उदाहरण रूप सुनाया है जिससे तुम्हें भगवान में भक्ति बढ़े और इस भवबंधन से मुक्त होने के लिये भक्ति उपाय कर सको। ༺═──────────────═༻ १-स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, शब्द। २-शरीर के नव छिन्द्र- २ नाक, २ आँख २ कान, १मुख, १ गुदा। ३.प्राण। ४-पृथ्वी, तेज, जल। ५-श्रोत, त्वचा, नेत्र, रसना। ६-हाथ, पाँव, वाणी, लिंग, गुदा।

देवी त्वं निर्मिता पूर्वमर्चितासि मुनीश्वरैः।

नमो नमस्ते तुलसी पापं हर हरिप्रिये।

जय श्री राम🙏



श्रीमद भागवद पुराण अध्याय २८ [स्कंध ४]

( पुरंजन का स्त्रीत्व को प्राप्त होना तथा ज्ञानोदय में सुक्ति लाभ)

दोहा-भये पुरंजन नारि तब, नारि मोह वश आय ।

सो वर्णित कीनी कथा, अट्ठाईस अध्याय ।।

नारदजी बोले हे राजन् ! पीछे हम वर्णन कर चुके हैं कि मृत्यु ने नाग की बहिन बनकर पति पाने को कहा था सो वही मृत्यु नाम की कन्या प्रज्वर की सहायता से पुरंजन की नगरी में प्रवेश कर गई और उसने उसकी नगरी के सब दरवाजों को खोल दिया। तब उन फाटकों के खुलने से वे शत्रु सैनिक नगर में प्रवेश कर गये और प्रजा को अनेक प्रकार की पोड़ा पहुँचाने लगे। जब पुर जन ने अपनो नगरी की प्रजा को पीड़ित देखा तो वह अभिमानी पुरंजन राजा कुटुंब की ममता से व्याकुल होकर अनेक प्रकार के तापों से पीड़ित होने लगा । उस काल कन्या के संसर्ग से राजा पुरंजन अत्यन्त कांति हीन हो गया। जिसके कारण यवनों और गधर्वो ने राजा पुरंजन का सभी ऐश्वर्य हर लिया। उस अवस्था में राजा पुरंजन का साथ उसके पुत्र तथा स्त्री एवं पुत्रों ने भी छोड़ दिया। इस प्रकार राजा पुरंजन अपने आप को काल कन्या से ग्रसित और अपने उस पांचाल नगर को शवरओं द्वारा दुखित देख कर बड़ी चिन्ता में पड़ गया। परन्तु वह अपने उस दुख को दूर करने का कोई उपाय न मिला, जिससे वह उसका छुटकारा पा सकता। जब काल कन्या और गंर्धवो तथा यवनों के द्वारा उपद्रव करने को राजा पुरंजन सहन न कर सका तो उसने अपनी उस पांचाल नगरी को छोड़ दिया । तब भय के भाई प्रज्वार ने अपने भाई को सहायता करने के लिये आकर कि पुरंजन की पाँचाल नगरी को जला दिया । जब काल कन्या से घेरी हुई पुरंजन की पाँचाल नगरी के सब द्वार यवनो और गंधवों द्वारा रोके जाने पर प्रज्वार ने नगरी को आग लगा दी। तो पुर के वह लोग और कुटवियों और स्त्री तथा पुत्रों सहित पुरंजन विलाप करने लगा। 







नरसिंह भगवान का अंतर्ध्यान होना।। मय दानव की कहानी।।



सनातन धर्म तथा सभी वर्ण आश्रमों का नारद मुनि द्वारा सम्पूर्ण वखान।।


महा भक्त प्रह्लाद की कथा।। भाग १







तब नगरी के जलने के कारण उसकी रक्षा करने वाला नाग भी जलने लगा सो वह भी अपने-आप को बचाने के स्थ लिये नगरी से निकल कर भागने का प्रयत्न करने लगा । जब राजा पुरंजन अपनी कुमति से बंधा हुआ स्त्री पुत्रों के वियोग व्याकुल हुआ इस लोक को परित्याग करने लगा तो वह अपने मन में विचार करने लगा कि, जब मैं इस लोक को छोड़कर चला जाउँगा तो मेरे जाने के पश्चात् यह मेरी अनाथा पतिब्रता स्ती के अपने छोटे-छोटे बालकों के साथ किस प्रकार निर्वाह करेगी । इतने में जब पुरंजन ऐसा सोच करता था तभी यवन राज के यवन आकर पुरंजन को बाँधकर पशु के समान खींचते हुये अपने यवन राजा के घर की ओर चल दिये। उस समय पुरंजन के सभी कुटम्बी जन अति शोका कुल होकर हा हा कार करते हुये उसके पीछे-पीछे दौड़े। जब इधर यवनों तथा गंधर्वो ने पुरंजन की नगरी के रक्षक पाँच शिर वाले नाग को अत्यंत तंग किया और कष्ट पहुंचाया तो वह नाग भी उस नगरी को त्याग कर चल दिया। तब उस नाग के जाते ही वह नगरी नष्ट होकर पंच तत्वमयी हो गई जब वे यवन के दूत पुरंजन को बाँध कर धसीटते हुये ले जाते थे उस समय भी पुरंजन को अपने पूर्व मित्र अविज्ञात की यदि नहीं आई। जिन पशुओं को राजा पुरंजन ने अपने लोकिक सुख और अभिमान के वश यज्ञ आदि करने के निमित्त मारा था। उसी प्रकार उसी की सी निर्दयता की तरह पैने कुल्हाड़ों से पुरंजन को क्रोध पूर्वक देखते हुये काटने लगे। इस प्रकार सौ वर्ष तक नर्क भोग कर स्त्री में चित्त रखने के कारण वह राजा पुरंजन दुसरे जन्म में स्त्री का जन्म लेकर प्रकट हुआ। यह विदर्भ के राजा सिंह के घर जाकर कन्या हुआ। तब दक्षिण देश का प्रसिद्ध राजा जिसका नाम पाण्डव था वह सब राजाओं को युद्ध में जीत कर ले गया, ओर उसके साथ उसने अपना विवाह कर लिया उस समय पुरंजन का नाम वेदर्भी हुआ। राजा पाण्डव ने अपनी उस वेदर्भी नाम भार्या में एक मनोहर कन्या को उत्पन्न किया जो कमल के पत्रों के समान नेत्र वाली थी। इसके अतिरिक्त सात पुत्रों को उत्पन्न किया जो द्रविड़ देश के पालन करने वाले हुये । इन्हीं सात पुत्रों के पुत्रों आदि से कालान्तर में सारा मन्वन्तर भर गया राजा पाण्डव की कन्या का नाम श्यामा हुआ। उस श्यामा नाम कन्या का विवाह उसके पिता ने अगस्त्य मुनि के साथ कर दिया पुलस्त्य ऋषि ने उस श्यामा नाम वाली भार्या में हृढ़च्युत नाम का एक पुत्र उत्पन्न किया। उस हृढ़च्युत का इध्मवाह नाम का एक सुन्दर पुत्र हुआ तब राजा पाण्डव ने अपनी पृथ्वी के भाग करके अपने पुत्रों में बाँट दिया। तब स्वयं अपना परलोक सुधार ने के लिये भगवान की आराधना करने के लिये कुलाचल पर्वत पर गया जब राजा कुलाचल पर्वत पर जाने को हुआ तो उसकी वेदर्भी स्त्री भी सब का मोह बंधन तोड़ कर अपने पति के साथ चलने के लिये तैयार हो गई। तब वह राजा अपनी स्त्री को साथ से कुलाचल पर्वत पर हरि स्मरण करने का विचार ले पहुँवा। वहाँ पर चंद्रवसा, तामूनरणी, वटोदका नाम वाली गंभोर नदियाँ वह रही थी। उन नदियों के पवित्र जल में स्नान करके उन दोनों ने अंतः करण के मल को धो डाला। तब वह राजा कंद मूल फल आदि खाकर तप करने लगा वह राजा अपने तप के कारण सर्दी, गर्मी, वायू, वर्षा, क्षुधा, प्यास, प्रिय, अप्रिया, सुख, दुख, इन सब को जीत कर समदर्शी हो गया। जप तप, विद्या, यम, नियम, इन सबको करने से राजा ने अपनी सभी वासनाओं को भस्म कर दिया और इंद्रियाँ, पवन, अंतःकरण इन को वश में करके आत्मा को वृह्म रूप समझने लगा। पश्चात उसने सौ वर्ष तक खड़े होकर निरंतर ईश्वर का ध्यान करते हुये तप किया। भगवान वासुदेव में निरंतर अपनी सुदृढ़ लगन रखने के कारण राजा को अपनी देह आदि काभी कुछ ज्ञान नहीं रहा । है राजन। तब वह राजा आत्मा को परम बृह्म मानता हुआ अतः करण की वृत्ति रूप ज्ञान को भी त्याग कर जीवन मुक्त हो गया। इधर अपने पति की नित्य सेवा करने वाली पतिनी वेदर्भी जब अपने पति की सेवा करती रही और जब अपने पति के चरणों को स्पर्श किया तो उसे अपने पति के चरणों में गर्मी न मालुम हुई। तिस से उसने जाना कि वह अब पति हीन हो चुका है। सो वह अत्यंत सोच कर पति बिछोह के कारण विलाप कर रोने लगी। पश्चात उसने जंगल से काष्ठ एकत्रित करके चिता बना कर तैयार की और उसके ऊपर अपने पति की मृतक देह को रखा और स्वयं भी अपने पति के साथ भस्म होने के लिये चिता पर बैठ गई ।

नारद जी बोले-हे राजन् ! जिस समय वह वेदर्भी नाम वाली स्त्री जो कि पूर्व जन्म पुरंजन था वह चिता पर बैठी थी उस समय उसका पूर्व मित्र अविज्ञात उसके निकट आया । उसने कहा रोने वाली ! तू कौन स्त्री है और यह इस चिता पर सोने वाला कौन पुरुष है तथा तथा इस से तेरा क्या संबंध है? क्या तू मुझे जानती है कि मैं तेरा मित्र अविज्ञात हूँ, तूने श्रृष्टि के समय मुझ में स्थिर होकर नाना प्रकार के सुख भोगे थे। तू पंच महाभूत के जाल में फंस कर मुझे छोड़ कर पृथ्वी के सुख भोगों की इच्छा करके चला गया था। जब तू पृथ्वी पर सुख की कामना से विचरने गया था, तब तूने एक स्त्री तथा उसकी रची हुई नगरी जिस में पाँचवन¹ और नौद्वार² और उसका एक रक्षक³ तथा तीन कोट⁴, छ व्यापारी⁵ और पाँच हार्ट⁶ थी। ऐसी नगरी में जाकर उस नगरी की स्वामिन स्त्री का दास बन गया था उस स्त्री के उस वैभव के कारण ही मोह जाल में फंस कर उसके साथ रमण करता रहा जिसे कारण से हे मित्र ! तू अपने वास्तविक स्वरूप की स्मृति को भूल गया था। सो हे मित्र ! तेरी यह सब दशा उस स्त्री की संगति में फंसने के कारण से ही हुई है। पहले जन्म में तू अपने आपको पुरुष मानता था और इस जन्म में अपने आपको स्त्री समझता है सो वह सब तेरी इसी मोह माया में फैसने के कारण से हैं सो हे मित्र ! तू ऐसा मत समझ यह सब मेरे द्वारा रची हुई माया के कारण ही है हे मित्र हम तुम दोंनों मानसरोवर वासी हंस है मेरी माया के वश में होकर तू अपनी उड़ान को भूल गया है। ऐसा मत समझ जो मैं हूँ वही तू है तू मेरा ही प्रतिविब है । यह सब तू अविद्या के कारण से ही समझता है।

नारद जी समझाते हुये राजा प्राचीन वर्हि से कहते हैं कि हे राजन ! वह मित्र जो अविज्ञात के नाम वाला है वह ईश्वर है पुरंजन जीव है अर्थात् परमात्मा जीवात्मा से कहता है ऐसा समझना चाहिये। क्योंकि अविज्ञात के समझाने पर पुरंजन पुनः वृह्म को प्राप्त हुआ मानसरोवर जो कहा गया है वह हृदय को कहा गया है और स्वयं को तथा पुरंजन को अविज्ञत ने हंस कहा है सो जीव तथा परमात्मा को ही कहा है। हे राजा प्राचीन वर्हि ! इस प्रकार मेंने तुम्हें आत्म ज्ञान कराने के लिये ही राजा पुरंजन का उदाहरण रूप सुनाया है जिससे तुम्हें भगवान में भक्ति बढ़े और इस भवबंधन से मुक्त होने के लिये भक्ति उपाय कर सको।
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१-स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, शब्द।
२-शरीर के नव छिन्द्र- २ नाक, २ आँख २ कान, १मुख, १ गुदा। ३.प्राण।
४-पृथ्वी, तेज, जल।
५-श्रोत, त्वचा, नेत्र, रसना।
६-हाथ, पाँव, वाणी, लिंग, गुदा।


Find the truthfulness in you, get the real you, power up yourself with divine blessings, dump all your sins...via... Shrimad Bhagwad Mahapuran🕉

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