Inside the hindu mall.

एक मित्र ने मुझसे कहा- वैदिक काल से लेकर अब तक तुम्हारे हिन्दू धर्म के अंदर इतने सारे परिवर्तन हो चुके हैं कि अब ये पता करना लगभग असंभव है कि इसका मूल स्वरूप क्या रहा होगा। आरंभिक और मूल शिक्षाऐं क्या रही होंगी। इसलिए तुम ये मान लो कि तुम्हारे धर्म के अंदर इतनी तब्दीली आ चुकी है कि अब उसमें कुछ भी ऐसा नहीं खोजा जा सकता जो शुरू से लेकर आज तक वही है। उसने फिर व्यंग्य के लहजे में कहा- मुझे तो लगता है कि तुम लोग खुद ही कंफ्यूज हो गये होगे कि क्या मान रहे हैं और क्या मानना था।  मैंने उस वक़्त उससे कुछ भी नहीं कहा और उसे उत्तर देने के लिए सही अवसर की प्रतीक्षा करने लगा।  एक दिन उसके साथ उसके यहाँ बैठा था। टीवी पर 'बाहुबली' फिल्म आ रही था। फिल्म के उस दृश्य में 'कालकेय' के साथ युद्ध में पराजित होकर भागती अपनी सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए 'बाहुबली' कहता है-  “क्या है मृत्यु? हमारे आत्मबल से शत्रु का बल ज्यादा है ये सोचना है मृत्यु ! रणभूमि में शत्रु से भयभीत होकर जीवित रहना है मृत्यु ! जिस नीच ने हमारी माँ का अपमान किया है वो हमारी आंखों के सामने अट्टहास कर रहा है, उसका सर काटकर माँ की चरणों में अर्पित करने की जगह पीठ दिखाकर भागना है मृत्यु ! उस मृत्यु को मारने जा रहा हूँ मैं, मेरी माँ और मातृभूमि को कोई नीच पापी छू नहीं सकता....उनकी छाती चीरकर उन सबको ये कहने जा रहा हूँ मैं…….मेरे साथ आएगा कौन? मेरे साथ लड़ेगा कौन? उस मृत्यु को पार करके मेरे साथ अमर होगा कौन?”  मेरे साथ इस दृश्य को देख रहे उस मित्र से मैंने कहा- ये देख रहे हो? बाहुबली जिस मृत्यु और अमरता की बात कर रहा है, वो है तुम्हारे उस दिन के प्रश्न का उत्तर। जिसे तुम परिवर्तन होना कह रहे थे वह हिन्दू धर्म के केवल बाह्य स्वरुप का परिवर्तन है; क्योंकि हिन्दू धर्म की “अंतर्धारा” में आज तक कोई भी परिवर्तन न तो हुआ है और न ही हो सकता है; ठीक उसी तरह जैसे किसी पानी के पाइप लाइन के ऊपर तुम चाहो तो हर वर्ष रंगाई-पुताई करके इसके बाह्य रूप को अथवा रंग को तो परिवर्तित कर दोगे पर इसकी अंतर्धारा वही रहेगी, इसके अंदर वही जल प्रवाहित होगा।  ऐसी अंतर्धारा के अनेकों उदाहरण हो सकते हैं जिसमें एक तुम्हारे सामने अभी इस फिल्म में दृश्यमान हुआ। उसने पूछा- ऐसा क्या कह दिया है बाहुबली ने जिसे तुम हिन्दू धर्म की अपरिवर्तित “अंतर्धारा” बता रहे हो?  मैंने उससे कहा- अगर तुम वेद पढ़ोगे तो वहां हमारे ऋषियों ने कहा था-  "अहमिन्द्रो न पराजिग्य" अर्थात् 'मैं आत्मा हूँ मुझे कोई पराजित नहीं कर सकता।' यजुर्वेद के मंत्रों में आत्मा की अमरता, अजरता और शरीर के मरणधर्मा होने की बात कही गई है। अर्थववेद में “एवा में प्राण माँ बिभे" यानि "हे मेरे प्राण ! उसी प्रकार तुम भी मत डरो" कहते हुए अनेकों मन्त्र हैं। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- “इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है; जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।” आत्मा की अमरता और शरीर के मरणधर्मा होना का जो सिद्धांत वेदों में और गीता में है, वही हर काल में, हर दौर में रही है।  उदाहरण के लिए अगर मैं तुमको प्राचीन काल में ले चलूँ तो वहां भक्त प्रहलाद का वृतांत है। प्रहलाद भगवान बिष्णु के भक्त थे और ये बात उसके पिता हिरण्यकश्यप को पसंद नहीं थी। एक दिन कुपित होकर उसने अपने ही पुत्र के वध का आदेश दे दिया। उसकी सेना में जिसके पास जो भी शस्त्र था वो वही लेकर प्रहलाद पर टूट पड़ा। वो प्रहलाद को मार नहीं पाए तो उसकी बुआ होलिका (जिसे यह वरदान था कि अग्नि उसे जला नहीं सकती) उसे गोद में लेकर अग्नि में बैठ गई पर पाँच वर्ष के बालक प्रहलाद अविचलित, एकाकी, शांत उसकी गोद में बैठे रहे। मुस्कुराते हुए उन्होंने अपने पिता से पूछा- आप मेरे शरीर को तो मार सकते हैं पर मेरी आत्मा को कैसे मारियेगा जो अविनाशी है?  प्रहलाद जो कह रहे थे वो थी हिन्दू धर्म की अपरिवर्तित “अंतर्धारा” यानि आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का सिद्धांत।  उस दौर से निकालकर अगर मैं तुमको ईसा पूर्व ले चलूँ तो वहां सिकंदर और तक्षशिला के एक संन्यासी का प्रसंग मिलता है। कहा जाता है कि उस वृद्ध विद्वान् संन्यासी के बारे में जब सिकंदर को पता चला तो उसने अपने अधिकारी को भेजकर उन्हें बुलवाना चाहा। वृद्ध संन्यासी ने सिकंदर के उस अधिकारी से कहा- सिकंदर होगा ‘विश्व-विजेता' पर मुझे उससे क्या…..मैं नहीं जाता उसके बुलावे पर। उनके इंकार से चिढ़कर सिकंदर के उस अधिकारी ने कहा- “अगर नहीं जाओगे तो चाहे दुनिया में कहीं छिप जाओ सिकंदर तुम्हें ढूँढकर तुम्हारा शिरोच्छेदन कर देगा।” उसकी इस धमकी को सुनकर वो वृद्ध संन्यासी अट्टहास कर उठे और कहा- “मेरा शिरोच्छेदन करके तुम्हारा वो मूर्ख सम्राट क्या हासिल कर लेगा? अधिक से अधिक इतना ही कि पंचतत्व से बना मेरा यह सिर और ये पिंड उसी पंचतत्व में लीन हो जायेगा जिससे यह बना हुआ है पर वह कभी भी मेरी आत्मा का छेदन नहीं कर सकेगा क्योंकि मेरी आत्मा तो अछेद्य है। जाओ जाकर कह दे अपने सम्राट से कि दंडमिस नहीं आता उसके बुलावे पे।”  वृद्ध और निर्भीक संन्यासी दंडमिस जो कह रहे थे वो था हिन्दू धर्म की अपरिवर्तित “अंतर्धारा” यानि आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का सिद्धांत।  जब तुम भक्ति काल में आओगे तो वहां तुम्हें मीराबाई मिलेगी। उन्हें मारने के लिए जहर का प्याला जब भेजा जाता है तो उसे लाने वाली कहती है- इस प्याले में विष है लेकिन मीरा ये कहते हुए कि ये विष उसके नश्वर शरीर को मारने के सिवा और क्या कर सकती है, हंसकर उस विष प्याले को पी जाती हैं।  कृष्ण के प्रेम की दीवानी मीरा ने कहा वो था हिन्दू धर्म की अपरिवर्तित “अंतर्धारा” यानि आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का सिद्धांत।  बाबा बंदा सिंह बैरागी गिरफ्तार किये जा चुके थे। चार साल के उनके बेटे अजय सिंह को क़त्ल किये जाने का हुक्म हो चुका था। अंतिम बार बेटे को बाप से मिलाया जाता है तो बाप बेटे से पूछते हैं - पुत्तर ! तैनूं डर ते नही लगदा न? बेटे ने जबाब दिया- डर? ओ की हुँदा आ?  बाबा बंदा के चार साले के उस बेटे ने जो कहा वो था हिन्दू धर्म की अपरिवर्तित “अंतर्धारा” यानि आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का सिद्धांत।  हिन्दू धर्म की इसी अपरिवर्तित “अंतर्धारा” के अधीन नाना साहब पेशवा ने अंग्रेज जनरल को एक पत्र में लिखा था- “मैं मृत्यु के लिए सदैव सन्नद्ध हूँ। इसी अपरिवर्तित अंतर्धारा को हृदयंगम किये महान क्रांतिकारी राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी ने अपने साथियों को लिखे पत्र में कहा था- "हमारे लिए मृत्यु शरीर का परिवर्तन मात्र है- पुराने कपड़े को फेंक कर नया कपड़ा पहन लेना है मृत्यु आ रही है मैं प्रसन्नचित्त' और प्रसन्नवदन से उसका आलिंगन करूँगा।”  भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने काव्य संग्रह 'मेरी इक्यावन कवितायेँ' में जब ये लिखा कि "हे ईश्वर मुझे इतनी शक्ति देना कि अंतिम दस्तक पर स्वयं उठकर कपाट खोलूँ और मृत्यु का आलिंगन करूँ तो वो भी हिन्दू धर्म की इसी अपरिवर्तित “अंतर्धारा” के वशीभूत ऐसा लिख रहे थे।  आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का सिद्धांत हिन्दू धर्म की शिक्षा है जो अनादि काल से आज तक है और इससे जन्मा “निर्भयता” हिन्दू धर्म के अनुयायियों का स्वभाव है जो आज तक अपरिवर्तित है। इसलिए मेरे मित्र ! दिक्कत ये है कि हिन्दू धर्म के जो परिवर्तन तुम लोगों को दिखते हैं वो केवल बाह्य परिवर्तन हैं; जबकि हिंदुत्व की मूल चिंतना आज भी वही है जो हिन्दू धर्म के उषा काल में थी। जब तुम इसपर चिंतन करने जाओगे तो ये तुम्हें दिखेगा और तब तुम्हारी उन सारी भ्रामक शंकाओं का निर्मूलन हो जाएगा जो तुमने हिन्दू धर्म के बारे में पाल रखे हैं। हमारी मूल चिंतन धारा आज भी परिवर्तित नहीं हुई और इसलिए सदियों के झंझावातों के बावजूद हम बचे हुए हैं, हमारा धर्म बचा हुआ है, हमारी संस्कृति बची हुई है।  :writing_hand:️ मेरी पुस्तक "इनसाइड द हिन्दू मॉल से"

एक मित्र ने मुझसे कहा- वैदिक काल से लेकर अब तक तुम्हारे हिन्दू धर्म के अंदर इतने सारे परिवर्तन हो चुके हैं कि अब ये पता करना लगभग असंभव है कि इसका मूल स्वरूप क्या रहा होगा। आरंभिक और मूल शिक्षाऐं क्या रही होंगी। 

इसलिए तुम ये मान लो कि तुम्हारे धर्म के अंदर इतनी तब्दीली आ चुकी है कि अब उसमें कुछ भी ऐसा नहीं खोजा जा सकता जो शुरू से लेकर आज तक वही है। उसने फिर व्यंग्य के लहजे में कहा- मुझे तो लगता है कि तुम लोग खुद ही कंफ्यूज हो गये होगे कि क्या मान रहे हैं और क्या मानना था।

मैंने उस वक़्त उससे कुछ भी नहीं कहा और उसे उत्तर देने के लिए सही अवसर की प्रतीक्षा करने लगा।

एक दिन उसके साथ उसके यहाँ बैठा था। टीवी पर 'बाहुबली' फिल्म आ रही था। फिल्म के उस दृश्य में 'कालकेय' के साथ युद्ध में पराजित होकर भागती अपनी सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए 'बाहुबली' कहता है-

क्या है मृत्यु? हमारे आत्मबल से शत्रु का बल ज्यादा है ये सोचना है मृत्यु ! रणभूमि में शत्रु से भयभीत होकर जीवित रहना है मृत्यु ! जिस नीच ने हमारी माँ का अपमान किया है वो हमारी आंखों के सामने अट्टहास कर रहा है, उसका सर काटकर माँ की चरणों में अर्पित करने की जगह पीठ दिखाकर भागना है मृत्यु ! उस मृत्यु को मारने जा रहा हूँ मैं, मेरी माँ और मातृभूमि को कोई नीच पापी छू नहीं सकता....उनकी छाती चीरकर उन सबको ये कहने जा रहा हूँ मैं…….मेरे साथ आएगा कौन? मेरे साथ लड़ेगा कौन? उस मृत्यु को पार करके मेरे साथ अमर होगा कौन?”

मेरे साथ इस दृश्य को देख रहे उस मित्र से मैंने कहा- ये देख रहे हो? बाहुबली जिस मृत्यु और अमरता की बात कर रहा है, वो है तुम्हारे उस दिन के प्रश्न का उत्तर। जिसे तुम परिवर्तन होना कह रहे थे वह हिन्दू धर्म के केवल बाह्य स्वरुप का परिवर्तन है; क्योंकि हिन्दू धर्म की “अंतर्धारा” में आज तक कोई भी परिवर्तन न तो हुआ है और न ही हो सकता है; ठीक उसी तरह जैसे किसी पानी के पाइप लाइन के ऊपर तुम चाहो तो हर वर्ष रंगाई-पुताई करके इसके बाह्य रूप को अथवा रंग को तो परिवर्तित कर दोगे पर इसकी अंतर्धारा वही रहेगी, इसके अंदर वही जल प्रवाहित होगा।

ऐसी अंतर्धारा के अनेकों उदाहरण हो सकते हैं जिसमें एक तुम्हारे सामने अभी इस फिल्म में दृश्यमान हुआ। उसने पूछा- ऐसा क्या कह दिया है बाहुबली ने जिसे तुम हिन्दू धर्म की अपरिवर्तित “अंतर्धारा” बता रहे हो?

मैंने उससे कहा- अगर तुम वेद पढ़ोगे तो वहां हमारे ऋषियों ने कहा था-

"अहमिन्द्रो न पराजिग्य" अर्थात् 'मैं आत्मा हूँ मुझे कोई पराजित नहीं कर सकता।' यजुर्वेद के मंत्रों में आत्मा की अमरता, अजरता और शरीर के मरणधर्मा होने की बात कही गई है। अर्थववेद में “एवा में प्राण माँ बिभे" यानि "हे मेरे प्राण ! उसी प्रकार तुम भी मत डरो" कहते हुए अनेकों मन्त्र हैं। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- “इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है; जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।” आत्मा की अमरता और शरीर के मरणधर्मा होना का जो सिद्धांत वेदों में और गीता में है, वही हर काल में, हर दौर में रही है।

उदाहरण के लिए अगर मैं तुमको प्राचीन काल में ले चलूँ तो वहां भक्त प्रहलाद का वृतांत है। प्रहलाद भगवान बिष्णु के भक्त थे और ये बात उसके पिता हिरण्यकश्यप को पसंद नहीं थी। एक दिन कुपित होकर उसने अपने ही पुत्र के वध का आदेश दे दिया। उसकी सेना में जिसके पास जो भी शस्त्र था वो वही लेकर प्रहलाद पर टूट पड़ा। वो प्रहलाद को मार नहीं पाए तो उसकी बुआ होलिका (जिसे यह वरदान था कि अग्नि उसे जला नहीं सकती) उसे गोद में लेकर अग्नि में बैठ गई पर पाँच वर्ष के बालक प्रहलाद अविचलित, एकाकी, शांत उसकी गोद में बैठे रहे। मुस्कुराते हुए उन्होंने अपने पिता से पूछा- आप मेरे शरीर को तो मार सकते हैं पर मेरी आत्मा को कैसे मारियेगा जो अविनाशी है?


प्रहलाद जो कह रहे थे वो थी हिन्दू धर्म की अपरिवर्तित “अंतर्धारा” यानि आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का सिद्धांत।

उस दौर से निकालकर अगर मैं तुमको ईसा पूर्व ले चलूँ तो वहां सिकंदर और तक्षशिला के एक संन्यासी का प्रसंग मिलता है। कहा जाता है कि उस वृद्ध विद्वान् संन्यासी के बारे में जब सिकंदर को पता चला तो उसने अपने अधिकारी को भेजकर उन्हें बुलवाना चाहा। वृद्ध संन्यासी ने सिकंदर के उस अधिकारी से कहा- सिकंदर होगा ‘विश्व-विजेता' पर मुझे उससे क्या…..मैं नहीं जाता उसके बुलावे पर। उनके इंकार से चिढ़कर सिकंदर के उस अधिकारी ने कहा- “अगर नहीं जाओगे तो चाहे दुनिया में कहीं छिप जाओ सिकंदर तुम्हें ढूँढकर तुम्हारा शिरोच्छेदन कर देगा।” उसकी इस धमकी को सुनकर वो वृद्ध संन्यासी अट्टहास कर उठे और कहा- “मेरा शिरोच्छेदन करके तुम्हारा वो मूर्ख सम्राट क्या हासिल कर लेगा? अधिक से अधिक इतना ही कि पंचतत्व से बना मेरा यह सिर और ये पिंड उसी पंचतत्व में लीन हो जायेगा जिससे यह बना हुआ है पर वह कभी भी मेरी आत्मा का छेदन नहीं कर सकेगा क्योंकि मेरी आत्मा तो अछेद्य है। जाओ जाकर कह दे अपने सम्राट से कि दंडमिस नहीं आता उसके बुलावे पे।”

वृद्ध और निर्भीक संन्यासी दंडमिस जो कह रहे थे वो था हिन्दू धर्म की अपरिवर्तित “अंतर्धारा” यानि आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का सिद्धांत।

जब तुम भक्ति काल में आओगे तो वहां तुम्हें मीराबाई मिलेगी। उन्हें मारने के लिए जहर का प्याला जब भेजा जाता है तो उसे लाने वाली कहती है- इस प्याले में विष है लेकिन मीरा ये कहते हुए कि ये विष उसके नश्वर शरीर को मारने के सिवा और क्या कर सकती है, हंसकर उस विष प्याले को पी जाती हैं।

कृष्ण के प्रेम की दीवानी मीरा ने कहा वो था हिन्दू धर्म की अपरिवर्तित “अंतर्धारा” यानि आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का सिद्धांत।

बाबा बंदा सिंह बैरागी गिरफ्तार किये जा चुके थे। चार साल के उनके बेटे अजय सिंह को क़त्ल किये जाने का हुक्म हो चुका था। अंतिम बार बेटे को बाप से मिलाया जाता है तो बाप बेटे से पूछते हैं - पुत्तर ! तैनूं डर ते नही लगदा न? बेटे ने जबाब दिया- डर? ओ की हुँदा आ?

बाबा बंदा के चार साले के उस बेटे ने जो कहा वो था हिन्दू धर्म की अपरिवर्तित “अंतर्धारा” यानि आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का सिद्धांत।

हिन्दू धर्म की इसी अपरिवर्तित “अंतर्धारा” के अधीन नाना साहब पेशवा ने अंग्रेज जनरल को एक पत्र में लिखा था- “मैं मृत्यु के लिए सदैव सन्नद्ध हूँ। इसी अपरिवर्तित अंतर्धारा को हृदयंगम किये महान क्रांतिकारी राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी ने अपने साथियों को लिखे पत्र में कहा था- "हमारे लिए मृत्यु शरीर का परिवर्तन मात्र है- पुराने कपड़े को फेंक कर नया कपड़ा पहन लेना है मृत्यु आ रही है मैं प्रसन्नचित्त' और प्रसन्नवदन से उसका आलिंगन करूँगा।”

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने काव्य संग्रह 'मेरी इक्यावन कवितायेँ' में जब ये लिखा कि "हे ईश्वर मुझे इतनी शक्ति देना कि अंतिम दस्तक पर स्वयं उठकर कपाट खोलूँ और मृत्यु का आलिंगन करूँ तो वो भी हिन्दू धर्म की इसी अपरिवर्तित “अंतर्धारा” के वशीभूत ऐसा लिख रहे थे।

आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का सिद्धांत हिन्दू धर्म की शिक्षा है जो अनादि काल से आज तक है और इससे जन्मा “निर्भयता” हिन्दू धर्म के अनुयायियों का स्वभाव है जो आज तक अपरिवर्तित है। इसलिए मेरे मित्र ! दिक्कत ये है कि हिन्दू धर्म के जो परिवर्तन तुम लोगों को दिखते हैं वो केवल बाह्य परिवर्तन हैं; जबकि हिंदुत्व की मूल चिंतना आज भी वही है जो हिन्दू धर्म के उषा काल में थी। जब तुम इसपर चिंतन करने जाओगे तो ये तुम्हें दिखेगा और तब तुम्हारी उन सारी भ्रामक शंकाओं का निर्मूलन हो जाएगा जो तुमने हिन्दू धर्म के बारे में पाल रखे हैं। हमारी मूल चिंतन धारा आज भी परिवर्तित नहीं हुई और इसलिए सदियों के झंझावातों के बावजूद हम बचे हुए हैं, हमारा धर्म बचा हुआ है, हमारी संस्कृति बची हुई है।

 "इनसाइड द हिन्दू मॉल से"

A book by NEO DEEP 

श्री कृष्ण के वस्त्रावतार का रहस्य।।


Most of the hindus are confused about which God to be worshipped. Find answer to your doubts.



हम किसी भी व्यक्ति का नाम विभीषण क्यों नहीं रखते ?


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सनातन व सिखी में कोई भेद नहीं।


सनातन-संस्कृति में अन्न और दूध की महत्ता पर बहुत बल दिया गया है !


Astonishing and unimaginable facts about Sanatana Dharma (HINDUISM)



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Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉 For queries mail us at: shrimadbhagwadpuran@gmail.com. Suggestions are welcome! Find the truthfulness in you, get the real you, power up yourself with divine blessings, dump all your sins...via... Shrimad Bhagwad Mahapuran🕉

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