सनातन धर्म के आदर्श पर चल कर बच्चों को हृदयवान मनुष्य बनाओ।
सनातन धर्म की पद्धति से बच्चों को हृदयवान मनुष्य बनाओ।
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बच्चे का 8 साल तक हृदय विकसित होता है। हृदय मतलब उसमें भावनाएं, प्रेम, करुणा, दया, स्नेह, अपनापन, निर्भयता, साहस, सहअस्तित्व, परिवार के प्रति लगाव, सम्मान, श्रद्धा, आज्ञाकारिता, ये सब भाव 8 साल से पहले हृदय में पनपते और पुष्ट होते हैं।
इसलिए वैदिक युग में 8 साल के बाद ही बच्चों को गुरुकुल भेजा जाता था।
उससे पहले भी एक बात का विशेष ध्यान रक्खा जाता था कि बच्चे का ज्यादा से ज्यादा समय दादा-दादी के पास गुजरे। क्योंकि हो सकता है कि मां बाप अभी गृहस्थी में कच्चे हों, हो सकता है बच्चे कैसे पालें जाएं उन्हें उतना अनुभव न हो, क्योंकि वे तो पहली बार माता पिता बने हैं। जबकि दादा दादी अनुभवी हैं। कुछ बातें अनुभव से ही आती हैं।
तो बच्चा दादा के सिर पर चढ़ा रहता, दाढ़ी खींच लेता, दांत निकलने लगते तब काट भी लेता। कभी कभी ऐसी शरारत भी कर देता जो असहनीय हो, फिर भी दादा दादी डांटते नहीं थे, बस प्रेम करते रहते थे। इससे बच्चे के मासूम हृदय में यह बात बैठ जाती की परिवार मतलब हमारी कैसी भी गलती हो उसका उत्तर प्रेम से देने का नाम है, छिड़ककर नहीं।
कुत्ता आ जाता तो दादा कहता-ये ले लठ, मार ॰॰॰॰॰बच्चा डंडा लेकर कुत्ते के पीछे दौड़ पड़ता, उस समय यह खेल था, लेकिन बाद में जब हृदय निर्भय हो जाता था तो वही बच्चा शेर से भी ऐसे ही टकरा जाता था बिना किसी भय के जैसे गली के कुत्ते से, जैसा उसने बचपन से सीखा था।
अब बच्चे 2 साल की उम्र में प्ले स्कूल में जा रहे हैं।
वहां गैर अनुभवी छोटी उम्र के मास्टर मास्टरनियों द्वारा बात बात में डांटे जाते हैं। धीरे धीरे बच्चे के हृदय में जो अभी विकास कर ही रहा था, उसके हृदय में बैठ जाता है कि जीवन मतलब परिवार से दूरी, क्योंकि आप 2 साल के बालक को स्कूल के नाम पर दूर कर ही रहे हो न, तो बड़ा होकर वह आपको उठाकर कबाड़ घर में फेंक दे तो इसमें आश्चर्य कैसा?यही तो उसने सीखा है बचपन में!
छिपकली, कॉकरोच, से डर के घर में दुबक जाए तो क्या दिक्कत है। बालपन में जब हृदय निर्भयता के लिए तैयार था तब उसमें कुत्ते, कॉकरोच, भूत आदि से डर ही तो बिठाया गया था। उसके हृदय ने जो पहली भाषा सीखी वह परिवार से दूरी की थी, पास रहने की नहीं, पहली बात जो उसके मासूम हृदय को सीखनी चाहिए थी वह निर्भयता थी लेकिन उसने जो बात सीखी वह डर था, तुम्हारी डांट फटकार का डर, कुत्ते बिल्ली भूत का डर!
अपने बच्चों का बचपन नियमों और विद्या के नाम पर खत्म न करें। आधुनिक विज्ञान तुम्हें बताएगा कि बच्चा जितना सारी उम्र में सीखता है। उतना उम्र के पहले तीन साल में सीखता है,उनकी बातों में मत आना। उनके तथ्य निराधार और हर दो दस साल में बदलने वाले होते हैं।जबकि तुम सनातन के हिस्से हो, जो शास्वत है, जो था, और रहेगा।अपने पूर्वजों के ज्ञान विज्ञान पर भरोसा करके उनके बताए मार्ग पर पालन पोषण करो, ताकि वे तुम्हारे साथ वह कर सकें जो तुमने उनके साथ बचपन में किया है, वे तुम्हें वह दे सकें जो तुमने उन्हें बचपन में दिया है।
अगर उन्हें बालपन में डर और दूरी और बात बात में डाँट दी है तो समय आने पर डर, दूरी और बात बात में उनसे डाँट खाने के लिए तैयार रहो
भले ही यह बहाना बनाओ की यह सब हम उनके भले के लिए कर रहे हैं।
वे बहाना नहीं बनाएंगे, वृद्धाश्रम बनाएंगे, और कहेंगे हम यह तुम्हारे भले के लिए कर रहे हैं।
और हां, जो उन्होंने कहा--बाबाजी आप क्या जानों मां बाप की जिम्मेदारी, तो बता दूं कि जिस बच्चे से हम एकबार मिल लेते हैं वह सदा के लिए हमारा हो जाता है।
क्योंकि हम उन्हें प्रेम और स्वतंत्रता देते हैं श्रद्धा के साथ, वही हमें उनसे वापस मिलता है। इस साधु की यही तो एकमात्र पूंजी है, प्रेम बिना बंधन के, स्वतंत्रता, बिना मर्यादाओं की सीमा उलांघे, श्रद्धा वो भी बेशर्त, ज्ञान अनुभव से--बिना उनकी खोपड़ी में सूचनाओं का बोझ लादे।
काश अपने बच्चों को ऐसे पाल सको, उन्हें सूचनाओं की मशीन की जगह हृदयवान मनुष्य बना सको।
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आचार्य वात्स्यायन और शरीर विज्ञान।
तांत्रिक यानी शरीर वैज्ञानिक।।
मनुष्य के वर्तमान जन्म के ऊपर पिछले जन्म अथवा जन्मों के प्रभाव का दस्तावेज है।
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ॐ श्री परमात्मने नमः। *सूर्यदेव*
Find the truthfulness in you, get the real you, power up yourself with divine blessings, dump all your sins...via... Shrimad Bhagwad Mahapuran🕉
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